|| SAMVARA BHAVNA : संवर भावना ||
SAMVARA BHAVANA JAIN DHARM RELIGION
|| संवर भावना -Stoppage of Influx of karma||
Stoppage of influx of karma
Explanation of SAMVAR BHAVANA in English and Hindi
संवर भावना में आस्रव द्वारों को बंद करने के सम्यक्त्व तथा व्रतादि साधनों – उपायों पर चिंतन – मनन किया जाता है| ऐसे चिंतवन से मनुष्य में धर्मपूर्वक तप, समिति; गुप्ति तथा परीषह जप से सम्यक्त्व सद् आचारण की ओर प्रवृत्ति बढ़ती है, जिससे कर्मों का द्वार बन्द होता है| अर्थात् कर्मों का संवर होने लगता है| उदाहरण – श्री हरकेशी मुनि|
SAMVAR BHAVNA : संवर भावना |
सतगुरु देय जगाय ,मोह नींद जब उपशमें,
तब कछु बनहिं उपाय ,कर्मचार आवत रुकें !
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जिन्होंने पुण्य और पाप नहीं किया,शुभ और अशुभ कर्मों के फल में रति और अरति नहीं कि।।शुभ और अशुभ भाव नहीं किये…।और आत्मा के अनुभव में मन को लगाया।।आत्मा स्वाभाव में लीन हुए।।या लीन होने।।वह आते हुए कर्मों को आत्मा के प्रदेशों में मिल जाने से रोक लेंगे।।कर्मों के आश्रव द्वार को बंद करेंगे,बंध को रोक लेंगे…और संवर को प्राप्त करके आकुलता रहित सुख का साक्षात्कार करेंगे।।ऐसी भावना भाना संवर भावना है।
जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम-अनुभव चित दीना ।
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।।१०।।
अन्वयार्थ : – (जिन) जिन्होंने (पुण्य) शुभभाव और(पाप) अशुभभाव (नहिं कीना) नहीं किये तथा मात्र (आतम)
आत्माके (अनुभव) अनुभवमें [शुद्ध उपयोगमें ] (चित) ज्ञानको (दीना) लगाया है (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि) कर्मोंको (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके (सुख) सुखका (अवलोके) साक्षात्कार किया है ।
भावार्थ : – आस्रवका रोकना सो संवर है । सम्यग्दर्शनादिद्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते हैं । शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग दोनों बन्धके कारण हैं–ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहलेसे ही जानता है । यद्यपि साधकको निचली भूमिकामें शुद्धताके साथ अल्प शुभाशुभभाव होते हैं; किन्तु वह दोनोंको बन्धका कारण मानता है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके आलम्बन द्वारा जितने अंशमें शुद्धता करता है, उतने अंशमें उसे संवर होता है और वह क्रमशः शुद्धतामें वृद्धि करते हुए पूर्ण शुद्धता अर्थात् संवर प्राप्त करता है । यह ‘‘संवर भावना’’ है ।।१०।।
आत्माके (अनुभव) अनुभवमें [शुद्ध उपयोगमें ] (चित) ज्ञानको (दीना) लगाया है (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि) कर्मोंको (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके (सुख) सुखका (अवलोके) साक्षात्कार किया है ।
भावार्थ : – आस्रवका रोकना सो संवर है । सम्यग्दर्शनादिद्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते हैं । शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग दोनों बन्धके कारण हैं–ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहलेसे ही जानता है । यद्यपि साधकको निचली भूमिकामें शुद्धताके साथ अल्प शुभाशुभभाव होते हैं; किन्तु वह दोनोंको बन्धका कारण मानता है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके आलम्बन द्वारा जितने अंशमें शुद्धता करता है, उतने अंशमें उसे संवर होता है और वह क्रमशः शुद्धतामें वृद्धि करते हुए पूर्ण शुद्धता अर्थात् संवर प्राप्त करता है । यह ‘‘संवर भावना’’ है ।।१०।।
Pravachan on SAMVAR Bhavna
संवर भावना SAMVAR BHAVNA
ज्यों मोरी में डाटलगावै, तब जल रुक जाता।
त्यों आस्रव को रोकै संवर, क्यों नहिं मन लाता॥
पंचमहाव्रत समिति गुप्तिकर वचन काय मन को।
दशविध-धर्म परीषह-बाईस, बारह भावन को||(18)
यह सब भाव सत्तावन मिलकर, आस्रव को खोते।
सुपन दशा से जागो चेतन, कहाँपड़े सोते॥
भाव शुभाशुभ रहित शुद्ध- भावन- संवर भावै।
डाँट लगत यह नाव पड़ी मझधार पार जावै||(19)
देहदेवल में रहे पर देह से जो भिन्न है।
है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी अन्य है।।
गुणभेद से भी भिन्न है पर्याय से भी पार है।
जो साधकों की साधना का एक ही आधार है।।1।।
यह भगवान आत्मा यद्यपि देहरूपी मंदिर में रहता है, पर देह से भिनन ही है। इसीप्रकार रागादि विकारीभाव इसमें ही उत्पन्न होते हैं, पर यह उनसे भी भिन्न है। अधिक क्या कहें? अनन्त गुणवाला होने पर भी आत्मा गुणभेद से भिन्न एवं निर्मल पर्यायों से भी पार है। साधकों की साधना का एकमात्र आधार भी यही शुद्धत्मा है।
मैं हूँ वही शुद्धात्मा चैतन्य का मार्तण्ड हूँ।
आनन्द का रसकन्द हूँ मैं ज्ञान का घनपिण्ड हूँ।।
मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।2।।
ऐसा शुद्धात्मा और कोइ नहीं, मैं ही हूँ। चैतन्यरूपी सूर्य, आनन्द का कन्द और ज्ञान का घनपिण्ड आत्मा मैं ही हूँ। मैं ही ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय, परमज्ञान का ज्ञेय हूँ। मात्र ज्ञेय ही नहीं, ज्ञान भी मैं ही हूँ। बस, मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ। अधिक क्या हूँ? मैं स्वयं भगवान हूँ।
यह जानना पहिचानना ही ज्ञान है श्रद्धान है।
केवल स्वयं की साधना आराधना ही ध्यान है।।
यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना।
बस यही संवरतत्व है, बस यही संवरभावना।।3।।
यह जानना ही सम्यग्ज्ञान है, यह पहिचानना ही सम्यग्दर्शन है और मात्र अपनी साधना अपनी आराधना ही सम्यक्चरित्र है, ध्यान है।
यह ज्ञान-श्रद्धान एवं यही साधना-आराधना ही संवरतत्व है और यही संवरभावना भी है।
इस सत्य को पहिचानते वे ही विवेकी धन्य हैं।
ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है।।
शुद्धातमा को जानना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।4।।
जो जीव इस सत्य को जानते हैं, पहिचानते है; वे ही विवेकी है, वे ही धन्य है क्योंकि धु्रवधाम निज भगवान के आराधकों की बात ही कुछ और होती है, गजब की होती है, संवरभावना का सार शुद्धात्मा को जानना ही है और धु्रवधाम निज भगवान की आराधना ही आराधना का सार है।
संवरभावना: एक अनुशीलन
मैं ध्यये हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।
यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना।
बस यही संवरतत्व है बस यही संवरभावना।।
’’निज स्वरूप में लीनता, निश्चयसंवर जानि।
समिति गुप्ति संजम धरम, धरैं पाप की हानि।।1
निश्चयसंवरभावना तो निजस्वरूप में लीनता ही हैं व्यवहार से पापानिरोधक गुप्ति, समिति, धर्म, संयमादि को भी संवरभावना कहते हैं।
ज्ञान-विराग विचार के, गोपै मन-वच-काय।
थिर ह्वै अपने आप में, सो संवर सुखदाय।।2
ज्ञान और वैरागयपरक चिन्तनपूर्वक अपने उपयोग को मन-वचन-काय से हटकार जो अपने आप में स्थिर होते हैं, उनके संवर या संवरभावना होती है।
गुप्ति समिति वर धर्म धर, अनुप्रेक्षा चित चेत।
परिषहजय चारित्र लहि, यह छह संवर हेत।।
है संवर सुखमय महा, जहँ ’जग’ अध नहिं लेश।
गुप्ति समिति धर्मादि तैं, करें न करम प्रवेश।।3
|| SAMVAR BHAVANA||
है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी अन्य है।।
गुणभेद से भी भिन्न है पर्याय से भी पार है।
जो साधकों की साधना का एक ही आधार है।।1।।
यह भगवान आत्मा यद्यपि देहरूपी मंदिर में रहता है, पर देह से भिनन ही है। इसीप्रकार रागादि विकारीभाव इसमें ही उत्पन्न होते हैं, पर यह उनसे भी भिन्न है। अधिक क्या कहें? अनन्त गुणवाला होने पर भी आत्मा गुणभेद से भिन्न एवं निर्मल पर्यायों से भी पार है। साधकों की साधना का एकमात्र आधार भी यही शुद्धत्मा है।
मैं हूँ वही शुद्धात्मा चैतन्य का मार्तण्ड हूँ।
आनन्द का रसकन्द हूँ मैं ज्ञान का घनपिण्ड हूँ।।
मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।2।।
ऐसा शुद्धात्मा और कोइ नहीं, मैं ही हूँ। चैतन्यरूपी सूर्य, आनन्द का कन्द और ज्ञान का घनपिण्ड आत्मा मैं ही हूँ। मैं ही ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय, परमज्ञान का ज्ञेय हूँ। मात्र ज्ञेय ही नहीं, ज्ञान भी मैं ही हूँ। बस, मैं तो एक ज्ञायकभाव ही हूँ। अधिक क्या हूँ? मैं स्वयं भगवान हूँ।
यह जानना पहिचानना ही ज्ञान है श्रद्धान है।
केवल स्वयं की साधना आराधना ही ध्यान है।।
यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना।
बस यही संवरतत्व है, बस यही संवरभावना।।3।।
यह जानना ही सम्यग्ज्ञान है, यह पहिचानना ही सम्यग्दर्शन है और मात्र अपनी साधना अपनी आराधना ही सम्यक्चरित्र है, ध्यान है।
यह ज्ञान-श्रद्धान एवं यही साधना-आराधना ही संवरतत्व है और यही संवरभावना भी है।
इस सत्य को पहिचानते वे ही विवेकी धन्य हैं।
ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है।।
शुद्धातमा को जानना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।4।।
जो जीव इस सत्य को जानते हैं, पहिचानते है; वे ही विवेकी है, वे ही धन्य है क्योंकि धु्रवधाम निज भगवान के आराधकों की बात ही कुछ और होती है, गजब की होती है, संवरभावना का सार शुद्धात्मा को जानना ही है और धु्रवधाम निज भगवान की आराधना ही आराधना का सार है।
संवरभावना: एक अनुशीलन
मैं ध्यये हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ।
बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।।
यह ज्ञान यह श्रद्धान बस यह साधना आराधना।
बस यही संवरतत्व है बस यही संवरभावना।।
’’आस्त्रव का निरोध संवर है। वह संवर तीन गुप्ति, पांच समिति, दश धर्म, बाहर भावना, बाईस परीषहजय और पांच प्रकार के चारित्र से होता है।1’’
महाशास्त्र तत्वार्थसूत्र के उक्त कथन से एक बात अत्यन्त स्पष्ट है कि संवरभावना और संवरतत्व के कारण-कार्य का सम्बंध है; क्योंकि उक्त कथन में बारह भावनाओं को संवर के कारणों में गिनाया गा है और संवरभावना भी बारह भावनाओं में एक भावना है।
इसप्रकार यह बात सहज ही स्पष्ट हो जाती है कि संवरभावना कारण है और संवरतत्व कार्य है।
यदि कारा-कार्य को अभेदद1ष्टि से देखें तो संवरभाव और सवंवरतत्व एक ही सिद्ध होते हैं।
यह संवरभावना सम्बंधी उपलब्ध समग्र चिन्तन पर दृष्टि डालते हैं तो अधिकांशतः यही दिखाई देता है कि संवरभावना में संवर और उसके कारणों का चिन्तन बिना भेदभाव किए समग्ररूप से ही हुआ है।
इस संदर्भ में सवंरभावना सम्बंधी निम्नांकित कथन द्रष्टव्य है -
’’निज स्वरूप में लीनता, निश्चयसंवर जानि।
समिति गुप्ति संजम धरम, धरैं पाप की हानि।।1
निश्चयसंवरभावना तो निजस्वरूप में लीनता ही हैं व्यवहार से पापानिरोधक गुप्ति, समिति, धर्म, संयमादि को भी संवरभावना कहते हैं।
ज्ञान-विराग विचार के, गोपै मन-वच-काय।
थिर ह्वै अपने आप में, सो संवर सुखदाय।।2
ज्ञान और वैरागयपरक चिन्तनपूर्वक अपने उपयोग को मन-वचन-काय से हटकार जो अपने आप में स्थिर होते हैं, उनके संवर या संवरभावना होती है।
गुप्ति समिति वर धर्म धर, अनुप्रेक्षा चित चेत।
परिषहजय चारित्र लहि, यह छह संवर हेत।।
है संवर सुखमय महा, जहँ ’जग’ अध नहिं लेश।
गुप्ति समिति धर्मादि तैं, करें न करम प्रवेश।।3
श्रेष्ठ गुप्ति, समिति और धर्म के धारण करने से, अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन से परिषहजय और चारित्र से संवर होता है अर्थात ये छह संवर के कारण हैं।
यह संवर महासुखमय है। गुप्ति, समिति व धर्मादिमय होने से इसमें कर्म का प्रवेश एवं पाप लेश भी नहीं है।’’
उक्त छन्दों में संवरभावना का जो चिन्तन किया गया है; उसमें चाहे नाममात्र को ही सही, पर संवर के हेतुओं को भी गिनाया गया है तथा संवरभावना के स्वरूप को भी निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। संवर और संवरभावना में भेद न करके संवरभावना को भी ’संवर’ शब्द से ही अभिहित किया गया हे। ’निश्चय संवर जानि’ और ’सो संवर सुखदाय’ पदों से यह बात अत्यन्त स्पष्ट है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि उक्त छन्दों में संवर को ’सुखमय’ और ’सुखदाय’ कहा गया है
ध्यान रहे आस्त्रव का निरोध संवर है। तात्पर्य यह है कि संवर आस्त्रव की अभावपूर्ण उत्पन्न होने वाली स्थिति है, दशा है, पर्याय है। - यह बात आरम्भ में ही स्पष्ट हो चुकी है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि आस्त्रव और संवर परस्पर विरोधी भाव है; क्योंकि आस्त्रव दुःखमय और संवर सुखमय, आस्त्रव दुःखदायक अर्थात् दुःख का कारण्या है और संवर सुखदायक अर्थात सुख का कारण है। इस कारण संवर आस्त्रव का प्रतिद्वन्द्वी है, निषेधक है; उसका अभाव करके उत्पन्न होनेवाला पराक्रमी सज्जनोत्म यो; है, अनन्त आनन्ददायक है, वन्दनीय है, अभिनन्दनीय है।
|| SAMVAR BHAVANA||
Stoppage of influx of karma
The inflow of Karmas stopped where,
That condition is known by Samvar.
I want to attain this manner.....
I'm praying to you....8
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SAMVAR BHAVNA संवर भावना
Under this reflection, one thinks about karma streaming into the soul. Every time he enjoys or suffers through his five senses (touch, taste, smell, sight, and hearing), he accumulates more karma. This thought will make him more careful, and will try to stop the influx of karmas.
One thinks about stopping evil thoughts, and becomes absorbed in achieving spiritual knowledge and meditation. This prevents the influx of karma.
One thinks about stopping evil thoughts, and becomes absorbed in achieving spiritual knowledge and meditation. This prevents the influx of karma.
Transliteration:
Gnan, dhyaanmaa pravartmaan thai ne jeev nava karma baandhe nahi te aatthmi sanvarbhavana.
Translation:
Gnan, dhyaanmaa pravartmaan thai ne jeev nava karma baandhe nahi te aatthmi sanvarbhavana.
Translation:
By immersing in knowledge and meditation, the soul does not bind new karma. That is the eighth Samvar bhavana.
— Shrimad Rajchandra, Vachanamrut
Thinking of taking the action to stop the inflow of karmas.
Samvar means blocking of inflow of karmas. One must think of the tremendous benefits of each Samvar like Samiti, Gupti, Yati-dharma etc. One must carry out these activities to reduce the inflow of karma.
SAMVAR Bhavna – Stoppage of influx of karma
Samvar means blocking of inflow of karmas. One must think of the tremendous benefits of each Samvar like Samiti, Gupti, Yati-dharma etc. One must carry out these activities to reduce the inflow of karma.
SAMVAR Bhavna – Stoppage of influx of karma
The inflow of Karmas stopped where,
That condition is known by Samvar.
I want to attain this manner.....
I'm praying to you....8
This Bhavana reflects the idea that we can stop the accumulation of karmas.
Succeeding with this Bhavana depends on us changing the way we think, react and conduct ourselves.
So you’re walking down the street and someone is running and pushes you out of the way. How do you react? Do you shout at them? Do you run after them? Do you curse them aloud? Do you say’ bad’ things to them in your head? The majority would probably react in one of these ways.
This is what we need to change.
We need to try and look at it in a way which will prevent us from reacting in a negative way. We need to be equanimous. Neutral. If it helps, we should try and look at in a way that helps us accept it. For example, it is our karma coming into fruition. Thus by not reacting to it, we block further karma. However, if we react, we’re accumulating more, which will then need to come to fruition and we start all over again.
The positive here is that we have control. We have a choice and we have the ability to choose the right thing. Right for who? It’s right for your soul because the soul craves being rid of all these karmas, experiences, emotions etc. The soul wants to enjoy it’s true nature. Do you know it’s true nature? YOUR true nature? It is eternal bliss. So why turn it away? It’s not effortless but it is worth it!
Samvar bhavana is about the prevention of new karma. Karma rules every moment of our existence. All karma is suffering. Even good karma is sorrow dressed up as happiness because it interferes with our ultimate aim of moksha (salvation). So, can we stop collecting karma? Samvar bhavana tells us we can. Knowledge and meditation are the key to preventing new karma from depositing on our consciousness.
Just as we shut our windows to prevent dust from entering and soiling our homes, we force shut the attachment gateways (ashravdwaar) to thoughts, speech and deeds. Just as we shut the door to prevent theft of our belongings, we shut the door to temptation and prevent destruction of our essential spiritual fibre. By blocking karma, we block its results and free ourselves from its unhappy consequences. Only by such constant vigil can we shrink the vast, weighty and unwieldy canvas of our seemingly endless karmas.
Samvar bhavana is about disciplining the body and the mind to abstain from karma-inducing thought, speech and action. If we think before we speak or act, it becomes a powerful and easy way to curtail inflow of karma. A little step ahead is to think before we even think or feel – that is, to control the mind by not allowing a wayward or indisciplined thought to enter it. We need to be our own doormen. When an involuntary bad thought such as envy creeps in, arrest it as it enters, before it consumes the mind. If possible, watch the thought and let it fly back out of our system. A constant vigil will cleanse the mind and thereby our speech and actions.
Samvar bhavana tells us how crucial it is to bear our karma with fortitude. Our oneness with our suffering creates a cyclical bind of new karma whereas bearing our pain calmly relieves us of that karma at some point. Knowledge of right awareness goes a long way in practising samvar. Awareness of an object – any idea, thought or emotion that stems from attachment – has to be forfeited as it breeds attachment. Awareness of the self is real awareness that protects us from creating new karma. Meditation helps create such awareness.
Param Pujya Bhaishree, quoting from ‘Vyakhyaansaar’, tells us of the fine line between a person who has achieved granthi bhed (discrimination between delusion and reality) and one who has not. The one who has not achieved granthi bhed is driven by his active involvement or oneness (ekatva) with the four vices (kashay) of anger, ego, deception and greed; the one who has achieved granthi bhed, such as an enlightened person, may have kashays but he does not get involved in them. And therein lies the fundamental schism between suffering souls and liberated souls.
Shrimadji says, “For the sake of small joys in one lifetime, enlightened souls do not extend the infinite suffering of infinite lives.” Avoid anger by cultivating love and forgiveness, ego by humility, deception by straight-forwardness and greed by contentedness.
One must contemplate on the virtues of samiti, gupti and yati dharma that define living within determinate parameters. Conserve and limit use of all the outer resources we need for a worldly existence such as water, food, electricity, clothes, etc. And conserve our inner peace by increasing our sadhana and contemplation, watching our words and thoughts, avoiding negativity and cultivating detachment.
Shree Bhagvati Sutra Part 2 says a sangni jeev (sentient and rational being) manifests ten categories of behaviour based on his desires – food, fear, intercourse, acquisitiveness, anger, ego, attachment, greed, aimlessness, social approval.
Even an ayogi kevali (a soul who has reached the acme of spiritual awakening and consciousness) at the 14th gunsthanak (highest stage of spiritual journey), who does not accumulate any karma, has to bear 11 types of parishaha (hardships). This should tell us how much way behind we are and how far we have to go.
In addition to our daily contemplation of 15-20 minutes for the bhavana of the month, Brahmnisht Vikrambhai advocates a simple and effective way to enforce the bhavana in our lives: chant the action part of the bhavana in our mind all day. E.g., for samvar bhavana, we could repeatedly chant, “I will watch my thought, speech and action.”
Bhavanabodh cites the inspiring example of how Rukmini, the beautiful daughter of a wealthy man, was got besotted with Vajraswami after listening to his impressive spiritual discourses and declared she would marry him and none other. She tried her best to woo him. Vajraswami, however, remained unwavering in his vow of celibacy. He knew entering into a marital liaison would entail a lifetime of karmic binding, a binding that would harm him no end. In the end, Rukmini saw her folly in trying to convert a saint and drive him towards self-destruction. Instead of trying further, she decided to renounce the world and embrace sainthood herself. The best way to prevent new karmas from forming is to disallow them from entering our mindspace.
Param Krupalu Dev Shrimad Rajchandra’s fame as a shataavdhaani – someone who could do 100 things at a time – had spread far and wide. He got invitations to go abroad and earn more money and fame. Shrimadji, however, declined all offers as these could lead him away from the glorious pursuit of his soul. To him, his extraordinary prowess as a shataavdhaani was but one miniscule part of the soul’s boundless power. A gnani does not get tempted; a gnani enjoys a good breeze without getting attached to it and craving it.
Bhagvad Geeta expounds the beautiful concept of sthitapragna – a wise person who is equanimous in happiness and sadness. Such a state of being frees us from being prisoner to future karma. In the same book, Bhagwan Krishna famously says, “Karmanye vadhikaaraste, maa phaleshu kadaachana.” “You have the right to act according to your duty; but do not get attached to the fruits of your actions.”
In other words, be detached, come what may.
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JAINAM JAYATI SHASHNAM
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