|| Shri Padmaprabha jin gun nidhi re lal Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री पद्मप्रभजिन गुणनिधि रे लाल स्तवन सांग
जैन स्तवन
Shri Padmaprabha jin gun nidhi re lal lyrics devchandra chouvishi |
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|| श्री पद्मप्रभ जिन गुणनिधि स्तवन ताहरी ||
श्री पद्मप्रभजिन गुणनिधि रे लाल, जगतारक जगदीश रे; वालेसर
जिन उपगार थकी लहे रे लाल, भवि जन सिद्धि जगीश रे ।।वा.1।।
तुज दरिसण मुज वालहो रे लाल; दरिसण शुद्ध पवित्त रे;
दरिसण शब्द नये करे रे लाल, संग्रह एवंभूत रे ।।वा.2।।
बीजे वृक्ष अनंतता रे लाल, पसरे भूजल योग रे;
तिम मुज आतम संपदा रे लाल, प्रगटे प्रभु संयोग रे ।।वा.3।।
जगत जंतु कारज रुचि रे लाल, साधे उदये भाण रे;
चिदानंद सुविलासता रे लाल, वाधे जिनवर झाण रे ।।वा.4।।
लब्धि सिद्ध मंत्राक्षरे रे लाल, ऊपजे साधक संग रे;
सहज अध्यात्म तत्त्वता रे लाल, प्रगटे तत्त्वी रंग रे ।।वा.5।।
लोह धातु कंचन हुवे रे लाल, पारस फरसन पामी रे;
प्रगटे अध्यातम दशा रे लाल, व्यक्त गुणी गुणग्राम रे ।।वा.6।।
आत्मसिद्धि कारज भणी रे लाल, सहज नियामक हेतु रे;
नामादिक जिनराजना रे लाल, भवसागर महा सेतु रे ।।वा.7।।
स्थंभन इंद्रिय योगनो रे लाल, रक्त वर्ण गुणराय रे;
देवचंद्र वृंदे स्तव्यो रे लाल, आप अवर्ण अकाय रे ।।वा.8।।
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अर्थ 1: श्री पद्मप्रभ भगवान् गुण के भण्डार हैं, भव्य जीवों को भवसागर से तारने वाले हैं, जगत के ईश-स्वामी हैं। उन प्रभु की कृपा से भव्य जीव सिद्धि-सुख की सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं। हे प्रभो ! आपका निर्मल दर्शन मुझें अत्यन्त वल्लभ-प्रिय लगता है। सचमुच ! आपका दर्शन (मूर्ति-दर्शन या जिनेश्वर का शासन अथवा सम्यग्दर्शन-सम्यकत्व) परम शुद्ध है, पवित्र है, क्योंकि उसके द्वारा आत्मा कर्म-मल से रहित बनता है। नय की अपेक्षा से इसी बात को स्पष्ट करते हैं कि जो भव्यात्मा परमात्मा का दर्शन शब्द-नय से करता हैं उसकी संग्रह-नय की अपेक्षा से शुद्ध सत्ता एवंभूत-नय से पूर्ण शुद्धता को प्राप्त करती है अर्थात् संग्रह-नय एवंभूत-नय में परिणत ही जाता है। दूसरे शब्दों में आत्मा शुद्धात्मा या परमात्मा बन जाती है।
श्री पद्मप्रभजिन गुणनिधि रे लाल, जगतारक जगदीश रे; वालेसर
जिन उपगार थकी लहे रे लाल, भवि जन सिद्धि जगीश रे ।।वा.1।।
अर्थ 2 : बीज में अनन्त वृक्षों को उत्पन्न करने की शक्ति रही हुई है तथापि उसे भूमि (मिट्टी), जल आदि का संयोग मिलता है तो ही वृक्ष उग सकता है। उसी तरह मेरी आत्मा में सत्ता की अपेक्षा से अनन्त ज्ञानादि सम्पत्ति रही हुई है परन्तु उसका प्रकटीकरण श्री अरिहन्त परमात्मा के दर्शन के संयोग से ही होता है !
तुज दरिसण मुज वालहो रे लाल; दरिसण शुद्ध पवित्त रे;
दरिसण शब्द नये करे रे लाल, संग्रह एवंभूत रे ।।वा.2।।
अर्थ 3 : जैसे जगत के सर्व जीव स्वकार्य करने की रूचिवाले होते हैं, परन्तु सूर्योदय का निमित्त मिलने से वे कार्य सिद्ध होते हैं, इसी तरह श्री जिनेश्वर भगवान के ध्यान से ही चिदानन्द-ज्ञानानन्द का विलास वृद्धि को प्राप्त होता है।
बीजे वृक्ष अनंतता रे लाल, पसरे भूजल योग रे;
तिम मुज आतम संपदा रे लाल, प्रगटे प्रभु संयोग रे ।।वा.3।।
अर्थ 4 : जैसे अमुक मंत्राक्षर में अमुक विद्यासिद्धि की शक्ति रही हुई होती है, परन्तु उत्तम उत्तरसाधक के योग से ही वह विद्या सिद्ध होती है। उसी तरह सहज अनन्त ज्ञानादि-शक्तियाँ आत्मा में रही हुई हैं, परंतु वे उत्तमोत्तम उत्तर साधक तत्त्वरंगी परमात्मा के निर्मल ध्यानादि के योग से ही प्रकट होती हैं।
जगत जंतु कारज रुचि रे लाल, साधे उदये भाण रे;
चिदानंद सुविलासता रे लाल, वाधे जिनवर झाण रे ।।वा.4।।
अर्थ 5 : जैसे पारस के स्पर्शमात्र से लोहा स्वर्णमय बन जाता है वैसे ही पूर्णगुणी श्री अरिहन्त परमात्मा के गुणग्राम से-गुणस्मरण ध्यान आदि करने से शुद्धि आत्मिक दशा पूर्णरूप से प्रकट होती है।
लब्धि सिद्ध मंत्राक्षरे रे लाल, ऊपजे साधक संग रे;
सहज अध्यात्म तत्त्वता रे लाल, प्रगटे तत्त्वी रंग रे ।।वा.5।।
अर्थ 6 : श्री अरिहन्त परमात्मा आत्मा की मुक्तिरूप कार्य के लिए सहज नियामक-निश्चित कार्य सिद्ध करने वाले हेतु हैं। श्री अरिहन्त परमात्मा के नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, ये चारों निक्षेप संसारसागर मे सेतु (पुल) के समान हैं अर्थात् भवसागर से पार उतरने के लिए प्रभु के नामादि आलम्बन हैं, आधार हैं।
लोह धातु कंचन हुवे रे लाल, पारस फरसन पामी रे;
प्रगटे अध्यातम दशा रे लाल, व्यक्त गुणी गुणग्राम रे ।।वा.6।।
अर्थ 7 : अनन्त गुण के स्वामी भी पद्मप्रभ भगवान् के शरीर को रक्तवर्ण की लाल कान्ति भी साधक की इन्द्रियों और मन, वचन, काया के योगों के लिए स्तंभन मन्त्र है अर्थात् प्रभु के शरीर के रक्तवर्ण के दर्शन से भव्यात्मा की इन्द्रियाँ और मन-वचन-काया स्थिर बनते हैं। देवेन्द्रों के समूह से संस्तुत प्रभु वास्तव में तो वर्णरहित और शरीर से भी रहित हैं। सिद्ध अवस्था में वणादि या शरीरादि नहीं होते।
आत्मसिद्धि कारज भणी रे लाल, सहज नियामक हेतु रे;
नामादिक जिनराजना रे लाल, भवसागर महा सेतु रे ।।वा.7।।
स्थंभन इंद्रिय योगनो रे लाल, रक्त वर्ण गुणराय रे;
देवचंद्र वृंदे स्तव्यो रे लाल, आप अवर्ण अकाय रे ।।वा.8।।
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मातुश्री पवनिदेवी अमीचंदजी खाटेड़ संघवी || राजस्थान : करडा
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