|| Mallinath Jagnath Thaye Nirabad Devchandraji LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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Mallinath Jagnath Thaye Nirabad स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री मल्लिनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan |
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|| मल्लिनाथ जगनाथ निराबाधना ||
श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन
मल्लिनाथ जगनाथ चरणयुग ध्याईये रे, च.
शुद्धताम प्राग्भाव परम पद पाईये रे; प.
साधक कारक षट्क करे गुण साधना रे, क.
तेहिज शुद्ध सरूप, थाय निराबाधना रे ।।था.1।।
कर्ता आतम द्रव्य, कार्यनिज सिद्धतारे, का.
उपादान परिणाम, प्रयुक्त ने करणता रे; प.
आतम संपद दान तेह संप्रदानता रे, ते.
दाता पात्रने देय, त्रिभाव अभेदता रे ।।त्रि. 2।।
स्व पर विवेचन करण तेह अपादानथी रे, ते.
सकल पर्याय आधार संबंध आस्थानथी रे; स.
बाधक कारक भाव, अनादि निवारवो रे, अ.
साधकता अवलंबी, तेह समारवो रे ।।ते. 3।।
शुद्धपणे पर्याय प्रवर्तन कार्यमें रे; ते.
कर्तादिक परिणाम ते आतम धर्ममें रे; ते
चेतन चेतन भाव करे समवेतमें रे, क.
सादि अनंतो काल, रहे निज खेतमें रे ।।र. 4।।
पर कर्तृत्व स्वभाव करे तां लगी करे रे, क.
शुद्ध कार्य रुचि भास थये नवि आदरे रे; थ.
शुद्धात्म, निज कार्य रुचे कारक फिरे रे, रु.
तेहिज मूल स्वभाव, ग्रहे निज पद वरे रे ।।ग्र. 5।।
कारण कारज रुप, अछे कारक दशा रे।। अछे.।।
वस्तु प्रगट पर्याय, एह मनमें वस्या रे ।। एह.।।
पण शुद्ध स्वरुप ध्यान, चेतनता ग्रह रे।। चेतनता.।।
तव निज साधकभाव सकल कारक लहे रे।। ।।स. 6।।
माहरुं पूर्णानंद, प्रकट करवा भणी रे।। प्रकट.।।
पुष्टालंबन रुप, सेव प्रभुजी तणी रे ।। सेव।।
'देवचंद्र' जिनचंद्र, भक्ति मनमे धरो रे ।। भक्ति.।।
अव्याबाध अनंत, अक्षय पद आदरो रे ।।अ. 7।।
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अर्थ 1 : जगत् के नाथ श्री मल्लिनाथ परमात्मा के पाद-पद्म का ध्यान करने से शुद्ध परमात्म पद का प्रादुर्भाव होता है। क्योंकि श्री अरिहन्त प्रभु की सेवा से साधक के छहों कारक ज्ञानादि गुणों की साधना करते हैं और आत्मा का पूर्ण शुद्ध स्वरूप प्रकट होने पर वे ही षट्कारक निराबाधरुप में परिणत होते हैं।
मल्लिनाथ जगनाथ चरणयुग ध्याईये रे, च.
शुद्धताम प्राग्भाव परम पद पाईये रे; प.
साधक कारक षट्क करे गुण साधना रे, क.
तेहिज शुद्ध सरूप, थाय निराबाधना रे ।।था.1।।
अर्थ 2 : (1) कर्ता : आत्मद्रव्य आत्मशुद्धिरूप कार्य में प्रवृत्त हुआ। यह प्रथम कर्ता कारक है। (2) कार्य : स्वसिद्धता (ज्ञानादि सर्व गुणों की पूर्णतारूप) कार्य – यह दूसरा कार्य (कर्म) कारक है। (3) कारण : उपादानपरिणाम, तत्त्वरूचि, तत्त्वज्ञान, तत्त्वपरिणति-तत्त्वरमणता, ये उपादान-कारण है और अरिहन्तादि निमित्त कारण हैं, इनका प्रयोग करना यह तीसरा करण कारक है। (4) संप्रदान : आत्मसम्पत्ति का दान अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र का दान आत्मा स्वयं अपने उत्तरोत्तर गुण को प्रकट करने के लिए करे, यह चौथा सम्प्रदान कारक है। यहाँ दाता आत्मा है, पात्र भी आत्मा है और देय आत्मगुण है। इस प्रकार तीनों की अभेदता है।
कर्ता आतम द्रव्य, कार्यनिज सिद्धतारे, का.
उपादान परिणाम, प्रयुक्त ने करणता रे; प.
आतम संपद दान तेह संप्रदानता रे, ते.
दाता पात्रने देय, त्रिभाव अभेदता रे ।।त्रि. 2।।
अर्थ 3 : (5) अपादान : स्व-पर की विवेक करना। जैसे, ज्ञानादि आत्मगुण ‘स्व’ है और रागद्वेषादि ‘पर’ है। ऐसा विचारकर उनका विवेक करना यह पांचवां अपादान कारक है। (6) आधार : समग्र स्व-पर्याय का आधार आत्मा है। आत्मा का स्वपर्याय के साथ स्व-स्वामित्वादि संबंध है, उसका आस्थान-आधार क्षेत्र आत्मा है। यह छठा आधार कारक है। अनादि से बाधकभाव से (मिथ्यात्व-अविरति-कषायादि में) परिणत षट्कारक के चक्र को रोककर साधकता के आलम्बन द्वारा ‘स्वरूप-अनुयायी’ बनाना चाहिए। जिससे सिद्धता-मोक्षरूप स्वकार्य की सिद्धि हो।
स्व पर विवेचन करण तेह अपादानथी रे, ते.
सकल पर्याय आधार संबंध आस्थानथी रे; स.
बाधक कारक भाव, अनादि निवारवो रे, अ.
साधकता अवलंबी, तेह समारवो रे ।।ते. 3।।
अर्थ 4 : अब सिद्ध अवस्था में षट्कारक-प्रवृत्ति किस प्रकार है? यह बताते हैं -(1) कर्ता : शुद्ध ज्ञान-दर्शनादि पर्यायों को जानने-देखनेरूप कार्य का अथवा उत्पाद-व्ययरूप से परिणमन का कर्ता शुद्ध आत्मा है। (2) कार्य : शुद्ध ज्ञानादि पर्यायों को जानने-देखने ते र्ता में प्रवचन होना यह कार्य कारक है। (3) करण : केवलज्ञानादि गुण करण कारक है। (4) संप्रदान : आत्म-गुणों का परस्पर सहायरूप दान अथवा लाभ, यह संप्रदान है। (5) अपादान : परभाव का त्याग अपादान कारक है। (6) अनन्त गुणों का आश्रय आत्मा है, यह आधार है। इस प्रकार पूर्ण शुद्ध आत्मदशा में कतादि षट्कारक का परिणमन स्व-स्वरूप में ही होता है। आत्मा समवाय संबंध से अपने में रहे हुए ज्ञानादि स्वकार्य का कर्ता है और इसीलिए सिद्ध परमात्मा सादि-अनन्तकाल तक असंख्यात प्रदेशरूप क्षेत्र में ही रहते हैं।
शुद्धपणे पर्याय प्रवर्तन कार्यमें रे; ते.
कर्तादिक परिणाम ते आतम धर्ममें रे; ते
चेतन चेतन भाव करे समवेतमें रे, क.
सादि अनंतो काल, रहे निज खेतमें रे ।।र. 4।।
अर्थ 5 : यह जीव जब तक पर (पुद्गल) वस्तुओं को अपनी मानकर उनका भोग करता हैं तब तक ही उसे पर का कर्तृत्व (परकर्तापन) होता है। परंतु इस जीव को जब शुद्ध आत्मस्वरूप प्रकट करने की रूचि जाग्रत होती है, तब वह जीव पर-कर्तृत्व को स्वीकार नहीं करना अर्थात् मोक्षरूपी कार्य को करने की अभिलाषा होने पर, पर का कर्तृत्व उसमें नहीं रहता। शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्तिरूप कार्य को करने की रुचि होने से कारकचक्र परिवर्तित हो जाता है और स्व-कार्य के अनुरूप वह अपने मूल स्वभाव को अर्थात् अपने अचल अखण्ड, अविनाशी आत्मस्वभाव को ग्रहण करता है। जिसके फलस्वरूप आत्मा अपने परमात्म-पद को प्राप्त करता है।
पर कर्तृत्व स्वभाव करे तां लगी करे रे, क.
शुद्ध कार्य रुचि भास थये नवि आदरे रे; थ.
शुद्धात्म, निज कार्य रुचे कारक फिरे रे, रु.
तेहिज मूल स्वभाव, ग्रहे निज पद वरे रे ।।ग्र. 5।।
अर्थ 6 : षट्कारक क्या है? कर्तादि छहों कारकों की अवस्था का विचार करने से ज्ञात होता है कि कारक, कारण और कार्यरूप है। क्योंकि, वे कार्य को सिद्ध करने के साधन हैं और वे वस्तु (आत्मा) के प्रकट निरावरण पर्याय हैं। यह शास्त्रवचन मन में रहा हुआ है, परन्तु जब निराकार या साकार चेतना शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान में लीन होती है तब कर्तादि छहों कारक परभाव को छोड़कर निज साधकभाव को प्राप्त करती हैं। कर्म का विदारण करना और स्वरूप को प्रकट करना, यही कारक का साधक स्वभाव है।
कारण कारज रुप, अछे कारक दशा रे।। अछे.।।
वस्तु प्रगट पर्याय, एह मनमें वस्या रे ।। एह.।।
पण शुद्ध स्वरुप ध्यान, चेतनता ग्रह रे।। चेतनता.।।
तव निज साधकभाव सकल कारक लहे रे।। ।।स. 6।।
अर्थ 7 : इस प्रकार श्री अरिहन्त परमात्मा के दर्शन, पूजा और सेवा से छहों कारकों का वाधकभाव मिटकर साधकभाव हो जाने से क्रमशः पूर्णानन्द स्वरूप की प्राप्ति होती है। अतः मेरे पूर्णानन्द अव्याबाध सुख को प्रकट करने में पुष्ट (नियामक) निमित्त-आलंबनरूप श्री अरिहन्त प्रभु की सेवा (आज्ञापालन) ही है। अतः देवों में चन्द्र के समान निर्मल ऐसे जिनेश्वर परमात्मा की परम भक्ति को हृदय में धारण करो और अव्याबाध (परभाव की पीड़ा-रहितः, अनन्त, अक्षय पद को प्राप्त करो। जिन भक्ति ही सारी साधनाओं का सार है।
माहरुं पूर्णानंद, प्रकट करवा भणी रे।। प्रकट.।।
पुष्टालंबन रुप, सेव प्रभुजी तणी रे ।। सेव।।
'देवचंद्र' जिनचंद्र, भक्ति मनमे धरो रे ।। भक्ति.।।
अव्याबाध अनंत, अक्षय पद आदरो रे ।।अ. 7।।
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