जैन स्तवन
अर्थ 1 : हे प्रभो ! आपकी अनंत और अपार ऐसी पूर्ण ज्ञानादिक गुणो की
‘संपत्ति’ का वर्णन मुझे भी आगम द्वारा सुनने-जानने का अवसर मिला है
अतःमुझे भी आत्मा की वैसी ही ज्ञानादिक गुण-संपत्ति को प्रकट करने की
रुचि-इच्छा उत्पन्न हुई है। अतः हे दीनदयाल अजितनाथ प्रभो ! मुझे भी इस
संसार सागर से तारो-पार उतारो।
ज्ञानादिक गुण संपदा रे, तुज अनंत अपार;
ते सांभळतां ऊपनी रे, रुचि तेणे पार उतार ।।
अजित जिन तारजो रे, तारजो दीन दयाळ ।।1।।
अर्थ 2 : जिस जिस कार्य का जो कारण होता है और उस कार्य को करने में
अन्य भी जो जो उपयोगी सामग्री होती है उसका योग मिलने से कर्ता के
प्रयत्न द्वारा कार्य उत्पन्न होता है।
जे जे कारण जेहनुं रे, सामग्री संयोग;
मळतां कारज नीपजे रे, कर्ता तणे प्रयोग ।।अजित 2।।
अर्थ 3 : कारण और अन्य सामग्री का योग मिलने पर कर्त्ता जब कार्य करने
के लिए प्रवृत्ति करता है तब कार्य सिद्ध हो सकता है अर्थात् आत्मा के
मोक्षरूप कार्य में पुष्ट निमित्त-कारण ऐसे परमात्मा मिलने से मोक्षार्थी आत्मा
अत्यंत आनंदपूर्वक उस निमित्त का भोग करता है अर्थात् सेवन करता है।
कार्यसिद्धि कर्ता वसुरे, लहि कारण संयोग;
निजपद कारक प्रभु मिल्या रे, होये निमित्तह भोग ।।अजित 3।।
अर्थ 4 : बचपन से ही बकरियों के टोले में रहे हुए सिंह के बच्चे को सजातीय
सिंह के दर्शन से जैसे अपने भूले हुए मूल स्वरूप (सिंहत्व) का भान होता है।
उसी प्रकार श्री अजितनाथ प्रभु की भक्ति करता हुआ भव्यात्मा भी अपनी
सत्ता में रही हुई परमात्म शक्ति को पहचान कर उसे प्रकट करने हेतु
पुरुषार्थ करता है।
अजकुळगत केसरी लहे रे, निज पद सिंह निहाळ;
तिम प्रभुभक्तें भविं लहेरे, आतम शक्ति संभाळ ।।अजित 4।।
अर्थ 5 : मुक्ति के अनन्य कारणरुप अरिहन्त परमात्मा को अभेद उपचार से
कर्ता रूप मानकर निज स्वरूप की पूर्णता का अर्थी आत्मा भी प्रभु से
सम्यग्दर्शनादि अनेक गुणों की आशा रखता है।
कारणपद कर्त्तापणे रे, करी आरोप अभेद;
निजपद अर्थीप्रभु थकी रे, करे अनेक उमेद ।।अजित 5।।
अर्थ 6 : ऐसे परमात्मा प्रभु परमानन्द स्वरूप है और ये परमात्मा
स्याद्वादमयी शुद्ध-सत्ता के रसिक है। कर्ममल से रहित, अखण्ड और
अनुपम अद्वितीय है जिनके दर्शन से भी मुझे असीम लाभ प्राप्त हुआ है।
एहवा परमातम प्रभु रे, परमानंद स्वरूप;
स्योद्वाद सत्ता रसी रे, अमल अखंड अनुप ।।अजित 6।।
अर्थ 7 : हे प्रभो ! आपके दर्शन से आरोपित सुख का भ्रम दूर हो गया ।
अव्यावाध सुख का भासन-ज्ञान हुआ और इसी सुख की अभिलाषा जागृत
हुई । उसका ही सतत स्मरण करके उसी सुख का कर्त्ता बना और उसे ही
साध्य मानकर उसके साधनों में तत्पर बना।
आरोपित सुख भ्रम टळ्यो रे, भास्यो अव्याबाध;
समर्युं अभिलाषीपणुं रे, कर्त्ता साधन साध्य ।।अजित 7।।
अर्थ 8 : हे प्रभो ! आपके दर्शन से स्वभाव को ग्राहकता, स्वामित्व,
व्यापकता, भोक्तृता, कारणता और कार्यता का भान हुआ है।
ग्राहकता स्वामित्वता रे, व्यापक भोक्ताभाव;
कारणता कारज दशा रे, सकळ ग्रह्यो निज भाव ।।अजित 8।।
अर्थ 9 : श्रद्धा, ज्ञान और रमणता तथआ दानादि गुण सर्व आत्मसत्ता के रसिक बने हैं।
श्रद्धा भासन रमणता रे, दानादिक परिणाम;
सकल थया सत्तारसीरे, जिनवर दरिसण पाम ।।अजित 9।।
अर्थ 10 : इसलिए हे परमात्मन् ! आप निर्यामक (नाविक) है, माहण
(अहिंसक) हैं, वैद्य है, गोप (रक्षक) हैं, आधार हैं और सुख के सागर हैं। आप
देवों में चन्द्र समान हैं और आप ही भावधर्म (सम्यग्दर्शनादि) के दातार हैं,
ऐसा मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हुआ है।
तिणे निर्यामक माहणो रे, वैद्य गोप आधार;
देवचन्द्र सुख सागरुरे, भाव धरम दातार ।।अजित 10।।
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