|| Vasupujya Pujana toh kiye barma jintani Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे स्तवन सांग
जैन स्तवन
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|| Vasupujya Pujana toh kije re ||
पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव,
पर कृत पूजा रे जे ईच्छे नहि रे, साधक कारज दाव ।।पूजना 1।।
द्रव्यथी पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध;
परम ईष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयंबुद्ध ।।पूजना 2।।
अतिशय महिमा रे अति उपगारता रे, निरमल प्रभु गुणराग;
सुरमणि सुरघट सुरतरुतुच्छ ते रे, जिनरागी महाभाग ।।पूजना 3।।
दर्शन ज्ञानादिक गुण आत्मना रे, प्रभु प्रभुता लयलीन;
शुद्ध स्वरूपी रूपे तन्मयी रे, तसु आस्वादनपीन ।।पूजना 4।।
शुद्ध तत्त्वरंगी चेतना रे, पामे आत्म स्वभाव;
आत्मालंबी निज गुण साधतो रे, प्रगटयो पूज्य स्वभाव ।।पूजना 5।।
आप अकर्त्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि;
निज धन न दीये पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि ।।पूजना 6।।
जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति;
परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति ।।पूजना 7।।
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अर्थ 1 : जिनका पूज्य पूर्ण शुद्ध स्वभाव प्रकट हो चूका है और जो परकृत-अन्य से पूजा करवाने के अभिलाषी नहीं हैं तथापि साधक की सिद्धता में परम साधन हैं, ऐसे श्री वासुपूज्य स्वामी भगवान् की पूजा मुमुक्षु आत्माओं को अवश्य करनी चाहिए।
पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव,
पर कृत पूजा रे जे ईच्छे नहि रे, साधक कारज दाव ।।पूजना 1।।
अर्थ 2 : प्रभु पूजा के मुख्य दो प्रकार है : (1) द्रव्यपूजा और (2) भावपूजा। द्रव्यपूजा यानी जल, स्नान, विलेपन आदि द्वारा होने वाली पूजा। वह भावपूजा का कारण है और मन-वचन-काया को स्थिर बनाती है। भावपूजा भी दो प्रकार की है ः (1) प्रशस्त भावपूजा और (2) शुद्धभाव पूजा। गुणी पर के राग को प्रशस्त भावपूजा कहतें हैं। तीन भुवन के स्वामी भगवान ही मुझे परम इष्ट हैं, वल्लभ हैं, वी ही प्रिय लगते हैं। यह प्रशस्त रागरूप भावपूजा है।
द्रव्यथी पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध;
परम ईष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयंबुद्ध ।।पूजना 2।।
अर्थ 3 : प्रभु के अष्ट प्रातिहार्य और चौतीस अतिशयों की महिमा सुनकर अति आश्चर्य पैदा होता है। शुद्ध-धर्म की देशना द्वारा सब जीवों के मोहान्धकार को दूर कर, सर्व सन्देहों को टालकर आत्मधर्म की पहचान करानेवाले अरिहन्त प्रभु की अनन्त उपकारिता और निर्मल केवलज्ञानादि गुणों घर जो अनुराग-अहोभाव उत्पन्न होता है वह भी प्रशस्त भावपूजा है। महापुण्यशाली जिनेश्वर के भक्तों (रागियों) को प्रभुभक्ति के सामने सुरमणि (चिंतामणि), सुरघट (कामकुम्भ) सुरतरु (कल्पवृक्ष) भी तुच्छ (निस्सार) लगते हैं। आगे की दो गाथाओं में शुद्ध भावपूजा का स्वरूप बताते हैं।
अतिशय महिमा रे अति उपगारता रे, निरमल प्रभु गुणराग;
सुरमणि सुरघट सुरतरुतुच्छ ते रे, जिनरागी महाभाग ।।पूजना 3।।
अर्थ 4 : अपने क्षयोपशमभाव से प्रकटित सम्यग्दर्शन और ज्ञानादि गुणों को परमात्मा-प्रभु की परम प्रभुता में लयलीन बनाने के लिए शुद्ध स्वरूपी परमात्मा के स्वरूप में तन्मय होकर अनुभव-अमृत के आस्वाद से आत्मा को पुष्ट बनाना शुद्ध भावपूजा है।
दर्शन ज्ञानादिक गुण आत्मना रे, प्रभु प्रभुता लयलीन;
शुद्ध स्वरूपी रूपे तन्मयी रे, तसु आस्वादनपीन ।।पूजना 4।।
अर्थ 5 : शुद्धतत्त्वी श्री अरिहन्त परमात्मा और सिद्ध भगवन्त के ध्यान-सुधारस के रंग से जब चेतना रँगती है तब वह आत्म-स्वभाव को पाती है। इस प्रकार प्रभु के आलम्बन से स्वरूपालम्बी बना हुआ आत्मा आत्मगुणों को साधता हुआ क्रमशः अपने पूज्य-स्वभाव को प्रकट करता है।
शुद्ध तत्त्वरंगी चेतना रे, पामे आत्म स्वभाव;
आत्मालंबी निज गुण साधतो रे, प्रगटयो पूज्य स्वभाव ।।पूजना 5।।
अर्थ 6 : हे परमात्मन् ! आप अन्य जीवों के मोक्ष के कर्त्ता नहीं है। फिर भी आपकी सेवा से सेवक पूर्ण सिद्धता प्राप्त करता है। आप अपना ज्ञानादि धन किसी को नहीं देते हैं तो भी आपका आश्रित भक्त कभी नष्ट न होनेवाली अक्षय अक्षर आत्म-समृद्धि को प्राप्त करता है।
आप अकर्त्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि;
निज धन न दीये पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि ।।पूजना 6।।
अर्थ 7 : सचमुच ! परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर जिनेश्वर परमात्मा की पूजा स्व-आत्मा की ही पूजा है। क्योंकि जैसे जैसे साधक प्रभुपूजा में तन्मय बनता है वैसे उसकी अन्वय शक्ति-सहज (स्वाभाविक) अनन्त आत्मशक्ति प्रकट होती है। आत्मा परमान्द का विलासी बनकर देवों में चन्द्र समान निर्मल सिद्ध-पद को प्रकट करके उसका साक्षात् अनुभव करता है।
जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति;
परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति ।।पूजना 7।।
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