|| कुंथु जिनेसरू Samvosaran besi Kunthu LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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Kunthunath Jinesaru Samvosaran besi स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री कुंथुनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan |
Kunthunath Jinesaru Samvosaran besi कुंथु जिनेसरू |
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|| कुंथु जिनेसरू ||
समवसरण बेसी करी रे, बारह पर्षद मांहे;
वस्तु स्वरूप प्रकाशता रे, करुणाकर जगनाहो रे।।
कुंथु जिनेसरू।। ।।1।।
निरमल तुज मुख वाणी रे;
जे श्रवणे सुणे, तेहिज गुण मणि खाणी रे ।।कुंथु 2।।
गुण पर्याय अनंतता रे, वली स्वभाव अगाह;
नय गम भंग निक्षेपना रे, हेया देय प्रवाहो रे ।।कुंथु 3।।
कुंथुनाथप्रभु देशना रे, साधन साधक सिद्ध;
गौण मुख्यता वचनमां रे, ज्ञान ते सकल समृद्धो रे ।।कुंथु 4।।
वस्तु अनंत स्वभाव छे रे, अनंत कथक तसु नाम;
ग्राहक अवसर बोधथी रे, कहवे अर्पित कामो रे ।।कुंथु 5।।
शेष अनर्पित धर्मने रे, सापेक्ष श्रद्धा बोध;
उभय रहित भासन होवे रे, प्रगटे केवल बोधो रे ।।कुंथु 6।।
छति परिणति गुण वर्तना रे, भासन भोग आनंद;
सम काले प्रभु ताहरे रे, रम्य रमण गुणवृंदो रे ।।कुंथु 7।।
निज भावे सिय अस्तिता रे, पर नास्तित्व स्वभाव;
अस्तिपणे ते नास्तिता रे, सीय ते उभय स्वभावो रे ।।कुंथु 8।।
अस्ति स्वभाव जे आपणो रे, रूचि वैराग्य समेत;
प्रभु सन्मुख वंदन करी रे, मागीश आतम हेतो रे ।।कुंथु 9।।
अस्ति स्वभाव रुचि थयी रे, ध्यातो अस्ति स्वभाव;
देवचंद्र पद ते लहे रे, परमानंद जमावो रे ।।कुंथु 10।।
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अर्थ 1-2 : करूणा के भण्डार, जगत् के नाथ श्री कंथुनाथ भगवान् समवसरण में विराजमान होकर बारह प्रकार की पर्षदा के समक्ष वस्तु-स्वरूप जीवाजीवादि तत्त्वों के मूल स्वरूप को प्रकाशित करते हैं। हे प्रभो ! आपके मुख की निर्मलवाणी जो अपने कानों से सुनते हैं, वे धन्य है क्योंकि वे लोग सफल गुणरत्नों की खान बनते हैं-सर्वगुणसम्पन्न बनते हैं।
समवसरण बेसी करी रे, बारह पर्षद मांहे;
वस्तु स्वरूप प्रकाशता रे, करुणाकर जगनाहो रे।।
कुंथु जिनेसरू।। ।।1।।
निरमल तुज मुख वाणी रे;
जे श्रवणे सुणे, तेहिज गुण मणि खाणी रे ।।कुंथु 2।।
अर्थ 3 : जिनवाणी से मोक्षमार्ग का संपूर्ण प्रकाश जगत् में फैलता है क्योंकि जिनेश्वर देव सब पदार्थों के, सर्व पर्यायों को केवलज्ञान द्वारा जानकर जीवों के हित के लिए उपदेश देते हैं। उनकी देशना में प्रकाशित मुख्य मुद्दे इस प्रकार हैं – (1) वस्तु में रहे हुए गुणपर्याय एवं स्वभाव की अनंतना के स्वरूप का वर्णन। (2) नय (3) गम (4) भंग (5) निक्षेप के स्वरूप का वर्णन। तथा. (6) नयादि के अगाध स्वरूप का हेय (त्याग करने योग्य), उपादेय (ग्रहण करने योग्य) के विभाग के रूप में प्रतिपादन।
गुण पर्याय अनंतता रे, वली स्वभाव अगाह;
नय गम भंग निक्षेपना रे, हेया देय प्रवाहो रे ।।कुंथु 3।।
अर्थ 4 : श्री कुंथुनाथ प्रभु की देशना में – (1) मोक्ष के सब साधनों का (मोक्ष के मुख्य साधन जिनदर्शन, पूजन, मुनिवंदन, अनुकम्पा से लेकर शुक्लध्यानपर्यंत की भूमिका तय है।) (2) मोक्ष के सर्व साधकों का (मार्गनुसारी से लेकर क्षीणमोह और अयोगी-केवली तक के मोक्षसाधकों का क्रम इस प्रकार है – मार्गानुसारी सम्यक्त्व को ध्येय में रखकर साधना करता है, सम्यग्दृष्टि देशविरति को, देशविरति सर्वविरति को, सर्वविरति शुक्लध्यानी को, शुक्लध्यानी क्षायिकज्ञानादि को और क्षायिक-गुणी सिद्ध-अवस्था को ध्येय में रखकर साधना करता है।) और, (3) मोक्ष को प्राप्त सिद्ध भगवन्तो के स्वरूप का वर्णन होता है। जिनवचन में गौणता और मुख्यता होती है। प्रभु का केवलज्ञान तो समग्र ज्ञेय को जानने में समर्थ है अतः उसमें गौणता या मुख्यता का विचार नहीं है परंतु वचन क्रमबद्ध होने के कारण प्रस्तुत में उपयोगी विवक्षित-धर्म को मुख्यरूप से और शेष अविवक्षित धर्मों को गौण रूप से कहा जाता है।
कुंथुनाथप्रभु देशना रे, साधन साधक सिद्ध;
गौण मुख्यता वचनमां रे, ज्ञान ते सकल समृद्धो रे ।।कुंथु 4।।
अर्थ 5 : जीवादि सब पदार्थ अनन्त धर्म (स्वभाव) युक्त होते हैं अतः उन पदार्थो के जीव-आदि ना भी उसमें रहे हुए अनंत धर्मों को बताते हैं। (जीव – इस शब्दोच्चार मात्र से भी उसके अनन्त धर्मों का कथन हो जाता है।) तथापि, केवलज्ञानी भगवंत अवसर देखकर श्रोता के बोध (जानने की योग्यता) के अनुसार अर्पित-वचन कहते हैं अर्थात् प्रयोजनवश विवक्षित वचन कहते हैं। (वस्तु में रहे हुए अनेक धर्मों में से जिस धर्म को कहने का प्रयोजन हो उस समय उस धर्म को विवक्षितकर ग्रहण करना या कहना – यह अर्पित कहा जाता है। प्रयोजन के अभाव में जिसकी विवक्षा नहीं है – वह अनर्पित कहा जाता है।)
वस्तु अनंत स्वभाव छे रे, अनंत कथक तसु नाम;
ग्राहक अवसर बोधथी रे, कहवे अर्पित कामो रे ।।कुंथु 5।।
अर्थ 6 : छद्मस्थ जीवों को शेष अनर्पित धर्मों (विवक्षित धर्म से शेष रहे धर्मों) की सापेक्षरूप से श्रद्धा रखनी चाहिए और सापेक्षरूप से ज्ञान करना चाहिए। जब केवल ज्ञान प्रकट होता है तब अर्पित और अनर्पित-उभय रहित बोध होता है क्योंकि केवलज्ञान सब धर्मों को समकाल में जान लेता हैं।
शेष अनर्पित धर्मने रे, सापेक्ष श्रद्धा बोध;
उभय रहित भासन होवे रे, प्रगटे केवल बोधो रे ।।कुंथु 6।।
अर्थ 7 : परमात्मा प्रभु की प्रभुता का तात्त्विक स्वरूप जैसे जैसे जिनवाणी द्वारा सुनने-समझने को मिलता है वैसे वैसे भव्य जीवों के हृदय अपूर्व आनंद, आश्चर्य और हर्ष से नाच उठते हैं। हे प्रभो ! आप में एक ही समय में अनन्त गुण पर्याय की छति (सत्ता) परिणति और वर्तना तथा उसके ज्ञान, भोग और आनन्द रहे हुए हैं। इसी तरह रम्य शुद्ध स्वरूप में रमण करनेवाले आप अनन्त गुण के समूह हैं।
छति परिणति गुण वर्तना रे, भासन भोग आनंद;
सम काले प्रभु ताहरे रे, रम्य रमण गुणवृंदो रे ।।कुंथु 7।।
अर्थ 8 : स्व-स्वभाव (स्व-पर्याय की परिणति) की अपेक्षा से आत्मादि द्रव्य में स्यात् अस्तिता रही हुई है और पर-स्वभाव की अपेक्षा से स्यात् नास्तिता रही हुई है, वह पर-नास्तिता भी सत्रूप है। इसी तरह स्यात् अवक्तव्य (सीय उभय) स्वभाव भी रहा हुआ है। उपलक्षण से शेष भंग भी समझ लेने चाहिए।
निज भावे सिय अस्तिता रे, पर नास्तित्व स्वभाव;
अस्तिपणे ते नास्तिता रे, सीय ते उभय स्वभावो रे ।।कुंथु 8।।
अर्थ 9 : मेरा जो सच्चिादानन्द अस्ति-स्वभाव है, वह अभी सत्तागत है, उसे प्रकट करने के लिए मैं वैराग्यसहित तीव्र रुचि (इच्छा) रखता हूँ और प्रभु के समक्ष बन्दन-नमन करके याचना करता हूँ कि, हे प्रभो ! आत्मा के लिए हितकारी ऐसा मेरा अस्ति-स्वभाव प्रकट करो।
अस्ति स्वभाव जे आपणो रे, रूचि वैराग्य समेत;
प्रभु सन्मुख वंदन करी रे, मागीश आतम हेतो रे ।।कुंथु 9।।
अर्थ 10 : आत्मसत्तागत अनन्त ज्ञानादि स्वभाव की रुचि-अभिलाषा जागृत होने से उसी अस्ति-स्वभाव की अनन्तता का ध्यान करता हुआ साधक परमानन्द स्वरूप देवों में चन्द्र समान उज्वल परमात्म-पद को प्राप्त करता है।
अस्ति स्वभाव रुचि थयी रे, ध्यातो अस्ति स्वभाव;
देवचंद्र पद ते लहे रे, परमानंद जमावो रे ।।कुंथु 10।।
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