|| श्री नमि जिनवर सेव LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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Sri Nemi Jinwar sevai स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री नमिनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan |
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|| श्री नमि जिनवर सेव ||
श्री नमि जिनवर सेव धनाधन ऊनम्यो रे, घ.
दीठां मिथ्यारोरव भविक चित्तथी गम्यो रे; भ.
शुचि आचरणा रीति ते अभ्र वधे वडा रे, ते.
आतम परिणति शुद्ध ते वीज झबुकडा रे ।।वी. 1।।
वाजे वायु सुवायु ते पावन भावना रे, पा.
इन्द्रधनुष त्रिक योग ते भक्ति एक मना रे; भ.
निर्मल प्रभु स्तव घोष ज्युं ध्वनि घनगर्जना रे, घ्व.
तृष्णा ग्रीष्म काल तापनी तर्जना रे ।।ता. 2।।
शुभ लेश्यानी आलि ते बग पंक्ति बनी रे, ब.
श्रेणि सरोवर हंस वसे शुचि गुण मुनि रे; व.
चौगति मारग बंध भविक निज घर रह्या रे, भ.
चेतना समता संग रंगमें उमह्या रे 2. ।।रं. 3।।
सम्यगद्रष्टि मोर तिहां हरखे घणुं रे, ति.
देखी अद्भुत रूप परम जिनवर तणुं रे; प.
प्रभु गुणनो उपदेश ते जलधारा वही रे, ज.
धर्मरुचि चित्तभूमि मांहि निश्चल रही रे ।।मां. 4।।
चातक श्रमण समूह करे तब पारणो रे, क.
अनुभव रस आस्वाद सकल दु:ख वारणो रे; स.
अशुभाचार निवारण तृण अंकुरता रे, तृ.
विरति तणा परिणाम ते बीजनी पूरता रे ।।ते. 5।।
पंच महाव्रत धान्य, तणां कर्षण वध्यां रे, त.
साध्यभाव निज थापी, साधनतायें सध्यां रे, सा.
क्षायिक दरिसण ज्ञान, चरण गुण उपना रे, च.
आदिक बहु गुण सस्य, आतम घर नीपना रे ।।आ. 6।।
प्रभु दरिसण महा मेह, तणे प्रवेशमें रे, त.
परमानंद सुभिक्ष, थयो मुझ देशमें रे, ध.
'देवचंद्र' जिनचंद्र, तणो अनुभव करो रे, त.
सादि अनंतो काल, आतम सुख अनुसरो रे ।।आ. 7।।
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अर्थ 1 : श्री नमि जिनेश्वर की सेवारूपी मेघ-घटा जब चढ़ आती है तब, उसे देखकर भवि जीवों के हृदय में से मिथ्यात्व-अविद्यारूप दुर्भिक्ष (दुष्काल) का भय भाग जाता है। तथा अविधि-आशातनादि दोषरहित और विधिपूर्वक की पवित्र आचरणारूप महा-मेघ वृद्धिगत होता है और आत्मपरिणति की शुद्धिरूप बिजली चमकने लगती है।
श्री नमि जिनवर सेव धनाधन ऊनम्यो रे, घ.
दीठां मिथ्यारोरव भविक चित्तथी गम्यो रे; भ.
शुचि आचरणा रीति ते अभ्र वधे वडा रे, ते.
आतम परिणति शुद्ध ते वीज झबुकडा रे ।।वी. 1।।
अर्थ 2 : वर्षो के समय अनुकूल हवा चलती है वैसे यहां जिनभक्ति में पवित्र भावनारूप वायु चलती है। वर्षाऋतु में तीन रेखायुक्त इन्द्र-धनुष्य होता है, वैसे यहां मन, वचन, काया के तीनो योगों की एकाग्रता होती है। वर्षा के दिनों में गर्जना की ध्वनि होती है, वैसे यहां प्रभुगुण-स्तवन की ध्वनि होती है। वर्षा से ग्रीष्मऋतु का ताप शान्त हो जाता है, वैसे यहां जिनभक्ति से तृष्णा का आन्तरिक ताप शान्त हो जाता है।
वाजे वायु सुवायु ते पावन भावना रे, पा.
इन्द्रधनुष त्रिक योग ते भक्ति एक मना रे; भ.
निर्मल प्रभु स्तव घोष ज्युं ध्वनि घनगर्जना रे, घ्व.
तृष्णा ग्रीष्म काल तापनी तर्जना रे ।।ता. 2।।
अर्थ 3 : जिनभक्तिरूप वर्षा बरसती है तब, शुभ-प्रशस्त लेश्यारूप बगुलों की पंक्ति बन जाती है। मुनिरूप हंस ध्यानारुढ होकर उपशम अथवा क्षपक श्रेणीरूप सरोवर में जाकर रहने लगते हैं। चार गतिरूप मार्ग बन्द हो जातै हैं, इससे भव्य आत्माएं अपने आत्ममन्दिर में रहती हैं और चेतन अपनी समता सखी के साथ रंग में आकर आनन्दपूर्वक रमण करता है।
शुभ लेश्यानी आलि ते बग पंक्ति बनी रे, ब.
श्रेणि सरोवर हंस वसे शुचि गुण मुनि रे; व.
चौगति मारग बंध भविक निज घर रह्या रे, भ.
चेतना समता संग रंगमें उमह्या रे 2. ।।रं. 3।।
अर्थ 4 : जिनभक्तिरूपी वर्षा के समय में, जिनेश्वर प्रभु का अद्भुत अनुपम रूप देखकर सम्यग्दृष्टिरूप मोर अत्यन्त हर्षित बन जाता है। जिनगुण-स्तुतिरूप मेघ की जलधारा प्रवाहित होने लगती है और तत्त्वरुचि जीवों की चित-भूमि में स्थिर हो जाती है।
सम्यगद्रष्टि मोर तिहां हरखे घणुं रे, ति.
देखी अद्भुत रूप परम जिनवर तणुं रे; प.
प्रभु गुणनो उपदेश ते जलधारा वही रे, ज.
धर्मरुचि चित्तभूमि मांहि निश्चल रही रे ।।मां. 4।।
अर्थ 5 : जब जिनभक्तिरुप जलधारा प्रवाहित होती है तब, तत्त्वरम करनेवाले श्रमण समूहरूप चातक पारणा करते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के समय जो तत्त्वरूप में अपने अनुभव की पिपासा पैदा हुई थी वह पिपासा जिनभक्ति के योग से आत्मस्वरूप के यथार्थ ज्ञानरूपी अनुभवरस का आस्वादन करके कुछ शान्त हो जाती है। सचमुच ! तत्त्व-पिपासा के शमनरूप यह पारणा सर्व सांसरिक विभावरूप दुःख का वारण-निवारण करता है। जैसे वर्षाकाल में हरा घास उगता है वैसे यहां अशुभ आचार के निवारणरूप तृण-अंकुप फूटते हैं। जैसे, वर्षाकाल में किसान जमीन में बीज बोता है वैसे यहां सम्यग्दृष्टि जीव में विरति के परिणामरुप बीज की पूर्ति-बौनी होती है।
चातक श्रमण समूह करे तब पारणो रे, क.
अनुभव रस आस्वाद सकल दु:ख वारणो रे; स.
अशुभाचार निवारण तृण अंकुरता रे, तृ.
विरति तणा परिणाम ते बीजनी पूरता रे ।।ते. 5।।
अर्थ 6 : वर्षाकाल में बोये गये बीज जैसे ऊग कर बढ़ते हैं, वैसे यहां जिनभक्तिरूप जलधारा के प्रभाव से पांच महाव्रतरूपी धान्य के अंकुर बढ़ने लगते हैं और वे शुद्धात्म स्वरूप की पूर्णतारूप साध्य को सिद्ध करने के साधन बन जाते हैं। उससे क्षायिक स्म्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रादि अनन्त गुणरूपी धान्य आत्म-मंदिर में प्रकट होता है।
पंच महाव्रत धान्य, तणां कर्षण वध्यां रे, त.
साध्यभाव निज थापी, साधनतायें सध्यां रे, सा.
क्षायिक दरिसण ज्ञान, चरण गुण उपना रे, च.
आदिक बहु गुण सस्य, आतम घर नीपना रे ।।आ. 6।।
अर्थ 7 : जिनदर्शनरूप महामेघ के आगमन से असंख्यात प्रदेशरूप मेरी आत्मा के देश में परमानन्दरूप सुभिक्ष-सुकाल हुआ है। अतः हे भव्य आत्माओं ! तुम सब देवों में चन्द्र समान उज्जवल ऐसे श्री जिनेश्वर प्रभु के ज्ञानादि गुणों का आदर-बहुमानपूर्वक अनुभव करो। उस अनुभवज्ञान के प्रभाव से तुम सादि-अनन्तकाल तक आत्मा के अक्षय, अनन्त, अव्याबाध सुख का अनुभव कर सकोगे।
प्रभु दरिसण महा मेह, तणे प्रवेशमें रे, त.
परमानंद सुभिक्ष, थयो मुझ देशमें रे, ध.
'देवचंद्र' जिनचंद्र, तणो अनुभव करो रे, त.
सादि अनंतो काल, आतम सुख अनुसरो रे ।।आ. 7।।
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