|| Shantinath bhagwan Nirkhi Shanti Jinand bhavikjan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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जगत दिवाकर जगत कृपानिधि स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री शांतिनाथ प्रभु स्तवन Devchandraji jain stavan |
Jagatdiwakar jagatkrupanidhi Nirkhi,Shanti Jinand Shantinath bhgwan Devchandraji stavan |
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|| जगत दिवाकर जगत कृपानिधि ||
जगत दिवाकर जगत कृपानिधि, वाल्हा मारा समवसरणमां बेठा रे;
चौमुख चौविह धर्म प्रकाशे, ते में नयणे दीठा रे;भविक जन हरखो रे,
निरखी शांति जिणंद उपशम रसनो कंद, नहीं इण सरखो रे ।।भविक 1।।
प्रातिहार्य अतिशय शोभा, वा. ते तो कहिय न जावे रे;
घूक बालकथी रवि कर भरनुं, वर्णन केणी परे थावे रे ।।भविक 2।।
वाणी गुण पांत्रीश अनोपम, वा. अविसंवाद सरूपे रे;
भवदु:ख वारण शिवसुख कारण, सुधो धर्म प्ररुपे रे ।।भविक 3।।
दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशिमुख, वा. ठवणा जिन उपगारी रे;
तसु आलंबन लहीय अनेके, तिहां थया समक्ति धारी रे।।भविक 4।।
षट नय कारज रूपे ठवणा, वा. संग नय कारण ठाणी रे;
निमित्त समान थापना जिनजी, ए आगमनी वाणी रे ।।भविक 5।।
साधक तीन निक्षेपा मुख्य, वा. जे विणु भाव न लहिये रे;
उपगारी दुग भाष्ये भाख्या, भाव वंदकनो ग्रहीये रे ।।भविक 6।।
ठवणा समवसरणे जिन सेंति, वा. जो अभेदता वाधी रे;
ए आतमना स्व स्वभाव गुण, व्यक्त योग्यता साधी रे ।।भविक 7।।
भलुं थयुं में प्रभु गुण गाया, वा. रसनानो फल लीधो रे;
देवचंद्र कहे माहरा मननो, सकल मनोरथसीधो रे ।।भविक 8।।
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अर्थ 1 : जगत् में सूर्य के समान ज्ञान-प्रकाश के करनेवाले, सब जीवों पर परम करुणा (दया) के भण्डार ऐसे परमात्मा मुझे अत्यन्त वल्लभ है। जो परमात्मा समवसरण मैं बैठकर चार प्रकारे के धर्म की देशना देते हैं, उन परमात्मा को मैंने शास्त्र-चक्षु से देखा है और हे भव्य जीवों ! तुम भी ऐसे शान्तिनाथ भगवान् को देखकर हर्षित बनो। सचमुच ! ये परमात्मा उपशम-समतारस के कन्द हैं, इनकी तुलना में आवे ऐसा कोई अन्य इस जगत् में नहीं है।
जगत दिवाकर जगत कृपानिधि, वाल्हा मारा समवसरणमां बेठा रे;
चौमुख चौविह धर्म प्रकाशे, ते में नयणे दीठा रे;भविक जन हरखो रे,
निरखी शांति जिणंद उपशम रसनो कंद, नहीं इण सरखो रे ।।भविक 1।।
अर्थ 2 : अरिहन्त परमात्मा के अष्ट प्रातिहार्य और चौतीस अतिशयों की शोभा का वर्णन मेरे जैसे मन्दमतिवाले से नहीं हो सकता है। उल्लू का बालक सूर्य की तेजस्वी किरणों के समूह का वर्णन कैसे कर सकता है ?
प्रातिहार्य अतिशय शोभा, वा. ते तो कहिय न जावे रे;
घूक बालकथी रवि कर भरनुं, वर्णन केणी परे थावे रे ।।भविक 2।।
अर्थ 3 : परमात्मा की मधुरी वाणी (देशना) अनुपम पैतीस गुणों से युक्त और अविसंवाद (परस्पर विरोधरहित) स्वरूप वाली है। एसी अपूर्व अद्भुत वाणी द्वारा प्रभु भव्य जीवों के भवदुःख को मिटानेवाले और मोक्षसुख को देनेवाले शुद्ध-धर्म की प्ररूपणा करते हैं।
वाणी गुण पांत्रीश अनोपम, वा. अविसंवाद सरूपे रे;
भवदु:ख वारण शिवसुख कारण, सुधो धर्म प्ररुपे रे ।।भविक 3।।
अर्थ 4 : समवसरण में अरिहन्त परमात्मा पूर्व सन्मुख बैठकर देशना देते है। व्रत लेने वाले श्रोताजन उनके सामने बैठते है। शेष दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में प्रभु की प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं, वे भी स्थापनाजिन होने से महान् उपकारक हैं। जिन बिन्ब के आलंबन द्वारा अनेक भव्यात्मा वहीं सम्यग्दर्शन प्राप्त करते हैं।
दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशिमुख, वा. ठवणा जिन उपगारी रे;
तसु आलंबन लहीय अनेके, तिहां थया समक्ति धारी रे।।भविक 4।।
अर्थ 5 : स्थापना-जिन यानि प्रतिमा में अरिहंततारूप, सिद्धतारूप कार्य नैगमादि षड्नय की अपेक्षा से रहा हुआ है। इसी तरह सात नय की अपेक्षा से उसमें मोक्ष की निमित्त-कारणता भी रही हुई है। भव्य जीवों को मोक्षप्राप्ति में साक्षात् अरिहंत और स्थापना अरिहन्त (जिनप्रतिमा) दोनों निमित्त कारणरूप में समान है, ऐसा आगम वचन है।
षट नय कारज रूपे ठवणा, वा. संग नय कारण ठाणी रे;
निमित्त समान थापना जिनजी, ए आगमनी वाणी रे ।।भविक 5।।
अर्थ 6 : नाम, स्थापना और द्रव्य-ये तीन निक्षेप भावसाधक होने से मुख्य हैं। इन तीन के बिना भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। विशेषावश्यकभाष्य में भी नाम स्थापना को ही उपकारी कहा है क्योंकि परमात्मा का द्रव्य-निक्षेप पिण्डरूप है और भाव अरूपी है, अतः उनका ग्रहण नहीं हो सकता। समवसरण में विराजमान साक्षात् अरिहन्त परमात्मा के नाम और स्थापना ही छद्मस्थ जीवों के लिए ग्राह्य बनते हैं, इसलिए वे ही महान् उपकारी हैं। भाव तो वंदन करनेवाले का लेना चारिए।
साधक तीन निक्षेपा मुख्य, वा. जे विणु भाव न लहिये रे;
उपगारी दुग भाष्ये भाख्या, भाव वंदकनो ग्रहीये रे ।।भविक 6।।
अर्थ 7 : समवसरण में विराजमान स्थापना-जिन के आलंभन से जो मेरी चेतना की अभेदता (अभेद-प्रणिधान) की वृद्धि-सिद्धि हुई है, उससे अनुमान होता है कि मेरी आत्मा में संपूर्ण शुद्ध स्वभाव को प्रकट करने की योग्यता रही हुई है अर्थात् अल्पकाल में ही आत्म-स्वभाव में रमणता-तन्मयता प्राप्त होगी।
ठवणा समवसरणे जिन सेंति, वा. जो अभेदता वाधी रे;
ए आतमना स्व स्वभाव गुण, व्यक्त योग्यता साधी रे ।।भविक 7।।
अर्थ 8 : बहुत अच्छा हुआ कि मैंने प्रभु के गुणगान किये और रसना का वास्तविक फल प्राप्त किया अर्थात् वाणी को सार्थक बनाया। देवचन्द्र मुनि कहते हैं कि – ‘आज मेरे मन के सफल मनोरथ पूर्ण हुए हैं।’
भलुं थयुं में प्रभु गुण गाया, वा. रसनानो फल लीधो रे;
देवचंद्र कहे माहरा मननो, सकल मनोरथसीधो रे ।।भविक 8।।
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