|| Shital jinpati Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी स्तवन सांग
जैन स्तवन
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|| शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी ||
शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुजथी कहीय न जायजी;
अनंतता निर्मलता पूर्णता, ज्ञान विना न जणायजी ।।1।।
चरम जलधि जल मिणे अंजलि, गति जीपे अति वायजी;
सर्व आकाश ओलंघे चरणे, पण प्रभुता न गणायजी ।।2।।
सर्व द्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुण पर्यायजी;
तास वर्गथी अनंतगणुं प्रभु, केवलज्ञान कहायजी ।।3।।
केवल दर्शन एम अनंतुं, ग्रहे सामान्य स्वभावजी;
स्वपर अनंतथी चरण अनंतुं, समरण संवर भावजी ।।4।।
द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव गुण, राजनीति ए चारजी;
त्रास विना जड चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कारजी ।।5।।
शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगे, जे समरे प्रभु नामजी;
अव्याबाध अनंतुं पामे, परम अमृत सुख धामजी ।।6।।
आणा ईश्वरता निर्भयता, निर्वांछकता रूपजी;
भाव स्वाधीन ते अव्यय रीते, ईम अनंत गुण भूपजी ।।7।।
अव्याबाध सुख निर्मल ते तो, करण ज्ञाने न जणायजी;
तेह ज एहनो जाणग भोक्ता, जे तुम सम गुणरायजी ।।8।।
एम अनंत दानादिक निज गुण, वचनातीत पंडूरजी;
वासन भासन भावे दुर्लभ, प्राप्ति तो अति दूरजी ।।9।।
सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन गुरु, जाणुं तुज गुणग्रामजी;
बीजुं कांई न मागुं स्वामी, एहि करो मुज कामजी ।।10।।
ईम अनंत प्रभुता, सद्हतां, अरचे जे प्रभु रूपजी;
देवचंद्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी ।।11।।
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अर्थ 1 : श्री शीतलनाथ प्रभु की परम प्रभुता का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता क्योंकि प्रभु की प्रभुता की अनन्तता, निर्मलता और पूर्णता का पूर्ण स्वरूप केवलज्ञान के बिना नहीं जाना जा सकता और नहीं देखा जा सकता है। केवलज्ञानी भगवन्त भी प्रभुता को प्रत्यक्ष जानते है परंतु उसका वर्णन नहीं कर सकतें हैं। क्योंकि प्रभु की प्रभुता अनन्त है और वचन क्रमिक है एवं आयुष्य परिमित है। प्रभुता निरावरण-निःसंग होने से निर्मल है और सम्पूर्णरूप से प्रकट होने के कारण पूर्ण हैं।
शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुजथी कहीय न जायजी;
अनंतता निर्मलता पूर्णता, ज्ञान विना न जणायजी ।।1।।
अर्थ 2 : कदाचित् कोई समर्थ व्यक्ति स्वयंभूरमण समुद्र के (साधिक तीन रज्जु विस्तार परिधिवाले) पानी को अंजलि से माप सकता है। शीघ्रगति से प्रचण्ड वायु के वेग को भी जीत सकता है। पैदल चलकर लोकालाकरूप आकाश को भी पार कर सकता है परन्तु वह प्रभुता को कदापि गिन नहीं सकता। यह असंभवित दृष्टांत प्रभु की अनन्तता कितनी अनन्त एवं अगम्य है। यह बताने के लिए ही दिया गया है।
चरम जलधि जल मिणे अंजलि, गति जीपे अति वायजी;
सर्व आकाश ओलंघे चरणे, पण प्रभुता न गणायजी ।।2।।
अर्थ 3 : जगत् में जीवादि द्रव्य अनन्त हैं। उनसे प्रदेश अनन्त हैं। प्रदेशों से गुण अनन्त हैं और गुणों से पर्याय अनन्त हैं। उनका वर्ग करने से जो अनन्त-राशि प्राप्त होती है उस अनन्त-राशि से भी प्रभु का केवलज्ञान अनन्तगुण अधिक-विशाल है।
सर्व द्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुण पर्यायजी;
तास वर्गथी अनंतगणुं प्रभु, केवलज्ञान कहायजी ।।3।।
अर्थ 4 : केवलज्ञान गुण की तरह सर्व द्रव्यों के सामान्य स्वभाव को ग्रहण करनेवाला केवलदर्शन गुण भी अनन्त है। इसी तरह प्रभु का चारित्र गुण भी अनन्त पर्याय से युक्त होने के कारण अनन्त है। चारित्र अर्थात् स्वधर्म (स्वभाव) में रमण और परधर्म में अरमण अथवा स्वरूपरमण और परभाव निवृत्ति-यह चारित्र परिणति का स्वरूप है। अपनी ज्ञान, दर्शन और वीर्यादि गुणों की परिणमन शक्ति को सर्व परभावों से रोककर स्वभाव में ही स्थिर रखना, यह संवरभावरूप चारित्र कीू अनन्तता है। वीर्यादि गुण की भी स्वधर्म सापेक्ष अनन्तता समझ लेनी चाहिए।
केवल दर्शन एम अनंतुं, ग्रहे सामान्य स्वभावजी;
स्वपर अनंतथी चरण अनंतुं, समरण संवर भावजी ।।4।।
अर्थ 5 : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से श्री वीतराग अरिहन्त महाराजा की राजनीति चार प्रकार की है। उसका उल्लंघन कोई भी जड़ या चेतन पदार्थ नहीं कर सकता। अतः समस्त विश्व में प्रभु की आज्ञा अखण्ड रूप से चल रही है। जगत के राजा की आज्ञा को कोई मान्य करे, कोई मान्य न करे, ऐसा भी हो सकता है। परन्तु अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा को सृष्टि के समग्र पदार्थ मान्य करते हैं। जिस रूप में परमात्मा का ज्ञान परिणत होता है उसी रूप में सब पदार्थ परिणत होते हैं। परमात्मा ने जिस रूप में पदार्थो की प्ररूपणा की है उसी रूप में सर्व द्रव्यों की परिणति है। प्रभु न तो किसी को त्रास देते हैं और न किसी को भय दिखाते हैं तो भी सब पदार्थ प्रभु की आज्ञा का लोप बिना, प्रभु की ज्ञान-परिणति के अनुसार ही परिणत होते रहते हैं।
द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव गुण, राजनीति ए चारजी;
त्रास विना जड चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कारजी ।।5।।
अर्थ 6 : जो साधक दग्धादि दोषों को तजकर शुद्ध-आशय (मोक्षप्राप्ति के हेतु) से अरिहन्त परमात्मा के गुणों में ही स्थिर उपयोग रखकर प्रभु का स्मरण-ध्यान आदि करता है, वह अवश्य परम अमृत सुख के भण्डाररूप अनन्त अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है।
शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगे, जे समरे प्रभु नामजी;
अव्याबाध अनंतुं पामे, परम अमृत सुख धामजी ।।6।।
अर्थ 7 : आज्ञा, परम ऐश्वर्य, निष्कामता, स्वाधीनता, अविनाशिता आदि अनन्त गुण के स्वामी अरिहन्त परमात्मा है। वह इस प्रकार आज्ञा-राजा, वासुदेव या चक्रवर्ती की आज्ञा अपने अपने राज्य की मर्यादा में स्वार्थ या भय सें लोंगों द्वारा मानी जाती है परन्तु अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा का पालन को समग्र विश्व में सहजरूप से होता है। ऐश्वर्य – परमात्मा के पास स्वाभाविक अनन्त गुण-पर्यायमय सम्पत्ति है। निर्भयता – परमात्मा सदा सर्वदा सर्व भयों से रहित हैं। निष्कामता – परमातामा कामना (इच्छा) बिना ही सर्व ज्ञानादि सम्पत्ति के भोक्ता हैं। स्वाधीनता – परमात्मा का स्वभाव स्वाधीन है, वे कर्म की पराधीनता से मुक्त हैं। अविनाशिता – परमात्मा की सर्वसम्पदा नित्य-अविनश्वर है। (अन्य चक्रवर्ती आदि परिमित ऐश्वर्यवाले, भययुक्त, सकामी, पराधीन और विनाशी हैं।)
आणा ईश्वरता निर्भयता, निर्वांछकता रूपजी;
भाव स्वाधीन ते अव्यय रीते, ईम अनंत गुण भूपजी ।।7।।
अर्थ 8 : प्रभु का निर्मल अव्याबाध सुख इन्द्रियादि से होनेवाले परोक्ष ज्ञान द्वारा कदापि नहीं जाना जा सकता। परन्तु जिसने प्रभु के जैसे ही गुण प्रकट किये हैं वे ही आत्मा के अव्याबाध सुख को जानते हैं और भोगते हैं।
अव्याबाध सुख निर्मल ते तो, करण ज्ञाने न जणायजी;
तेह ज एहनो जाणग भोक्ता, जे तुम सम गुणरायजी ।।8।।
अर्थ 9 : इस प्रकार परमात्मा के दान, लाभ, योग, उपभोग और वीर्यादि अनन्त महान् गुण प्रकट हो चुके है, उनका वर्णन वाणी द्वारा नहीं हो सकता। मेरे जैसे मूढ को उन अनन्त गुणों की प्राप्ति होना तो दूर परन्तु उनकी निर्मल श्रद्धा और ज्ञान होना भी कठिन है-दुर्लभ है।
एम अनंत दानादिक निज गुण, वचनातीत पंडूरजी;
वासन भासन भावे दुर्लभ, प्राप्ति तो अति दूरजी ।।9।।
अर्थ 10 : इस प्रकार परमात्मा की अनन्त प्रभुता की श्रद्धा करके आदर-बहुमानपूर्वक जो इन परमात्मा की द्रव्य और भाव से पूजा करता है वह अवश्य देवों में चन्द्र समान उज्जवल और परमानन्दमय प्रभुता को प्राप्त करता है।
सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन गुरु, जाणुं तुज गुणग्रामजी;
बीजुं कांई न मागुं स्वामी, एहि करो मुज कामजी ।।10।।
ईम अनंत प्रभुता, सद्हतां, अरचे जे प्रभु रूपजी;
देवचंद्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी ।।11।।
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