|| Vimalnath Vimal jin vimalta tahri LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री विमल जिन स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री विमल जिन स्तवन Devchandraji jain stavan |
Vimalnath Vimal jin vimalta tahri lyrics श्री विमल जिन स्तवन Devchandraji jain stavan |
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|| विमल जिन विमलता ताहरीजी ||
विमल जिन विमलता ताहरीजी, अवर बीजे न कहाय;
लघु नदी जिम तिम लंघीएजी, स्वयंभू रमण न तराय ।।1।।
सयल पुढवी गिरि जल तरुजी, कोई तोले एक हत्थ;
तेह पण तुज गुणगण भणीजी, भाखवा नहि समरथ ।।2।।
सर्व पुद्गल नभ धर्मना जी, तेम अधर्म प्रदेश;
तास गुण धर्म पज्जव सहुजी, तुज गुण एक तणो लेश ।।3।।
एम निज भाव अनंतनीजी, अस्तिता केटली थाय;
नास्तिता स्व पर पद अस्तिताजी, तुज सम काल समाय ।।4।।
ताहरा शुद्ध स्वभावनेजी, आदरे धरी बहुमान;
तेहने तेहिज नीपजेजी, ए कोई अद्भुत तान ।।5।।
तुम प्रभु तुम तारक विभूजी, तुम समो अवर न कोय;
तुम दरिसण थकी हुं तर्योजी, शुद्ध आलंबन होय ।।6।।
प्रभु तणी विमलता ओलखीजी, जे करे थिर मन सेव;
देवचंद्र पद ते लहेजी, विमल आनंद स्वयमेव ।।7।।
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अर्थ 1 : हे विमलनाथ भगवान् आपकी विमलता अन्य छद्मस्थ जीव से नहीं कही जा सकती। छोटी नदी को तो जैसे-तैसे पार किया जा सकता है परन्तु स्वयंभूरमण (असंख्य कोडाकोडी योजन विस्तारवाले) समुद्र को कैसे पार किया जा सकता है? इसी प्रकार हे प्रभो ! आपके अनन्त गुणों का पार कैसे पाया जा सकता है?
विमल जिन विमलता ताहरीजी, अवर बीजे न कहाय;
लघु नदी जिम तिम लंघीएजी, स्वयंभू रमण न तराय ।।1।।
अर्थ 2 : जगत् के सर्व पृथ्वी, पर्वत, पानी और वनस्पति आदि को कदाचित् कोई समर्थ व्यक्ति एक हाथ से उठाने में समर्थ हो जाय तो भी प्रभु के अनन्त गुणों को गिनने में या कहने में कोई समर्थ नहीं हो सकता। प्रभु के पूर्ण शुद्ध स्वरूप को क्षायिक वीर्यवाले केवलज्ञानी जान सकते हैं, लेकिन वे भी वचन द्वारा सर्व गुणों को नहीं कह सकते। क्योंकि वचन का प्रवर्तन क्रम से होता है और समय-आयुष्य परिमित होता है।
सयल पुढवी गिरि जल तरुजी, कोई तोले एक हत्थ;
तेह पण तुज गुणगण भणीजी, भाखवा नहि समरथ ।।2।।
अर्थ 3 : धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय और सर्व पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश और उनमें रहे हुए अनन्त गुण, धर्म एवं पर्याय भी प्रभु के एक केवलज्ञान गुण के अंशमात्र हैं। क्योंकि उपर्युक्त सर्वभावों का त्रिकालिक ज्ञान एक समय-मात्र में करनेवाले केवलज्ञान की शक्ति अनन्तगुणी अधिक है।
सर्व पुद्गल नभ धर्मना जी, तेम अधर्म प्रदेश;
तास गुण धर्म पज्जव सहुजी, तुज गुण एक तणो लेश ।।3।।
अर्थ 4 : इस प्रकार प्रभु के निज भाव की अर्थात् केवलज्ञान, क्षायिक-सम्यक्त्व, चारित्र और वीर्यादि अनन्त गुणों की स्व-पर पर्याय की अपेक्षा से अस्तिता-नास्तिता आदि की जो अनन्तता समकाल में वर्त रही है वह कितनी है? इसका वर्णन किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता।
एम निज भाव अनंतनीजी, अस्तिता केटली थाय;
नास्तिता स्व पर पद अस्तिताजी, तुज सम काल समाय ।।4।।
अर्थ 5 : हे प्रभो ! आपके अनन्त आनन्दमय निर्मल शुद्ध स्वबाव का स्वरूप समझकर जो साधक उसका स्मरण, वन्दन, पूजन और ध्यान आदर-बहुमानपूर्वक करता है, वह उसी प्रकार के पूर्ण शुद्ध स्वभाव को प्रकट कर सकता है। यह कोई अलौकिक आश्चर्यकारी तत्त्व है।
ताहरा शुद्ध स्वभावनेजी, आदरे धरी बहुमान;
तेहने तेहिज नीपजेजी, ए कोई अद्भुत तान ।।5।।
अर्थ 6 : हे प्रभो ! आप ही मेरे स्वामी हो, इस संसार से पार उतारनेवाले भी आप ही हो। आपके समान कोई कृपालु नहीं। आपके दर्शन (सम्यग्दर्शन, मूर्तिदर्शन या जिनशासन) से मैं संसार-सागर तिर गया हूं, क्योंकि आपके शुद्ध स्वरूप का मुझे आलम्बन मिला है और उससे मेरे आत्मस्वरूप की पहचान हो गई है और उसके ध्यान से अनुभव-प्रकाश पैदा हुआ है।
तुम प्रभु तुम तारक विभूजी, तुम समो अवर न कोय;
तुम दरिसण थकी हुं तर्योजी, शुद्ध आलंबन होय ।।6।।
अर्थ 7 : इस प्रकारे जो कोई मुमुक्षु परमात्मा की विमलता को पहचानकर स्थिर मन से प्रभु की सेवाभक्ति करता है वह (सम्यग्दर्शन, देशविरति, सर्वविरति पाकर) क्रमशः सर्व कर्म-उपाधि का क्षय करके चन्द्र समान उज्जवल पद को अर्थात् निर्मल आनन्द को स्वयमेव प्राप्त करना है।
प्रभु तणी विमलता ओलखीजी, जे करे थिर मन सेव;
देवचंद्र पद ते लहेजी, विमल आनंद स्वयमेव ।।7।।
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