|| श्री मुनिसुव्रतस्वामीनी रे, जेहथी निजपद सिद्धि LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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Munisuvratswami jehti Nijpad Siddhi स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री मुनिसुव्रत भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan |
Sri Munisuvratswami jehti Nijpad Siddhi Olagadi toh kije Devchandraji chovisi श्री मुनिसुव्रत |
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|| श्री मुनिसुव्रत जेहथी निजपद
सिद्धि||
ओलगडी, तो कीजे श्री मुनिसुव्रतस्वामीनी रे, जेहथी निजपद सिद्धि;
केवल ज्ञानादिक गुण उल्लसे रे, लहिये सहज समृद्धि ।।1।।
उपादान उपादान निज परिणति वस्तुनी रे, पण कारण निमित्त आधीन;
पुष्ट अपुष्ट दुविध ते उपदिश्यो रे, ग्राहक विधि आधीन ।।2।।
साध्य असाध्य धर्म जे मांही हुवे रे, ते निमित्त अति पुष्ट;
पुष्पमांहि तिलवासक वासना रे, ते नहि प्रध्वंसक दुष्ट ।।3।।
दंड-दंड निमित्त अपुष्ट घडा तणो रे, नवि घटता तसु मांहि;
साधक साधक प्रध्वंसकता अछे रे, तिणे नहि नियत प्रवाह ।।4।।
षट्कारक षट्कार ते कारण कार्यनो रे, जे कारण स्वाधीन;
ते कर्त्ता ते कर्त्ता सहु कारक ते वसु रे, कर्म ते कारण पीन ।।5।।
कार्य कार्य संकल्पे कारकदशा रे, छती सत्ता सद्भाव;
अथवा तुल्य धर्मने जोयवे रे, साध्यारोपण दाव ।।6।।
अतिशय अतिशय कारण कारक करण ते रे, निमित्त अने उपादान;
संप्रदान संप्रदान कारण पद भवनथी रे, कारण व्यय अपादान ।।7।।
भवन भवन व्यय विण कारज नवि होवे रे, जिम द्रषदे न घटत्व;
शुद्धाधार शुद्धाधार स्वगुणनो द्रव्य छे रे, सत्ताधार सुतत्त्व ।।8।।
आतम आतम कर्त्ता कार्य सिद्धता रे, तसु साधन जिनराज;
प्रभु दीठे प्रभु दीठे कारज रुचि उपजेरे, प्रगटे आत्म साम्राज ।।9।।
वंदन वंदन नमन सेवन वली पूजना रे, समरण स्तवन वली ध्यान;
देवचंद्र देवचंद्र कीजे जिनराजनो रे, प्रगटे पूर्ण निधान ।।10।।
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अर्थ 1 : श्री मुनिसुव्रत भगवान् की ओलगडी-सेवा अर्थात् गुणगान अवश्य करना चाहिए जिससे आत्मा का परमानन्द पर सिद्ध हो। केवलज्ञानादि गुण प्रकट हो और सहज आत्म-सम्पत्ति प्राप्त हो।
ओलगडी, तो कीजे श्री मुनिसुव्रतस्वामीनी रे, जेहथी निजपद सिद्धि;
केवल ज्ञानादिक गुण उल्लसे रे, लहिये सहज समृद्धि ।।1।।
अर्थ 2 : उपादान वस्तु की निज-परिणति अर्थात् वस्तु का मूल धर्म है परन्तु वह निमित्त-कारण के आधीन है अर्थात् निमित्त योग से उपादान शक्ति जागृत होती है। उस निमित्त-कारण के पुष्ट-निमित्त और अपुष्ट-निमित्त ऐसे हो भेद आगम में बताये गयें हैं। वह निमित्त कर्ता की विधिपूर्वक की गई क्रिया के आधीन है अर्थात् कर्ता यदि निमित्त का विधिपूर्वक कार्य करने में उपयोग ककरे तो निमित्त कार्यकर बनता है, इसके बिना निमित्त कार्य नहीं कर सकता।
उपादान उपादान निज परिणति वस्तुनी रे, पण कारण निमित्त आधीन;
पुष्ट अपुष्ट दुविध ते उपदिश्यो रे, ग्राहक विधि आधीन ।।2।।
अर्थ 3 : जिस कारण में साध्य-धर्म (कार्यधर्म) विद्यमान हो, उसे पुष्ट-निमित्त कारण कहा जाता है। जैसे कि, फूल में तेल को वासित बनाने रूप कार्य-धर्म वासना (सुगंध) विद्यमान है परन्तु तेल की वासना की ध्वंस करने की दुष्टता नहीं हैं अर्थात् पुष्प तेल को अधिक सुगंधित बनाने का पुष्ट-कारण है। इसी तरह श्री अरिहन्त परमात्मा मोक्षरूप कार्य में पुष्ट-निमित्तकारण हैं अतः मोक्ष की अभिलाषा से जो विधिपूर्वक उनकी सेवा करता है, वह अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है।
साध्य असाध्य धर्म जे मांही हुवे रे, ते निमित्त अति पुष्ट;
पुष्पमांहि तिलवासक वासना रे, ते नहि प्रध्वंसक दुष्ट ।।3।।
अर्थ 4 : जिस कारण में साध्य-धर्म विद्यमान न हो वह अपुष्ट-निमित्तकारण कहा जाता है। जैसे, दण्ड घटरूप कार्य में अपुष्ट-निमित्तकारण है क्योंकि, दण्ड में घटत्व विद्यमान नहीं है। कर्ता की इच्छा के अनुसार दण्ड घट की उत्पत्ति में जैसे कारणभूत है वेसे वही दण्ड घट के ध्वंस में भी कारणभूत बनता है, उपका कोई एक निश्चित प्रवाह नहीं है।
दंड-दंड निमित्त अपुष्ट घडा तणो रे, नवि घटता तसु मांहि;
साधक साधक प्रध्वंसकता अछे रे, तिणे नहि नियत प्रवाह ।।4।।
अर्थ 5 : कर्ता आदि छहों कारक प्रत्येक कार्य की उत्पत्ति में कारण हैं। जहां कर्ता क्रिया करता है वहां सहजरूप से षट्कारक की उपस्थिति अवश्य होती है। (1) कार्य करने में जो स्वाधीन कारण हो और शेष सब कारक भी जिसके आधीन हो वह कर्ता कारक कहा जाता है। (2) जो कारण द्वारा पुष्ट होता है और जो करने से होता है वह कार्य (कर्म) कारक कहा जाता है।
षट्कारक षट्कार ते कारण कार्यनो रे, जे कारण स्वाधीन;
ते कर्त्ता ते कर्त्ता सहु कारक ते वसु रे, कर्म ते कारण पीन ।।5।।
अर्थ 6 : प्रश्न : द्वितीय कर्म कारक को कारण कैसे कहा जा सकता है? यह तो स्वयं कार्यरूप है। उत्तर :- कर्ता सबसे पहले कार्य करने का संकल्प करता है। उदाहरण के लिए कर्ता ‘मुझे घट बनाना है’ ऐसा बुद्धि संकल्प करके कार्य प्रारंभ करता है अत एव संकल्प कार्य का कारण है। अथवा मूल उपादानकारण (मिट्टी) में (घटरूप) कार्य की योग्यता सत्ता में रही हुई है। अर्थात् सत्तागत कार्यत्त्व प्राग्भावी काय4 का कारण है। अथवा, तुल्य-समान धर्म देखने से कार्य करने का संकल्प होता है। जैसे कि श्री जिनेश्वर प्रभु को देखकर भव्यात्माओं को विचार होता है कि, ‘मुझे ऐसा पूर्णानन्द स्वरूप प्राप्त करना है।’ इस प्रकार कार्य को भी कारण कहा जा सकता है। इन युक्तियों से विचार करने पर जाना जा सकता है कि, साध्य का आरोपण करना यग कर्म में कारकपना है।
कार्य कार्य संकल्पे कारकदशा रे, छती सत्ता सद्भाव;
अथवा तुल्य धर्मने जोयवे रे, साध्यारोपण दाव ।।6।।
अर्थ 7 : (3) उत्कृष्ट-प्रधानलकारण करण कारक है और वह निमित्त और उपादान के भेद से दो प्रकार का है। जैसे, मोक्षकार्य में उपादान आत्म-सत्ता है और निमित्त प्रभु-सेवा है। (4) कारण-पद (पर्याय) का (उत्पन्न होना) अर्थात् उपादानकारण अथवा कार्य में अपूर्व-अपूर्व कारण-पर्याय की उत्पत्ति-प्राप्ति होना सम्प्रदान कारक है। (5) पूर्व (पुरातन) कारण-पर्याय का व्यय-विनाश होना, यह अपादान कारक है। सम्प्रदान और अपादान में कारणता किस प्रकार है? यह आगे की गाथा मे बताते हैं।
अतिशय अतिशय कारण कारक करण ते रे, निमित्त अने उपादान;
संप्रदान संप्रदान कारण पद भवनथी रे, कारण व्यय अपादान ।।7।।
अर्थ 8 : भवन अर्थात् नवीन पर्याय की उत्पत्ति और व्यय अर्थात् पूर्व पर्याय का नाश। यह हुए बिना कार्य की निष्पत्ति नहीं होती। जैसे कि दुषद् पत्थर में घटपर्याय की उत्पत्ति की योग्यता नहीं है इसलिए कुम्हार घट बनाने का प्रयत्न करे तोभी पत्थर से घट नहीं बन सकता। मिट्टी में भवन-व्यय की क्रिया होती है जैसे कि पिण्ड पर्याय का नाश और स्थास (थाली) पर्याय की उत्पत्तिः स्थासपर्याय का नाश और कोशपर्याय की उत्पत्ति इत्यादि क्रमशः कुशल-कपालपर्याय की उत्पत्ति और नाश होने पर घटकार्य उत्पन्न होता है। इस प्रकार मोक्ष-सिद्धातारूप कार्य में भी पहले मिथ्यात्वपर्याय का नाश और सम्यक्त्व-पर्याय की उत्पत्ति आदि भवन-व्यय की प्रक्रिया होने पर क्रमशः अयोगी-अवस्था का व्यय होता है और फिर सिद्धतारूप कार्य उत्पन्न होता है। (6) स्व-गुण (अपने ज्ञानादि गुणों) का आधार शुद्ध आत्मद्रव्य ही है और शुद्ध आत्मतत्त्व को सत्ता का आधार है अथवा सत्ता का आधार शुद्ध आत्मतत्त्व है।
भवन भवन व्यय विण कारज नवि होवे रे, जिम द्रषदे न घटत्व;
शुद्धाधार शुद्धाधार स्वगुणनो द्रव्य छे रे, सत्ताधार सुतत्त्व ।।8।।
अर्थ 9 : मोक्ष-सिद्धतारूप का कर्ता मोक्षाभिलाषी आत्मा है और उसका प्रधान साधन श्री जिनेश्वर परमात्मा हैं। क्योंकि परमात्मा के दर्शन से मोक्ष (पूर्ण शुद्ध-स्वरूप) की रुचि पैदा होती है और वह मोक्ष की रुचि बढ़ने से आत्मा का सम्पूर्ण साम्राज्य प्रकट होता है।
आतम आतम कर्त्ता कार्य सिद्धता रे, तसु साधन जिनराज;
प्रभु दीठे प्रभु दीठे कारज रुचि उपजेरे, प्रगटे आत्म साम्राज ।।9।।
अर्थ 10 : मोक्ष की रुचि उत्पन्न करने के लिए जगत् के ईश-जगत् के नाथ और देवों में चन्द्र समान निर्मल, ऐसे श्री जिनेश्वर परमात्मा का वंदन, नमन, सेवन, पूजन, स्मरण, स्त्वन और ध्यान करना चाहिए। जिससें आत्मा में रहा हुआ सम्पूर्ण सुख एवं अनन्त गुण का निधान प्रकट होता है।
वंदन वंदन नमन सेवन वली पूजना रे, समरण स्तवन वली ध्यान;
देवचंद्र देवचंद्र कीजे जिनराजनो रे, प्रगटे पूर्ण निधान ।।10।।
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