|| Sri Suvidhinath Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री दीठो सुविधि जिणंद स्तवन सांग
जैन स्तवन
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|| दीठो सुविधि जिणंद, समाधि रसे भर्यो हो लाल||
दीठो सुविधि जिणंद, समाधि रसे भर्यो हो लाल, समा.
भास्यो आत्म स्वरूप, अनादिनो विसर्यो हो लाल; अ.
सकल विभाव उपाधि, थकी मन ओसर्यो हो लाल, थ.
सत्तासाधन मार्ग भणी, ए संचर्यो हो लाल ।।भ.1।।
तुम प्रभु जाणग रीति, सर्व जग देखतां, हो लाल, स.
निज सत्ताए शुद्ध, सहुने लेखता, हो लाल; स.
पर परिणति अद्वेष, पणे उवेखता, हो लाल, उ.
भोग्यपणे निज शक्ति, अनंत गवेषता, हो लाल ।।अ.2।।
दानादिक निज भाव, हता जे परवशा हो लाल, ह.
ते निज सन्मुख भाव, ग्रही लही तुज दशा हो लाल; ग्र.
प्रभुनो अद्भुत योग, स्वरूप तणी रसा हो लाल, स्व
भासे वासे तास, जास गुण तुज जिसा हो लाल ।।जा.3।।
मोहादिकनी घूमी, अनादिनी ऊतरे हो लाल, अ.
अमल अखंड अलिप्त, स्वभाव ज सांभरे हो लाल, स्व.
तत्त्व रमण शुचि ध्यान, भणी जे आदरे हो लाल, भ.
ते समतारस धाम, स्वामी मुद्रा वरे हो लाल ।।स्वा.4।।
प्रभु छो त्रिभुवन नाथ, दास हुं ताहरो हो लाल, दा.
करुणानिधि अभिलाष, अछे मुज ए खरो हो लाल; अ.
आतम वस्तु स्वभाव, सदा मुज सांभरो हो लाल, स.
भासन वासन एह, चरण ध्याने धरो हो लाल ।।च.5।।
प्रभु मुद्राने, प्रभु प्रभुता लखे हो लाल, प्र.
द्रव्य तणे साधर्म्य, स्वसंपत्ति ओळखे हो लाल; स्व.
ओलखतां बहुमान, सहित रुचि पण वधे हो लाल, स.
रुचि अनुयायी वीर्य, चरण धारा सधे हो लाल ।।च.6।।
क्षायोप शमिक गुण सर्व, थया तुज गुण रसी हो लाल, थ.
सत्ता साधन शक्ति, व्यक्तता उल्लसी हो लाल; व्य.
हवे संपूरण सिद्धि तणी शी वार छे हो लाल, त.
देवचंद्र जिनराज, जगत आधार छे हो लाल ।।ज.7।।
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अर्थ 1 : साधक आत्मा महान् पुण्योदय से प्राप्त हुए वीतराग प्रभु के दर्शन से अत्यन्त हर्षित बनकर उनकी प्रभुता की स्तुति करते हुए कहता है, ”समाधि-समतारस के भंडार श्री सुविधिनाथ प्रभु की प्रशान्त मुद्रा के दर्शन से अनादिकाल से भूले हुए मेरे आत्मस्वरूप की मुझे पहेचान हुई। सर्व प्रकार के राग-द्वेषादि विभाव तथा बाह्य (धन-धन्यादि) उपाधि से मन निवृत्त हुआ और आत्म सत्ता की साधना के मार्गुरूप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र मं प्रवृत्त हुआ।” सचमुच ! परमात्मा की प्रशांत मुखमुद्रा के दर्शन से परमात्मा के यथार्थ स्वरूप की पहचान होती है और उसके द्वारा आत्मस्वरूप की भी पहचान होती है।
दीठो सुविधि जिणंद, समाधि रसे भर्यो हो लाल, समा.
भास्यो आत्म स्वरूप, अनादिनो विसर्यो हो लाल; अ.
सकल विभाव उपाधि, थकी मन ओसर्यो हो लाल, थ.
सत्तासाधन मार्ग भणी, ए संचर्यो हो लाल ।।भ.1।।
अर्थ 2 : हे प्रभु ! आप ज्ञातृत्व-शक्ति से सर्व जगत् के यथार्थ स्वरूप को जानते हैं परन्तु वीतराग होने से राग-द्वेष नहीं करते । सब जीवादि द्रव्य-पदार्थ स्वयं की सत्ता की अपेक्षासे शुद्ध-निःसंग हैं। (क्योंकि किसी भी जीव या पुद्गल का मूल स्वरूप परस्पर मिलकर अशुद्ध नहीं होता।) इस प्रकार आप सत्ता-धर्म से सब को शुद्ध-रूप में देखते हैं अतः संसारी जीव में रही हुई पर-परिणति (राग-द्वेषादि भाव-अशुद्धि) की अद्वेषभाव से उपेक्षा करते हैं। साथ ही आप आत्मा की अनन्त गुणपर्यायरूप शक्ति को भोग्य जानकर उसका ही भोग करते हैं।
तुम प्रभु जाणग रीति, सर्व जग देखतां, हो लाल, स.
निज सत्ताए शुद्ध, सहुने लेखता, हो लाल; स.
पर परिणति अद्वेष, पणे उवेखता, हो लाल, उ.
भोग्यपणे निज शक्ति, अनंत गवेषता, हो लाल ।।अ.2।।
अर्थ 3 : दानादिक क्षापोपशमिक धर्म (गुण) पराधीन होकर अनादि से पुद्गल-अनुयायी बनकर प्रवृत्ति करते थे, वे आपकी प्रभुता-वीतरागदशा का आलम्बन पाकर आत्मसन्मुख होते हैं अर्थात निमित्तालंबी बने हुए दानादिगुण स्वरूपावलंबी बनते हैं। सचुमुच ! अरिहन्त परमात्मा के योग की अर्थात् संपूर्ण रत्नत्रयी के स्वरूप की रसा-भूमिका अद्भुत है। उसकी यथार्थ पहचान और प्रतीति उसे ही हो सकती है जिसमें प्रभु के समान गुण प्रकट हुए हैं अर्थात् सर्वज्ञ आत्मा ही प्रभु के सर्व गुणों को जान सकती है और सर्वज्ञता प्राप्ति का क्रम बता सकती है।
दानादिक निज भाव, हता जे परवशा हो लाल, ह.
ते निज सन्मुख भाव, ग्रही लही तुज दशा हो लाल; ग्र.
प्रभुनो अद्भुत योग, स्वरूप तणी रसा हो लाल, स्व
भासे वासे तास, जास गुण तुज जिसा हो लाल ।।जा.3।।
अर्थ 4 : हे प्रभो ! अनादिकाल से लगी हुई मोहादि की मूर्च्छा उतरती है अर्थात् अतत्त्व में तत्त्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व दूर होता है तब निर्मल, अखण्ड और कर्म से अलिप्त आत्मस्वभाव की पहचान होती है। श्री अरिहन्त प्रभु के पवित्र-प्रशस्त ध्यान से जो साधक आत्मतत्त्व में रमणता करके प्रभु के साथ एकत्व का अनुभव करता है और शुक्लध्यानाग्नि से सकल घाती कर्मो का क्षय करता है वही समतारस के भण्डार, तीन लोक के स्वामी अरिहन्त परमात्मा जैसी शान्त मुद्रा के प्राप्त कर सकता है।
मोहादिकनी घूमी, अनादिनी ऊतरे हो लाल, अ.
अमल अखंड अलिप्त, स्वभाव ज सांभरे हो लाल, स्व.
तत्त्व रमण शुचि ध्यान, भणी जे आदरे हो लाल, भ.
ते समतारस धाम, स्वामी मुद्रा वरे हो लाल ।।स्वा.4।।
अर्थ 5 : हे प्रभो ! आप तो तीन लोक के स्वामी (अप्राप्त गुण की प्राप्त करानेवाले और प्राप्त गुण के रक्षण-कर्त्ता) हैं और मैं तो आपका अदना-सा दास हूँ। हे करुणा सागर प्रभो ! मेरा यह सच्चा मनोरथ है कि, मेरे आत्मस्वभाव का-जो वस्तुतः शुद्ध ज्ञानादि गुणमय है, मुझे सदा स्मरण बना रहे। हे प्रभो ! प्रतीति, श्रद्धा, भासन, ज्ञान और तन्मयतापूर्वक की रमणता भी मुझे मेरे स्वभाव की ही हो। साधकभाव में साधकरूप से और सिद्धावस्था में सिद्धरूप में स्वभाव-रमणता हो। यही मेरी एकमात्र अभिलाषा हैं।
प्रभु छो त्रिभुवन नाथ, दास हुं ताहरो हो लाल, दा.
करुणानिधि अभिलाष, अछे मुज ए खरो हो लाल; अ.
आतम वस्तु स्वभाव, सदा मुज सांभरो हो लाल, स.
भासन वासन एह, चरण ध्याने धरो हो लाल ।।च.5।।
अर्थ 6 : श्री अरिहन्त परमात्मा की प्रशान्त मुद्रा के दर्शन से आत्मा प्रभु की पूर्ण शुद्ध गुण-पर्यायमयी प्रभुता को पहचान लेता है। साथ ही जीव-द्रव्य के साधर्म्य से उसे स्व-सम्पत्ति (आत्मगुणों) की प्रतीति होती है। (अर्थात् परमात्मा और मेरी आत्मा का जीवत्व समान होने से जितने ज्ञानादि गुण उनमें प्रकटित हैं उतने ही गुण मेरी आत्मसत्ता में रहे हुए हैं, ऐसी श्रद्धा होती है।) ऐसी प्रभुता की पहचान होते ही बहुमानपूर्वक वैसी प्रभुता को प्रकट करने की रूचि उत्पन्न होती है। रूचि के अनुसार वीर्यशक्ति की स्फुरणा होती है और वीर्यशक्ति की प्रबलता के अनुसार चारित्र-आत्मरमणता की धारा चलती है। आत्मस्वभाव की रूचि उत्पन्न होने पर सर्व चारित्र-वीर्यादि गुण स्वभाव में ही लीन बनते हैं।
प्रभु मुद्राने, प्रभु प्रभुता लखे हो लाल, प्र.
द्रव्य तणे साधर्म्य, स्वसंपत्ति ओळखे हो लाल; स्व.
ओलखतां बहुमान, सहित रुचि पण वधे हो लाल, स.
रुचि अनुयायी वीर्य, चरण धारा सधे हो लाल ।।च.6।।
अर्थ 7 : हे प्रभो ! रूचि, ज्ञान, रमणता वीर्यादि सर्व क्षायोपशमिक गुण जब आपके क्षायिकभाव से प्रकटिन केवलज्ञानादि गुणों के स्मरण, चिन्तन, मनन एवं ध्यान द्वारा उसके रसिक बनते हैं, तब आत्मसत्ता प्रकट करनेवाली आत्शक्ति जो जब तक आच्छादित बनी हुई थी वह व्यक्तरूप में उल्लसित होती है। (अर्थात् हे प्रभो ! आपके आलम्बन से उपादान प्रकट होता है।) अब सम्पूर्ण सिद्धि प्राप्त करने में क्या देर लगने वाली है? अर्थात् पुष्ट निमित्त के आलम्बन से स्वरूपलम्बी बना हुआ साधक अल्पकाल में ही अवश्य सिद्ध-सुख को प्राप्त करता हैं। देवों में चन्द्र के समान उज्जवल जिनेश्वर प्रभु ही सर्व जीवों के आधार हैं, प्राण हैं और शरण हैं।
क्षायोप शमिक गुण सर्व, थया तुज गुण रसी हो लाल, थ.
सत्ता साधन शक्ति, व्यक्तता उल्लसी हो लाल; व्य.
हवे संपूरण सिद्धि तणी शी वार छे हो लाल, त.
देवचंद्र जिनराज, जगत आधार छे हो लाल ।।ज.7।।
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