कयुं जाणुं कयुं बनी कयुं जाणुं कयुं बनी स्तवन सांग
जैन स्तवन
Kyu jaanu kyu bani aavse abhinandan Lyrics Devchandraji stavan कयुं जाणुं कयुं बनी |
अर्थ 1 : हे मित्र ! कौन जानता है कि श्री अभिनन्दन प्रभु के साथ रसभरी
प्रीति, भक्ति, एकता, मिलनरूप तन्मयता किस प्रकार हो सकती है? साधक
जब अन्तरात्मा के साथ एसी बात करता है तब उसे स्वयं स्फुरणा होती हैकि
पुद्गल के वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शादि के भोंगों का त्याग करने से प्रभु के साथ
रसीली प्रीति का अनुभव हो सकता है।
कयुं जाणुं कयुं बनी आवशे, अभिनंदन रस रीत हो मित्त;
पुद्गल अनुभव त्यागथी, करवी जसु परतीत हो मित्त ।।कयुं 1।।
अर्थ 2 : श्री अभिनन्दन प्रभु तो कर्मरहित होने से परमात्मा हैं, सम्पूर्ण रूप से
स्वाधीन होने से परमेश्वर हैं, स्वभाव वस्तुतः से अलिप्त हैं। निश्चय नय से कोई
भी द्रव्य अन्य के साथ नहीं मिलता तथा अन्य का भाव भी अन्य में
व्याप्त नहीं हो सकता। अतः प्रभु द्रव्य से दूसरे द्रव्य के साथ अलिप्त हैं और
भाव से भी प्रभु अन्य द्रव्य से अव्याप्त हैं।
परमातम परमेश्वरु, वस्तुगते ते अलिप्त हो मित्त;
द्रव्ये द्रव्य मिले नहीं, भावे ते अन्य अव्याप्त हो मित्त ।।कयुं 2।।
अर्थ 3 : हे मित्र ! प्रभु तो शुद्ध स्वरूपी हैं, सनातन हैं, निर्मल (कर्ममलरहित)
हैं और निःसंग (संगरहित) हैं । साथ ही प्रभु आत्म-विभूति से सम्पन्न होने सेवे
कदापि पर का संग नहीं करते । तो एसे प्रभु से किस प्रकार मिला जा सकता
है? किस प्रकार उनमें तन्म्य हुआ जा सकता है?
शुद्ध स्वरूप सनातनो निर्मल जे नि:संग हो मित्त,
आत्म विभूतें परिणम्यो, न करे ते पर संग हो मित्त ।।कयुं 3।।
अर्थ 4 : प्रभु ज्ञानादि स्व-सम्पत्ति और अपने शुद्ध-स्वरूप के नाथ हैं,
इसीलिए वे किसी के साथ नहीं मिलते हैं परन्तु उनके साथ मिलने (तन्मय
होने) का उपाय आगम से (शास्त्राभ्यास से) इस प्रकार ज्ञात हुआ है।
पण जाणुं आगम बळे, मिलवुं तुम प्रभु साथहो मित्त;
प्रभु तो स्वसंपत्तिमयी, शुद्ध स्वरूपनो नाथहो मित्त ।।कयुं 4।।
अर्थ 5 : हे जीव ! पुद्गल के योग से तू जो पर पदीर्थो में परिणमन करता है,
वह दोष है। हे मित्र ! इन पुद्गलों का भोग तेरे लिअे उचित नहीं है। ये जड़
पदार्थ तो चंचल और नाशवान् हैं और सब जीवों ने उनका अनेक बार
उपभोग किया है। अतः वे जगत की झूठन हैं। इस प्रकार सर्वप्रथम आत्मा
को वैराग्य से भावित करना चाहिए।
पर परिणामिक्ता अछे, जे तुज पुद्गल योग हो मित्त;
जड चल जगनी एंठनो, न घटे तुजने भोग हो मित्त ।।कयुं 5।।
अर्थ 6 : पर-भौतिक पदार्थ अशुद्ध होने से उनका त्याग करके आत्मा में ही
रमण करने वाले-स्वगुणावलंबी और सर्व साधकों के ध्येय (आराध्य) रूप
शुद्ध-निमित्ती श्री अरिहन्त परमात्मा का आलम्बन लेना चाहिए।
शुद्ध निमित्ती प्रभु ग्रहो, करी अशुद्ध पर हेय हो मित्त;
आत्मालंबी गुणलयी, सहु साधकनो ध्येय हो मित्त ।।कयुं 6।।
अर्थ 7 : उक्त रीति से अभ्यास करते हुए जिनेश्वर परमात्मा के आलम्बन में
जैसे साधक की एकाग्रता बढ़ती जाती है, वैसे वैसे प्रभु के साथ साधक की
तन्मयता सिद्ध होती जाती है और उसके द्वारा साधक स्वरूपालंबी बन कर
स्वरूप-प्राप्ति के मूल-कारण सम्यगदर्शनादि गुणों को प्राप्त करता है।
अर्थात् वह साधक आत्मस्मरण, आत्मचिन्तन और आत्मध्यान में लीन बनता
हैं।
जिम जिनवर आलंबने, वधे सधे एक तान हो मित्त;
तिम तिम आत्मालंबनी, ग्रहे स्वरूप निदान हो मित्त ।।कयुं 7।।
अर्थ 8 : इस प्रकार आत्मा क्षयोपशमभाव से प्रकट हुए स्व-स्वरूप
(सम्यग्दर्शनादि गुणों) में तन्मय बनकर रमणता करता है तब उसकी आत्मा
का पूर्णानन्द स्वरूप प्रकट होता है और बाद मैं वह आत्मा सदाकाल
रत्नत्रयीरूप सम्यग्दर्शनादि गुणों में रमणता करता है और उन्हीं गुणों का
भोग करता है अर्थात् वह आत्मा उन गुणों का ही भोक्ता बनता है।
स्वस्वरूप एकत्वता, साधे पूर्णानंद हो मित्त;
रमे भोगवे आतमा, रत्नत्रयी गुणवृंद हो मित्त ।।कयुं 8।।
अर्थ 9 : इस प्रकार अभिनन्दन प्रभु के अवलम्बन से आत्मा को
परमानन्दमय समाधि प्राप्त होती है। अतः देवों में चन्द्र समान ऐसे
अभिनन्दन परमात्मा की अनुभव के अभ्यासपूर्वक सेवा करनी चाहिए।
अभिनंदन अवलंबने, परमानंद विलास हो मित्त;
देवचंद्र प्रभु सेवना, करी अनुभव अभ्यास हो मित्त ।।कयुं 9।।
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