|| नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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Nemi Jineshwar Nij Karaj karyo स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री नेमिनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan |
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|| नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो ||
नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो, छांड्यो सर्व विभावोजी;
आतम शक्ति सकल प्रगट करी, आस्वाद्यो निज भावोजी ।।1।।
राजुल नारी रे सारी मति धरी, अवलंब्या अरिहंतोजी;
उत्तम संगे रे उत्तमता वधे, सधे आनंद अनंतोजी ।।2।।
धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाती अग्राह्योजी,
पुदगल ग्रहवेरे कर्म कलंकता, वाधे बाधक बाह्योजी ।।3।।
रागी संगे रे राग दशा वधे, थाए तिणे संसारोजी;
नीरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लहीये भवनो पारोजी ।।4।।
अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करतां आश्रव नासेजी;
संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतमभाव प्रकाशेजी ।।5।।
नेमि प्रभु ध्याने एकत्वता, निज तत्त्वे एकतानोजी;
शुकल ध्याने रे साधी सुसिद्धता, लहिये मुक्ति निदानोजी ।।6।।
अगम अरूपी रे अलख अगोचरुं, परमातम परमीशोजी;
देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशोजी ।।7।।
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अर्थ 1 : श्री नेमिनाथ भगवान् ने निज सिद्धतारूप कार्य को पूर्ण किया है, अर्थात् श्री नेमिनाथ भगवान् ने सर्व विभावदशा, विषयकषाय और राग-द्वेषादि का सर्वथा त्याग किया है एवम् आत्मा की ज्ञानादि सब शक्तियों को पूर्णरूप से प्रकट की है और निज शुद्ध स्वभाव का आस्वादन किया है। इस प्रकार वे अफनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव के भोक्ता बने हैं।
नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो, छांड्यो सर्व विभावोजी;
आतम शक्ति सकल प्रगट करी, आस्वाद्यो निज भावोजी ।।1।।
अर्थ 2 : शीलादि गुण से विभूषित राजीमती ने भी उत्तम बुद्धि को धारण कर पति के रूपवाले अशुद्ध-राग को छोड़ दिया और श्री अरिहंत प्रभु को अपने देवाधिदेव के रूप में स्वीकार किया। सचमुच ! उत्तम पुरुषों के सहवास से उत्तमता की वृद्धि होती है और अनुक्रम से अनन्त आनंद प्राप्त होता है। राजीमती ने जैसे इस सूक्ति की यथार्थता सिद्ध कर दी, वैसे हमें भी इस सूक्ति को सार्थक करना चाहिए।
राजुल नारी रे सारी मति धरी, अवलंब्या अरिहंतोजी;
उत्तम संगे रे उत्तमता वधे, सधे आनंद अनंतोजी ।।2।।
अर्थ 3 : श्री राजीमतीजी ने जिस तत्त्व की अनुप्रेक्षा-विचारणा की थी वह बताते हैं कि, समग्र लेोक में रहे हुए पंचास्तिकाय (धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव) में से धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीन द्रव्य अचेतन और विजातीय हैं, अतः उनका ग्रहण नहीं हो सकता। पुद्गल द्रव्य विजातीय होते हुए भी ग्राह्य है परन्तु इसे ग्रहण करने से जीव कर्म से कलंकित बनता है। बाह्यभाव की वृद्धि होती है और उससे स्वगुणों का अवरोध (बाध) होता है।
धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाती अग्राह्योजी,
पुदगल ग्रहवेरे कर्म कलंकता, वाधे बाधक बाह्योजी ।।3।।
अर्थ 4 : संसारी जीव राग-द्वेषयुक्त हैं। उनके साथ संग-प्रेम करने से रागदशा बढ़ती है और उससे संसार की वृद्धि होती है। परन्तु नीरागी अरिहन्त परमात्मा के साथ राग-प्रीति करने से भव का पार पाया जा सकता है।
रागी संगे रे राग दशा वधे, थाए तिणे संसारोजी;
नीरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लहीये भवनो पारोजी ।।4।।
अर्थ 5 : बाह्य पदार्थो पर से अप्रशस्तराग दूर करने से और श्री अरिहन्त परमात्मा पर प्रशस्तराग धारण करने से संवर (आस्रव का नाश) होता है अर्थात् नवीन कर्मबन्ध रुक जाता है। साथ ही पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा होती है। उस संवर और निर्जरा के योग से आत्मशक्तियाँ प्रकट होती है।
अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करतां आश्रव नासेजी;
संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतमभाव प्रकाशेजी ।।5।।
अर्थ 6 : इस प्रकार शुभ विचारणा करने से राजीमतीजी ने श्री नेमिनाथ प्रभु के ध्यान में तन्मय-एकतान बनकर उसके द्वारा जिन तत्त्व-आत्मस्वरूप में एकाग्रता प्राप्त की और स्वरूप-तन्मयता द्वारा शुक्लध्यान सिद्ध करके स्व-सिद्धता प्राप्त की। इस प्रकार हम भी प्रभु के ध्यान में एकाग्र बनकर मुक्ति के निदान-भूल कारण को प्राप्त करें।
नेमि प्रभु ध्याने एकत्वता, निज तत्त्वे एकतानोजी;
शुकल ध्याने रे साधी सुसिद्धता, लहिये मुक्ति निदानोजी ।।6।।
अर्थ 7 : अगम (सामान्य लोगों द्वारा अज्ञेय) अरूपी (वर्णादि से रहित), अलख (एकान्तवादियों द्वारा न पहचाने जाने वाले), अगोचर (इन्द्रियों से अग्राह्य), परमात्मा (रागादि दोष रहित), परमेश्वर (अनन्त गुण-पर्याय के स्वामी) और देवों में चन्द्र जैसे निर्मल श्री जिनेश्वर प्रभु की सेवा-आज्ञापालन करने से साधकता (अध्यात्म-शक्ति) की वृद्धि होकर शुद्ध स्वभाव की सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त होती है।
अगम अरूपी रे अलख अगोचरुं, परमातम परमीशोजी;
देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशोजी ।।7।।
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