|| Sri ChandraPrabha Jin pad seva Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा स्तवन सांग
जैन स्तवन
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|| श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा ||
श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा, हेवायें जे हलियाजी;
आतम गुण अनुभवथी मलिया, ते भवभयथी टलियाजी ।।1।।
द्रव्य सेव वंदन नमनादिक, अर्चन वली गुणग्रामोजी;
भाव अभेद थवानी ईहा, परभावे नि:कामोजी ।।2।।
भावसेव अपवादे नैगम, प्रभु गुणने संकल्पेजी;
संग्रह सत्ता तुल्यारोपे, भेदाभेद विकल्पेजी ।।3।।
व्यवहारे बहुमान ज्ञान निज, चरणे जिन गुण रमणाजी;
प्रभु गुण आलंबी परिणामे, ऋजुपद ध्यान स्मरणाजी ।।4।।
शब्दे शुक्ल ध्यानारोहण, समभिरुढ गुण दशमेंजी;
बीय शुक्ल अविक्ल्प एकत्वे, एवंभूत ते अममेंजी ।।5।।
उत्सर्गें समकित गुण प्रकट्ये, नैगम प्रभुता अंशेजी;
संग्रह आतम सत्तालंबी, मुनि पद भाव प्रशंसेजी ।।6।।
ऋजुसूत्रे जे श्रेणि पदस्थे, आत्मशक्ति प्रकाशेजी;
यथाख्यात पद शब्द स्वरूपे शुद्ध धर्म उल्लासेजी ।।7।।
भाव सयोगी अयोगी शैलेशे अंतिम दुग नय जाणोजी;
साधनता ए निज गुण व्यक्ति, तेह सेवना वखाणोजी ।।8।।
कारण भाव तेह अपवादे, कार्यरूप उत्सर्गेजी;
आत्मभाव ते भाव द्रव्यपद, बाह्य प्रवृत्ति नि:सर्गेंजी ।।9।।
कारण भाव परंपर सेवन, प्रगटे कारज भावोजी;
कारज सिद्धे कारणता व्यय, शुचि पारिणामिक भावोजी ।।10।।
परम गुणी सेवन तन्मयता, निश्चय ध्याने ध्यावेजी;
शुद्धातम अनुभव आस्वादी, देवचंद्र पद पावेजी ।।11।।
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अर्थ 1 : जिन भाग्यवान साधकों को ची चन्द्रप्रभस्वामी भगवान् के चरणों की विधिपूर्वक सेवा करने की आदत पड़ गई है अर्थात् प्रभुसेवा ही जिनका जीवन है, उनको आत्मा के ज्ञानादि गुणों का अवश्य अनुभव होता है और उनके भवभ्रमण का भय दूर हो जाता है।
श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा, हेवायें जे हलियाजी;
आतम गुण अनुभवथी मलिया, ते भवभयथी टलियाजी ।।1।।
अर्थ 2 : प्रभु को वन्दन करना, नमन करना, उनेकगुणों का कीर्तिन करना-यह द्रव्यसेवा-पूजा है और बाह्य सुख की आशंसा किये बिना श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ अभेदभाव-एकत्वरूप से तन्मय होने की इच्छापूर्वक की जाती हुई द्रव्यसेवा, यह भाव सेवा है। द्रव्यसेवा भावसेवा का कारण होने से आदरणीय है। साध्यरूचि बिना द्रव्यपूजा आत्महित साधक न होने से निष्फल है। सेवा के चार प्रकार हैं ः नाम सेवा, स्थापना सेवा, द्रव्य सेवा और भावसेवा। इनमें से प्रथम की दो सेवाओं का अर्थ सुगम होने से यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया है। द्रव्य सेवा की व्याख्या दूसरी गाथा में बताई है। अब भावसेवा के दो मुख्य प्रकार और उसके अवान्तर भेदों का वर्णन करते है।
द्रव्य सेव वंदन नमनादिक, अर्चन वली गुणग्रामोजी;
भाव अभेद थवानी ईहा, परभावे नि:कामोजी ।।2।।
अर्थ 3 : भावसेवा के दो प्रकार है ः (1) अपवाद भावसेवा और (2) उत्सर्ग भावसेवा। इनमें से प्रथम अपवाद भावसेवा सात नय की अपेक्षा से सात प्रकार की है। वह यहाँ बताते है – (1) श्री अरिहन्त परमात्मा के गुणों का चिन्तनात्मक संकल्प करना, नैगमनय की अपेक्षा से भावसेवा है। संसाररसिक जीव का परिणाम अनादिकाल से बाह्य विषयादि में ही होता है। जब तक प्रभु के अपूर्व गुणों का स्वरूप उसकी समझ में नहीं आता तब तक अशुभ संकल्पों का निवारण नहीं होता। परन्तु पुण्योदय जागृत होने से जब जीव को प्रभु के गुणों का स्वरूप जानने-समझने को मिलता है तब वह विषयादिक के संकल्प-विकल्प को हटाकर प्रभु के गुणों का चिन्तन करता है। प्रभुगुण का संकल्प, साधक का अन्तरंग आत्म-परिणाम होने से वह भावसेवा है। (2) श्री अरिहंत परमात्मा की पूर्णरूप से प्रकट हुई आत्मसम्पति का चिन्तन कर, अपनी आत्मसत्ता भी शुद्ध संग्रहनय की दृष्टि से वैसी ही है, ऐसा विचार कर, दोनों की समानता की बारंबार भावना करना। तथा, अपनी शुद्ध सत्ता जो अब तक अप्रकट है, उसके लिए खेद-पश्चात्ताप करने के साथ प्रभु की प्रकट शुद्ध सत्ता के प्रति अपार बहुमान भाव विकसित करना। साथ ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से भी परमात्मा और स्व-आत्मा का भेद और सत्ता के साधर्म्य से अभेद का चिन्तन कर अपनी अप्रकट सत्ता को प्रकट करने की रुचि के साथ एकाग्र बनकर चिन्तन करना-यह संग्रहनय की अपेक्षा से भावसेवा है।
भावसेव अपवादे नैगम, प्रभु गुणने संकल्पेजी;
संग्रह सत्ता तुल्यारोपे, भेदाभेद विकल्पेजी ।।3।।
अर्थ 4 : (3) साधक जब भी अरिहन्त परमात्मा की केवलज्ञानादि गुण सम्पत्ति का और आठ प्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय तथा पैंतीस गुणयुक्त वाणी आदि उपकार-सम्पदा का सतत स्मरण करने के साथ प्रभु की प्रभुता, सर्वोत्तमता आदि का विचार करके प्रभुभक्ति में अपना भावोल्लास बढ़ाता है और उसके द्वारा प्रभु के गुणों में रमणता-तन्मयता प्राप्त करता है तब उसके क्षायोपशमिक ज्ञानादि गुणों की प्रवृत्ति प्रभु के गुणों का अनुसरण करनेवाली बनती है, यह व्यवहारनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है। (4) श्री अरिहन्त परमात्मा के गुणों का आलंबन लेकर स्व-आत्मा के अन्तरंग परिणामरूप क्षायोपशमिक रत्नत्रयी में तन्मय होना, अर्थात् आत्मस्वरूप के ध्यान में तन्मय बनना, यह ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है।
व्यवहारे बहुमान ज्ञान निज, चरणे जिन गुण रमणाजी;
प्रभु गुण आलंबी परिणामे, ऋजुपद ध्यान स्मरणाजी ।।4।।
अर्थ 5 : (5) श्री अरिहन्त परमात्मा के शुद्ध द्रव्य के आलम्बन द्वारा पृथक्त्व-वितर्क- सप्रविचाररूप शुक्लध्यान (प्रथम प्रकार) को ध्याना, शब्दनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है। (6) दसवें सूक्ष्मसम्पराय-गुणस्थानक को प्राप्त करना, समभिरुढनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है। (7) बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानक को (शुक्लध्यान के दूसरे प्रकार) अर्थात् निर्विकल्प- समाधि को प्राप्त करना, यह एवंभूतनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है।
शब्दे शुक्ल ध्यानारोहण, समभिरुढ गुण दशमेंजी;
बीय शुक्ल अविक्ल्प एकत्वे, एवंभूत ते अममेंजी ।।5।।
अर्थ 6 : अब उत्सर्ग भावसेवा के सात प्रकार बताते हैं – (1) जब तत्त्वनिर्धारणरूप क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तव पूर्ण प्रभुता का एक अंश प्रकट होता है। इससे आत्मा का कार्य एक अंश में सफल हुआ, ऐसा माना जा सकता है। यह नैगमनय से उत्सर्ग भावसेवा है। (3) सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् जब भाव-मुनिपद को प्राप्त कर आत्मसत्ता का भासन, रमण और उनमें तन्मयता होती है तब उपादान का स्मरण जागृत होने से आत्मा स्वसत्तावलंबी बनता है, यह संग्रहनय से उत्सर्ग भावसेवा है। (3) अप्रमत्त दशा प्राप्त होने पर जब आत्मा की ग्राहकता, व्यापकता, भोक्तृता, कर्तृता आदि सर्व शक्तियाँ आत्मस्वरूप में प्रवृत्त होती हैं जब अन्तरंग व्यवहार वस्तुस्वरूप की अपेक्षा से होता है। यह अवस्था व्यवहारनय से उत्सर्ग भाव सेवा है। इस मुनिपद का भाव अतिशय प्रशंसनीय है।
उत्सर्गें समकित गुण प्रकट्ये, नैगम प्रभुता अंशेजी;
संग्रह आतम सत्तालंबी, मुनि पद भाव प्रशंसेजी ।।6।।
अर्थ 7 : (4) क्षपकश्रेणी में जो आत्मशक्तियाँ प्रकट होती हैं, वे ऋजुसूत्रनय से उत्सर्ग भावसेवा है। (5) यथाख्यात क्षायिक चारित्र का प्रकटीकरण होने पर जो शुद्ध, अकषायी आत्मधर्म उल्लसित होता है, वह शब्द नय से उत्सर्ग भावसेवा है।
ऋजुसूत्रे जे श्रेणि पदस्थे, आत्मशक्ति प्रकाशेजी;
यथाख्यात पद शब्द स्वरूपे शुद्ध धर्म उल्लासेजी ।।7।।
अर्थ 8 : (6) सर्व घाति कर्मों का क्षय करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य को प्रकट करना अर्थात् तेरहवाँ सयोगी गुणस्थानक प्राप्त होना, यह समभिरुढनय की अपेक्षा से भावसेवा है। (7) शैलेशीकरण करके आत्मा अयोगी गुणस्थानक प्राप्त करता हैं, यह एवंभूतनय से उत्सर्ग भावसेवा है। इस प्रकार श्री अरिहन्त परमात्मा की सेवारूप साधना यह उपवाद भावसेवा है और उस साधना के द्वारा जो आत्मगुणों का प्रकटीकरण होता है वह उत्सर्ग भावसेवा है, क्योंकि अप्रकट आत्मगुणों को प्रकट करने में वह कारण भूत है।
भाव सयोगी अयोगी शैलेशे अंतिम दुग नय जाणोजी;
साधनता ए निज गुण व्यक्ति, तेह सेवना वखाणोजी ।।8।।
अर्थ 9 : प्रस्तुत विषय में कारणभाव अर्थात् अरिहन्त-सेवा आत्मसाधना का मुख्य कारण होने से उसे अपवाद भावसेवा कहा जाता है और श्री अरिहन्त की सेवा से जो स्वगुण निष्पति-उत्पत्तिरूप कार्य होता है वह उत्सर्ग भावसेवा है। इस प्रकार कारण-कार्यभाव का सम्बन्ध जानना चाहिए। उत्सर्ग अर्थात् पूर्ण निर्मल-निर्दोषभाव। उसका अर्थ यहाँ आत्मभाव लेन चाहिए। वन्दन-पूजनादि की बाह्य प्रवृत्ति, यह द्रव्यसेवा है।
कारण भाव तेह अपवादे, कार्यरूप उत्सर्गेजी;
आत्मभाव ते भाव द्रव्यपद, बाह्य प्रवृत्ति नि:सर्गेंजी ।।9।।
अर्थ 10 : श्री अरिहन्त परमात्मा की भावसेवारूप जो कारणभाव है उसकी सेवा करने से उत्सर्ग-आत्मस्वभावरूप कार्य प्रकट होता है। जब शुद्ध सिद्धतारूप कार्य पूर्ण सिद्ध होता है तब कारणता का व्यय (नाश) हो जाता है। उस समय केवल शुद्ध पारिणामिक भाव ही शेष रह जाता है जो आत्मा का मूलभूत स्वभाव है।
कारण भाव परंपर सेवन, प्रगटे कारज भावोजी;
कारज सिद्धे कारणता व्यय, शुचि पारिणामिक भावोजी ।।10।।
अर्थ 11 : परम गुणी श्री अरिहन्त परमात्मा की सेवामें तन्मय बनकर जो साधक आत्मा आत्म-स्वरूप का स्थिरतापूर्वक ध्यान करता है वह पूर्ण शुद्ध आत्मा के अनुभव का आस्वादन करके चंद्र समान निर्मल ऐसे अरिहन्त पद को प्राप्त करता है।
परम गुणी सेवन तन्मयता, निश्चय ध्याने ध्यावेजी;
शुद्धातम अनुभव आस्वादी, देवचंद्र पद पावेजी ।।11।।
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