Tuesday, August 20, 2019

LOKA BHAVNA : लोक भावना LOKASWAROOP BHAVANA Transitory of universe

|| LOK BHAVANA : लोक भावना  ||
LOKASWAROOP BHAVANA JAIN DHARM RELIGION
||लोकस्वरुप भावना - Transitory of Universe||
 Transitory of universe
Explanation of LOKA BHAVANA in English and Hindi

जिस भावना में लोक के यथार्थ स्वरूप आदि पर चिंतन किया जाता है, वह लोक भावना है| लोक अनादि, अनन्त व षड्द्रव्यों का समूह है| इन द्रव्यों के स्वरूप तथा परस्पर सम्बन्धों के बारे में चिंतन – मनन करना, ऐसे चिंतन से लोक के शाश्वत और अशाशवत होने तथा यह लोक किस पर टिका है, आदि से सम्बन्धित मिथ्या धारणाएँ नष्ट होती हैं| उदाहरण – ऋषि शिवराज|

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पंच महाव्रत संचरण ,समितिपंच परकार,

प्रबल पंच इन्द्रिय विजय ,धार निर्जरा सार !

जहाँ ६ द्रव्यों का निवास है,वह तीन लोक हैं।।जो शास्वत ६ द्रव्यों से बना हुआ है।।इसको न किसी ने बनाया है।।न कोई धारण कर रहा है,न कोई चला रहा है।।और न ही कभी नष्ट होंगे।।और ६ द्रव्य भी शास्वत हैं।।अनादि निधन हैं यह तीनों लोक ।।इन तीनों लोकों में यह जीव समता भाव के अभाव में।।संतोष के अभाव में,वीतरागता और वीतराग भावों के अभाव में यह जीव संसार में दुःख सहता है…और जन्म मरण के दुखों को सहन करता है…वीतराग अवस्था पाने से यह जीव आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है।

 किनहू न करौ न धरै को, षड्द्रव्यमयी न हरै को ।
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता ।।१२।।

अन्वयार्थ : – इस लोकको (किनहू) किसीने (न करौ)बनाया नहीं है, (को) किसीने (न धरै) टिका नहीं रखा है, (को) कोई (न हरै) नाश नहीं कर सकता; [और यह लोक ] (षड्द्रव्यमयी) छह प्रकारके द्रव्यस्वरूप है–छह द्रव्योंसे परिपूर्ण है (सो) ऐसे (लोकमांहि) लोकमें (बिन समता) वीतरागी समता बिना (नित) सदैव (भ्रमता) भटकता हुआ (जीव) जीव (दुख सहै) दुःख सहन करता है ।

भावार्थ : – ब्रह्मा आदि किसीने इस लोकको बनाया नहींहै; विष्णु या शेषनाग आदि किसीने इसे टिका नहीं रखा है तथा महादेव आदि किसीसे यह नष्ट नहीं होता; किन्तु यह छह द्रव्यमय लोक स्वयंसे ही अनादि-अनन्त है; छहों द्रव्य नित्य स्व-स्वरूपसे स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई पर्यायों अर्थात् अवस्थाओंसे उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं । एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्यका अधिकार नहीं है । यह छह द्रव्यस्वरूप लोक वह मेरा स्वरूप नहीं है, वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ; मेरा शाश्वत चैतन्य-लोक ही मेरा स्वरूप है –ऐसा धर्मी जीव विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटाकर, साम्यभाव-वीतरागता बढ़ानेका अभ्यास करता है, यह 'लोक भावना' है ।।१२।।

किनहू न करौ न धरै को, षट् द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोकमांहि बिन समता, दुख सहै जीव नित भ्रमता।।१२।।

अर्थ - इस लोक को किसी ने नहीं बनाया है और न कोई इसे धारण किए हुए है। यह लोक छ: द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) से भरा हुआ है और कोई इसका कभी नाश नहीं कर सकता है। इस स्वयंसिद्ध लोक में यह जीव समतापरिणति के अभाव में भ्रमण करता है और दु:ख सहता है। ऐसा विचार करना, दसवीं ‘लोक भावना’ है।


Pravachan on SAMVAR Bhavna


लोकस्वरुप  भावना LOKA BHAVANA

लोक अलोक आकाश माहिं थिर, निराधार जानो।
पुरुष रूप कर- कटी भये षट् द्रव्यन सोंमानो॥
इसका कोई न करता हरता, अमिट अनादी है।
जीवरु पुद्गल नाचै यामैं, कर्मउपाधी है||(22)

पाप पुण्य सों जीव जगत में, नित सुख दु:ख भरता।
अपनी करनी आप भरै सिर, औरन के धरता॥
मोह कर्म को नाश, मेटकर सब जग की आसा।
निज पद में थिरहोय लोक के, शीश करो वासा||(23)

निज आतमा के भान बिन घट्द्रव्यमय इस लोक में ।
भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण करता रहा त्रैलोक्य में ।।
करता रहा नित संसरण जगजालमय गति चार में ।
समभाव बिन सुख रञ्च भी पाया नहीं संसार में ॥१॥

षद्रव्यमय और तीन लोक वाले इस लोक में यह आत्मा आत्मा के ज्ञान विना भ्रमरूपी रोग के वश होकर भव-भव में भ्रमण करता रहा; जगत के जंजाल में उलझानेवाली चार गतियों में निरन्तर घूमता ही रहा। समताभाव के अभाव में इस संसार में इसे रंचमात्र भी सुख प्राप्त नहीं हुआ।

नर नर्क स्वर्ग निगोद में परिभ्रमण ही संसार है ।
षद्रव्यमय इस लोक में बस आतमा ही सार है ॥
निज आतमा ही सार है स्वाधीन है सम्पूर्ण है।
आराध्य है सत्यार्थ है परमार्थ है परिपूर्ण है ॥२॥

नरक, तिर्यञ्च, देव एवं मनुष्य गतियों में परिभ्रमण करते रहना ही संसार है। छह द्रव्यों वाले इस लोक में एक आत्मा ही सारभूत पदार्थ है। अपना आत्मा ही सार है, स्वाधीन है, सम्पूर्ण है, आराध्य है, सत्यार्थ है, परमार्थ है और परिपूर्ण है।

निष्काम है निष्क्रोध है निर्मान है निर्मोह है ।
निर्द्वन्द्व है निर्दण्ड है निर्ग्रन्थ है निर्दोष है ॥
निर्मूढ है नीराग है आलोक है चिल्लोक है ।
जिसमें झलकते लोक सब वह आतमा ही लोक है ॥ ३॥

अपना आत्मा ही काम, क्रोध, मान और मोह से रहित है। एक आत्मा ही निर्द्वन्द्व है, निर्दण्ड है, निर्ग्रन्थ और निर्दोष है। मिथ्यात्व और राग रहित भी वही है, प्रकाशस्वरूप चैतन्यलोक भी वही है। यदि गहराई से विचार किया जाये तो जिसमें सम्पूर्ण लोक झलकते हैं, वह ज्ञान-स्वभावी आत्मा ही वास्तविक लोक है।

निज आतमा ही लोक है निज आतमा ही सार है।
आनन्दजननी भावना का एक ही आधार है ॥
यह जानना पहिचानना ही भावना का सार है।
धुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥ ४॥

अपना आत्मा ही लोक है और अपना आत्मा ही सारभूत पदार्थ है। आनन्द को उत्पन्न करनेवाली इस लोकभावना के चिन्तन का एकमात्र आधार निज भगवान आत्मा ही है। यह जानना-पहिचानना ही लोकभावना के चिन्तन का सम्पूर्ण सार है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

निज आतमा के भान बिन षट्व्यमय इस लोक में।
भ्रमरोग वश भव-भव भ्रमण करता रहा त्रैलोक्य में।।
निज आतमा ही लोक है निज आतमा ही सार है।
आनन्दजननी भावना का एक ही आधार है।।
'संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार है, अशुचि है, सुख-दुःख में साथ देनेवाले नहीं हैं; क्योंकि वे अपने आत्मा से अत्यंत भिन्न हैं।'

आरंभिक छह भावनाओं में संयोगों के संदर्भ में इस प्रकार का चिन्तन करने के उपरान्त सातवीं आस्त्रवभावना में ’संयोग के लक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाले संयोगभाव - चिद्विकार - मोह-राग-द्वेषरूप आस्त्रवभाव भी अनित्य हैं अशरण हैं, अशुचि हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के कारण भी हैं; अंतः हेय हैं और भगवान आत्मा नित्य है, परमपवित्र हैं, परमानन्दरूप है एवं परमानन्द का कारण भी है; अतः ध्येय है, श्रद्धेय है, आराध्य है, साध्य है एवं परम-उपादेय भी है’ - इस प्रकार का चिन्तन किया गया है।

इसप्रकार संयोग और संयोगी भावों से विरक्ति उत्पन्न कर संवर और निर्जरा भावना में पर और पर्यायों से भिन्न भगवान आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली निर्मलपर्यायरूप शुद्धि और शुद्धि की वृद्धि की उपादेयता का चिन्तन किया गया; क्योंकि शुद्धि की उत्पत्ति व स्थितिरूप संवर तथा वृद्धिरूप निर्जरा ही अनन्तसुखरूप मोक्ष प्रगट होने के साक्षात् कारण है।

इसप्रकार ज्ञेयरूप संयोग, हेयरूप आस्त्रवभाव एवं उपादेयरूप संवर-निर्जरा के सम्यक् चिन्तन के उपरान्त अब लोकभावना में षट्द्रव्यमयी लोक के स्वरूप पर विचार करते हैं।

लोकभावना का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। कांर्तिकेयानुप्रक्षा की चार सौ नवासी गाथाओं में सर्वाधिक स्थान घेरनेवाली लोकभावना और धर्मभावना ही है। अनित्यभावना से निर्जराभावना तक नौ भावनाओं में कुल 114 गाथाएं हैं, जबकि अकेली लोकभावना 169 गाथाओं को अपने में समेटे हुए हैं।

लोकभावना में भेद-प्रभेद सहित छह द्रव्यों के स्वरूप के साथ-साथ लोक का भौगोलिक निरूपण भी समाहित हो जाता है। इसप्रकार हम देखते हैं कि इस भावना में जिनागम में वर्णित वस्तु-व्यवस्था संबंधी समस्त विषय-वस्तु आ जाती है। इस प्रकार से इसमें द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकायसंग्रह एवं त्रिलोकसार का सम्पूर्ण विषय आ जाता है।

य़द्यपि इस लघु निबंध में उक्त सम्पूर्ण विषय-वस्तु का विस्तृत प्रतिपादन संभव नहीं है; तथापि लोकभावना की चिन्तन-प्रक्रिया एवं उसकी उपयोगिता पर सम्यक् अनुशीलन तो अपेक्षित है ही।

यद्यपि लोकभावना की विषय-वस्तु अत्यन्त विस्तृत है, तथापि अनेक ज्ञानियों ने उसका प्रतिपादन एक-एक छनद में भी किया है, फिर भी लोक-भावना की सम्पूर्ण भावना को अपने में समाहित कर लिया है।

इस दृष्टि से हिन्दी कवियों के निम्नांकित कथन द्रष्टव्य हैं -

किनहूँ न करौ न धरै को, षट्द्रव्यमयी न हरै को।
सो लोक माँहि बिन समता, दुःख सहै जीव नित भ्रमता।।1
छह द्रव्यों के समुदायरूप इस लोक को न तो किसी ने बनाया है, न कोई इसे धारण किए है और न कोई इसका विनाश ही कर सकता है। इस लोक में यह आत्मा अनादिकाल से समताभाव बिना भ्रमण करता हुआ अनन्त दुःख सह रहा है।

चैदह राजु उतंग नभ, लोक पुरूष संठान।
तामें जीव अनादि तैं, भरमत है बिना ज्ञान।।2
इस पुरूषाकार चैदह राजू ऊँचे लोक में यह जीव आत्मज्ञान बिना अनादिकाल से ही भ्रमण कर रहा है।’’

उक्त दोनों भावनाओं में नीचे की पंक्ति का भाव तो लगभग समान ही है; क्योंकि दोनों में ही यह बताया गया है कि जीव अनादि से ही लोक में भ्रमण करना हुआ दुःख भोग रहा है। अन्तर मात्र इतना है कि एक में दुःख का कारण समताभाव का अभाव बताया गया है और दूसरी में सम्यग्ज्ञान का अभाव, पर इसमें कोई विशेष बात नहीं है; किंतु ऊपर की पंक्ति में जो लोक के स्वरूप का प्रतिपादन है, वह भिन्न-भिन्न है। एक में लोक को स्वनिर्मित, स्वाधीन, अविनाशी और षट्द्रव्यमयी बताया गा है; तो दूसरी में चैदह राजू ऊँचा पुरूषाकार निरूपित किया गया है।

|| LOKASWARUP BHAVANA|| 
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लोक भावना  LOKASWAROOP 

Under this reflection, one thinks about the real nature of this universe. Judging from the standpoint of substance, it is eternal but from the standpoint of modification it is transitory.
Thus all objects of the world come into existence and perish. This thought makes him understand the true nature of reality, which is necessary for right knowledge and faith.

Thinking of the universe.
Think of the creation of the fourteen Rajlok (universe) which are made up of the substances which are subject to the law of origin existence and destruction. This whole universe is filled with jivas and pudgals.

Transliteration:
Chaud raajloknu swaroop vicharvu te dashmi loksvaroopbhavana.

Translation
To contemplate the nature of the universe is the tenth Loksvaroop bhavana.
— Shrimad Rajchandra, Vachanamrut

LOKA BHAVANA  – Transitory of universe

Universe is situated from eternal,
Which is divided in three Lokas.
We are wandering without knowledge....
I'm praying to you...10

Jainism has known for hundreds of centuries what modern science has now told us – that the universe is infinite, that there are galaxies we are yet to discover.

Science has extrapolated on the basis of information received from the Hubble and Kepler telescopes that there are a hundred billion galaxies in the observable universe. One such galaxy is the Milky Way. The Milky Way has at least 100 billion planets of varying sizes.
Our planet, Earth, with a 29 per cent land surface of 14,90,00,000 square km, is one among these planets, a dot in the vast span of the Milky Way.
And, each one of us is just one of the estimated seven billion human people living on Earth.

Referencing ourselves in the context of such a gigantic space can boggle the mind. So, let’s try this experiment: gaze at the sky. That dot where you look at the sky is infinite. Now imagine your place in the universe.

Contemplation of the grand universal expanse makes us realise how infinitesimalwe are in the larger scheme of things and how much smaller our sorrows and worries are in perspective.

Our self-created cocoon of desires and emotions, successes and failures, angsts and agonies which seem so real to us melt into nothingness when we place them in the intimidating largeness of the universe.

Such contemplation helps us grow out of our obsessive absorption with ourselves and also connect with what is truly real.
Like the fathomless universe, there is something even more incredible within us, something that is subtle and supremely powerful. Through the manifestation of this indomitable force called the soul, our Jain seers and Tirthankars saw and expounded the nature of the universe just as we know it today. Our soul too has latent divinity that can be unraveled by our sadhana – meditation, contemplation and conduct.

Jain scriptures narrate the nature of the universe in great detail. The universe is divided into Lok Akaash and Alok Akaash. Lok is the part of the gigantic universe that has life. It is spread in the shape of a man standing with both hands on his waist and legs stretched wide whereas Alok is the infinite space beyond Lok.

Lok, described as 14 Rajlok, comprises six elements (dravya): soul, matter, dharma (that facilitates mobility), adharma (that facilitates inertia), time and space. Lok is divided into Urdhvaloka - the heavenly areas, Madhyaloka where we live, and Adholoka or hell. At the apex is Siddha Sheela, the abode of liberated souls. That is the aspirational destination for all living beings, far away from the world of perpetual flux that we inhabit.  

In Lok Akaash, living beings wander from one life to another without ever finding lasting peace and happiness. All living beings in Lok experience pain. Those living beings with five sensory organs (panchendriya) with or without a mind (sangni-asangni) crave to be free of pain. Unfortunately, real happiness eludes us because of ignorance and attachment that create bondage and tie us down to the vicious cycle of births and deaths in the universe. Only Siddha Sheela offers eternal bliss. Reaching there is possible through a series of steps, the most important one being self-realisation.

Just as fire burns impurities off gold, spiritual activities like meditation and penance shred the karmic load off our soul.

Reducing our lust for a material life, controlling our mind and being mindful of our goal at all times go a long way in speeding up this spiritual journey.

The path is long and tough for a person without discipline and determination. Even if a fan stops whirring in summer, we get restless. That’s why it’s all-important to watch our mind at all times. Param Pujya Bhaishree, who epitomizes total lack of desire, tells us to be calm observers of our desires and emotions in order to be able to overcome them.

Our meditation requires stillness of all the three guptis- body, speech and mind. Once we acquire such stillness, self-realisation is at hand. In his masterful composition, ‘Apoorva avsar,’ Param Krupaludev Shrimadji says material objects, place, time and emotions (dravya, kshetra, kaal and bhaav) cause impediments (pratibandh) in an unenlightened soul’s journey.  A renounced soul, however, has none.

Our birth is an incalculably miniscule component of our existence over countless millennia. We do not remember it but we have made appearances in various parts of the universe including heaven and hell from the beginning of time. While our names and forms have changed with each birth, what has stayed constant through all births is our soul.

So, why not focus on the eternal and drop the ephemeral? Let’s drop the corporal shell from our minds and attach to the substratum of our being. Let’s be free of worries, fears and sorrows and endeavour to join the sublime consciousness of our Tirthankars at Siddha Sheela. What we know, let’s dwell upon. What we dwell upon, let’s experience. What we experience, let’s ensure it endures. Once on this trajectory, the Siddha Sheela is the limit for us.



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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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