|| Dharmanath Dharma jagnathno dharma suchi gayiye LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईये स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री धर्मनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan |
श्री धर्मनाथ भगवान् |
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|| धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईजी ||
धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईये, आपणो आतमा तेहवो भाविये;
जाति जसु एकता तेह पलटे नहि, शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी ।।1।।
नित्य निरवयव वली एक अक्रियपणे, सर्वगत तेह सामान्य भावे भणे;
तेहथी ईतर सावयव विशेषता, व्यक्तिभेदे पडे जेहनी भेदता ।।2।।
एकता पिंडने नित्य अविनाशता, अस्ति निज ऋद्धिथी कार्य गत भेदता;
भावश्रुत गम्य अभिलाप्य अनंतता, भव्यपर्यायनी जे परावर्तिता ।।3।।
क्षेत्र गुण भाव अविभाग अनेकता, नाश उत्पाद अनित्य परनास्तिता;
क्षेत्र व्याप्यत्व अभेद अवकतव्यता, वस्तु ते रूपथी नियत अभव्यता ।।4।।
धर्म प्राग्भावता सकल गुण शुद्धता, भोग्यता कर्तृता रमण परिणामता;
शुद्ध स्वप्रदेशता तत्त्व चैतन्यता, व्याप्य व्यापक तथा ग्राह्य ग्राहकता ।।5।।
संग परिहारथी स्वामी निज पद लह्युं, शुद्ध आत्मिक आनंद पद संग्रह्युं;
जहवि परभावथी हुं भवोदधि वस्यो, पर तणो संग संसारताए ग्रस्यो ।।6।।
तहवि सत्ता गुणे जीव ते निरमलो, अन्य संश्लेष जिम स्फटिक नवि सामलो;
जे परोपाधिथी दुष्ट परिणति ग्रही, भाव तादात्म्यमा माहरुं ते नहीं ।।7।।
तिणे परमात्म प्रभु भक्तिरंगी थई, शुद्ध कारण रसे तत्त्व परिणतिमयी;
आत्म ग्राहक थये तजे पर ग्रहणता, तत्त्व भोगी थये टले परभोग्यता ।।8।।
शुद्ध नि:प्रयास निज भाव भोगी यदा, आत्मक्षेत्रे नहि अन्य रक्षण तदा;
एक असहाय निस्संग निर्द्वंद्वता, शक्ति उत्सर्गनी होय सहु व्यक्तता ।।9।।
तिणे मुझ आतमा तुज थकी नीपजे, माहरी संपदा सकल मुज संपजे;
तेणे मन-मंदिरे धर्म प्रभु ध्याईये, परम देवचंद्र निज सिद्धि सुख पाईये ।।10।।
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अर्थ 1 : जगत के नाथ श्री धर्मनाथ भगवान् के शुद्धस्वभाव का निरन्तर गान, स्मरण और ध्यान करना चाहिए तथा उनके शुद्धस्वभाव में तन्मय बनकर अपने आत्मा को भी उसी परमात्मरूप में देखना चाहिए। क्योंकि, जीव की जीवत्व जाति एक ही है। वह कभी बदलती नहीं। शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से तो वस्तु-आत्मा की सत्ता शुद्ध गुण-पर्यायमयी हैं। संग्रहनय शुद्ध सामान्य सत्ताग्रही है अतः वह सर्व जीवों को सिद्ध समान मानता है।
धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईये, आपणो आतमा तेहवो भाविये;
जाति जसु एकता तेह पलटे नहि, शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी ।।1।।
अर्थ 2 : जो नित्य (अविनाशी), निरवयव (विभाग-अंशरहित), एक, अक्रिय (हलन-चलनादि क्रियारहित) और सर्वगत (सर्व प्रदेश-गुण-पर्याय में व्यापक) हो उसे सामान्य स्वभाव कहते हैं। इस सामान्य स्वभाव से इतर-प्रतिपक्षी-विपरीत हो उसे विशेष स्वभाव कहते है। जैसे अनित्य, सावयव, अनेक, सक्रिय और देशगत हो तथा व्यक्तिभेद से जिसमें भेद हो, वह विशेष है। अर्थात् सब व्यक्तियों में विशेषत्व भिन्न होता है। ज्ञानादि गुणों का भेद विशेष स्वभाव को लेकर ही होता है।
नित्य निरवयव वली एक अक्रियपणे, सर्वगत तेह सामान्य भावे भणे;
तेहथी ईतर सावयव विशेषता, व्यक्तिभेदे पडे जेहनी भेदता ।।2।।
अर्थ 3 : एकता, नित्यता, अस्तिता, भेदता, अभिलाप्यता और भव्यता, ये छह सामान्य स्वभाव हैं और वै प्रत्येक द्रव्य, गुण और पर्याय में होते हैं। (1) एकता : पिण्ड अर्थात् एक स्वभाव। जैसे द्रव्य के सर्व प्रदेश, गुण और पर्याय का समुदाय एक पिण्डरूप है, भिन्न नहीं, यह एक स्वभाव है। (2) नित्यता : सर्व द्रव्यों में ध्रुवता रही हुई है, यह नित्य स्वभाव है। (3) अस्तिता : स्वभाव से सब द्रव्य सत् हैं। वे कभी भी अपनी गुण-पर्याय की ऋद्धि को नहीं छोडते, यह अस्ति स्वभाव है। (4) भेदता : यह कार्यगत है अर्थात् कार्य की अपेक्षा से भेद स्वभाव होता है। जैसे आत्मद्रव्य में ज्ञान गुण जानने का, दर्शन गुण देखने का और चारित्र गुण रमणता का कार्य करता है। इस प्रकार कार्य के भेद से द्रव्य में भेद स्वभाव होता है। (5) अभिलाप्यता : श्रुत-वचन से गम्य भावों में अर्थात् वचन से कहे जा सकनेवाले या श्रुतज्ञान से जाने जा सकनेवाले भावों में अभिलाप्य स्वभाव होता है। जैसे आत्मद्रव्य में अनन्त ऐसे भाव हैं जो वचन से कहे जा सकते हैं। (6) भव्यता : पर्यायों का परावर्तन होना, यह भव्य स्वभाव हैं।
एकता पिंडने नित्य अविनाशता, अस्ति निज ऋद्धिथी कार्य गत भेदता;
भावश्रुत गम्य अभिलाप्य अनंतता, भव्यपर्यायनी जे परावर्तिता ।।3।।
अर्थ 4 : ऊपर बताये हुए सामान्य स्वभाव के प्रतीपक्षी अनेकता आदि छह सामान्य स्वभाव का स्वरूप इस प्रकार है। (1) अनेकता भाव : क्षेत्र, गुण, भाव (पर्याय) के अविभाग द्वारा अनेकता है। (अ) क्षेत्र के अविभाग : पदार्थ में प्रदेशरूप अविभाग अनेक होते हैं। (ब) गुण के अविभाग : एक-एक गुण के अनन्त अविभाग होते हैं। (क) भाव के अविभाग : अर्थात् पर्याय-धर्म। एक एक ज्ञानादि गुण के अनन्त पर्याय होते है। अर्थात् क्षेत्र, गुण और पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य में अनेक स्वभाव है। (2) अनित्यता : उत्पत्ति और विनाश की अपेक्षा से द्रव्य में अनित्यता है। (3) नास्तिता : एक द्रव्य के धर्म दूसरे द्रव्य में नहीं होते अतः पर की अपेक्षा से द्रव्य में नास्ति स्वभाव है। (4) अभेदता : सर्व गुण-पर्यायों का आधार द्रव्य होता है। मूल द्रव्य को छोड़कर कोई गुण अन्यत्र नहीं रहता अतः एक क्षेत्र को अवगाहकर सर्व गुण-पर्याय रहे हुए होने से द्रव्य में अभेद स्वभाव है। (5) अनभिलाप्यता : द्रव्य में अनन्त भाव ऐसे होते हैं जो वचन से अगोचर हैं। इस अपेक्षा से द्रव्य में अनभिलाप्यता स्वभाव है। (6) अभव्यता : द्रव्य में अनेक पर्यायों का परावर्तन होता है तो भी वस्तु का मूल स्वरूप नहीं बदलताः उसी रूप में रहता है। इस नियतपन को लेकर द्रव्य में अभव्य स्वभाव है। उक्त बारह प्रकार के सामान्य स्वभावों का विस्तृत वर्णन ‘सन्मतितर्क, धर्मसंग्रहणी और द्रव्य-गुण पर्यायनो रास’ आदि ग्रंथो में है। विशेष जिज्ञासु वहाँ से जान लेवें। ये सब धर्म एक ही समय में द्रव्य में रहते हैं। जिस समय एकता है उसी समय अनेकता, जिस समय नित्यता है उसी समय अनित्यता भी है। इस प्रकार एक-एक स्वभाव की सप्तभंगी होती है। इस तरह द्रव्य में अनन्त स्वभावों की अनन्ती सप्तभंगियाँ होती है। यह बात ‘स्याद्वाद रत्नाकर और रत्नाकरावतैरिका’ आदि ग्रन्थों में विस्तार से समझायी गई है। यह सामान्य स्वभाव सब पदार्थो का (द्रव्यास्तिक) मूल-धर्म है। सब पदार्थों में इसका परिणमन होने से सर्व पदार्थ स्याद्वादमय हैं।
क्षेत्र गुण भाव अविभाग अनेकता, नाश उत्पाद अनित्य परनास्तिता;
क्षेत्र व्याप्यत्व अभेद अवकतव्यता, वस्तु ते रूपथी नियत अभव्यता ।।4।।
अर्थ 5 : विशेष स्वभाव प्रत्येक द्रव्य में भिन्न भिन्न होता है। जीव द्रव्य के कतिपय विशेष स्वभावों का स्वरूप इस प्रकार है – (1) आविर्भावता : ज्ञानादि गुणों का प्रकट होना, यह आविर्भावता है। (2) भोग्यता या भोक्तृता : समग्र शुद्ध गुणों में भोग्यता है और आत्मा उन शुद्ध गुणों का भोक्ता है, अतः उसका भोक्तृत्व स्वभाव है। (3) कर्तृता : आत्मा में कर्तृत्व स्वभाव है । उसके सर्व प्रदेश एक साथ मिलकर कार्य-प्रवृत्ति करते हैं जबकि अन्य द्रव्यों के प्रति प्रदेश में अलग-अलग कार्य होता है अतः उनमें कर्तृता स्वभाव नहीं है। (4) रमणता : स्वगुण-पर्याय में रमण करना, यह आत्मा का रमणता स्वभाव है। (5) पारिणामिकता : शुद्ध स्वप्रदेशता अर्थात् प्रदेशों की पूर्ण शुद्धता होना। (6) तत्त्व-चैतन्यता : तत्त्व अर्थात् आत्मास, उसमें चेतना का होना उसका विशेष स्वभाव है। (7) व्याप्य-व्यापकता : आत्मा व्यापक है। उसके ज्ञानादि गुण व्याप्य है, अतः आत्मा में व्याप्य-व्यापकभाव है। (8) ग्राह्य-ग्राहकता : स्वगुण ग्राह्य हैं और आत्मा ग्राहक है, अतः आत्मा में ग्राह्य-ग्राहक भाव है। इसी प्रकार स्व-स्वामित्वादि आत्मा के विशेष स्वभाव भी जान लेने चाहिए।
धर्म प्राग्भावता सकल गुण शुद्धता, भोग्यता कर्तृता रमण परिणामता;
शुद्ध स्वप्रदेशता तत्त्व चैतन्यता, व्याप्य व्यापक तथा ग्राह्य ग्राहकता ।।5।।
अर्थ 6 : हे स्वामीनाथ ! पुद्गलमात्र का संग छोड़कर आप तो शुद्ध आत्मिक आनन्दमय निज-पद को प्राप्त कर चुके हो और मैं पर-पुदगल पदार्थों में मोहित बनकर चार गतिमय संसार-समुद्र में परिभ्रमण कर रहा हूँ। पुद्गल का संग करने सी इस संसार (कर्म) ने मुझे ग्रस लिया है-जकड़ लिया है। इस प्रकार आपके और मेरे आत्मा के बीच बहुत अन्तर पड गया है।
संग परिहारथी स्वामी निज पद लह्युं, शुद्ध आत्मिक आनंद पद संग्रह्युं;
जहवि परभावथी हुं भवोदधि वस्यो, पर तणो संग संसारताए ग्रस्यो ।।6।।
अर्थ 7 : तो भी सत्ता गुण से अर्थात् द्रव्यास्तिक संग्रहनय की अपेक्षा से विचारने पर प्रतीत होता है कि मेरी आत्मा भी निर्मल है, कर्मकलंक से रहित है, असंग और अरूपी है। जैसे अन्य कृष्णादि पदार्थो के संयोग से स्फटिक काला दिखाई देता है, परन्तु वात्सव में वह काला नहीं होता। (1) निर्मलस्फटिकस्येव सहजं रूपमात्मनः (ज्ञानसार)(2) जेम निर्मलता रे रत्न स्फटिक तणी, तेम ए तीव-स्वभाव। – इत्यादि। उसी तरह पर उपाधि से-पुद्गल द्रव्य (कर्म) के योग से दुष्ट राग-द्वेष की परिणति होती है। आत्मा पर पदार्थों और कर्म के कर्त्तापन का अभिमान करता है परंतु वह सर्व दुष्ट भाव मेरे तादात्म्य-भाव नहीं है। वह सब उपाधिजन्य विभाव मेरा नहीं है बल्कि कर्म के संयोग के कारण है।
तहवि सत्ता गुणे जीव ते निरमलो, अन्य संश्लेष जिम स्फटिक नवि सामलो;
जे परोपाधिथी दुष्ट परिणति ग्रही, भाव तादात्म्यमा माहरुं ते नहीं ।।7।।
अर्थ 8 : उक्त रीति से विभाव परिणति मेरे आत्मा में उत्पन्न हुआ मूल स्वभाव नहीं है, अतः उसका निवारण हो सकता है। ऐसा विचारकर साघक परमात्मा की भक्ति में तन्मय होकर शुद्ध निमित्त-कारणरूप परमात्मा के ध्यान में मग्न बनकर तत्त्व परिणतिवाला बनता है। अर्थात् आत्मस्वभाव दशा में मग्न बनता है। इस प्रकार आत्मस्वरूप का ग्राहक ओर भोक्ता बनने से पर पुद्गल की ग्राहकता का त्याग करता है अर्थात् वह पर पदार्थों को न तो ग्रहण करता है और न भोगता ही है।
तिणे परमात्म प्रभु भक्तिरंगी थई, शुद्ध कारण रसे तत्त्व परिणतिमयी;
आत्म ग्राहक थये तजे पर ग्रहणता, तत्त्व भोगी थये टले परभोग्यता ।।8।।
अर्थ 9 : जब आत्मा शुद्ध निर्मल और प्रयासरहित ऐसे आत्म-स्वभाव का भोक्ता होता है तब आत्मप्रदेशरूप क्षेत्र मेंम अन्य पुद्गल या रागद्वेषादि नहीं रह सकते। अर्थात् आत्म-स्वरूप में लीनता होती है तब सब आत्मप्रदेशों में संयोग-संबंध से रहे हुए सर्व कर्म-पुद्गल नष्ट हो जाते हैं और उस समय एक, असहाय, निःसंग (कर्मसंगरहित), निर्द्वन्द्व (राग-द्वेषरहित), उत्सर्ग-शक्ति (परम आत्म-शक्ति) प्रकट होती है।
शुद्ध नि:प्रयास निज भाव भोगी यदा, आत्मक्षेत्रे नहि अन्य रक्षण तदा;
एक असहाय निस्संग निर्द्वंद्वता, शक्ति उत्सर्गनी होय सहु व्यक्तता ।।9।।
अर्थ 10 : इस प्रकार अरिहन्त परमात्मा के आलंबन से मेरा आत्मतत्त्व प्रकट होता है। मेरी सत्तागत आत्म-लक्ष्मी प्राप्त होती है। ऐसा जानकर जो मुमुक्षु आत्मा अपने मन-मन्दिर में सदा धर्मनाथ प्रभु का ध्यान करते हैं, वे देवों में चन्द्र समान निर्मल जिन सिद्धि-सुख को प्राप्त करते हैं।
तिणे मुझ आतमा तुज थकी नीपजे, माहरी संपदा सकल मुज संपजे;
तेणे मन-मंदिरे धर्म प्रभु ध्याईये, परम देवचंद्र निज सिद्धि सुख पाईये ।।10।।
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