|| Murti ho Prabhu murti anant jinandni LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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मूरति हो प्रभु मूरति अनंत जिणंद स्तवन स्तवन सांग
जैन स्तवन
श्री विमल जिन स्तवन Devchandraji jain stavan |
14 Murti ho Prabhu murti anant jinand - devchandra chovisi |
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|| विमल जिन विमलता ताहरीजी ||
मूरति हो प्रभु मूरति अनंत जिणंद, ताहरी हो प्रभु ताहरी मुज नयणे वसीजी;
समता हो प्रभु समता रसनो कंद, सहेजे हो प्रभु सहेजे अनुभव रसलसीजी ।।1।।
भव दव हो प्रभु भव दव तापित जीव, तेहने हो प्रभु तेहने अमृतघन समीजी;
मिथ्या विष हो प्रभु मिथ्या विषनी खीव, हरवा हो प्रभु हरवा जांगुली मन रमीजी ।।2।।
भाव हो प्रभु भाव चिंतामणि एह, आतम हो प्रभु आतम संपत्ति आपवाजी;
एहिज हो प्रभु एहिज शिव सुख गेह, तत्त्व हो प्रभु तत्त्वालंबन थापवाजी ।।3।।
जाये हो प्रभु जाये आश्रव चाल, दीठे हो प्रभु दीठे संवरता वधेजी;
रत्न हो प्रभु रत्नत्रयी गुणमाल, अध्यातम हो प्रभु अध्यातम साधन सधेजी ।।4।।
मीठी हो प्रभु मीठी सूरत तुज, दीठी हो प्रभु दीठी रुचि बहु मानथीजी;
तुज गुण हो प्रभु तुज गुण भासन युक्त, सेवे हो प्रभु सेवे तसु भव भय नथीजी ।।5।।
नामे हो प्रभु नामे अद्भुत रंग, ठवणा हो प्रभु ठवणा दीठे उल्लसेजी;
गुण आस्वाद हो प्रभु गुण आस्वाद अभंग, तन्मय हो प्रभु तन्मयताए जे धसेजी ।।6।।
गुण अनंत हो प्रभु गुण अनंतनो वृंद, नाथहो प्रभु नाथअनंतने आदरेजी;
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अर्थ 1 : हे अनन्तनात प्रभो ! तेरी मोहिनी मूर्ति मेरे नयनों में बस गई है। आपकी मूर्ति समतारस का कंद और सहज अनुभवरस से पूरिपूर्ण है अर्थात् समता रसमयी और सहज अनुभव रसमयी आपकी भव्य मूर्ति सदा मेरे नेत्रों में रम रही है ।
मूरति हो प्रभु मूरति अनंत जिणंद, ताहरी हो प्रभु ताहरी मुज नयणे वसीजी;
समता हो प्रभु समता रसनो कंद, सहेजे हो प्रभु सहेजे अनुभव रसलसीजी ।।1।।
अर्थ 2 : संसाररूपी दावानल के ताप से तप्त जीवों का परम शीतलता देने में आपकी मूर्ति अमृत के मेघ जैसी है और मिथ्यात्वरूपी विष की मूर्च्छा को हरण करने में गारूडी (जांगुली) मंत्र के समान है।
भव दव हो प्रभु भव दव तापित जीव, तेहने हो प्रभु तेहने अमृतघन समीजी;
मिथ्या विष हो प्रभु मिथ्या विषनी खीव, हरवा हो प्रभु हरवा जांगुली मन रमीजी ।।2।।
अर्थ 3 : हे प्रभो ! आपकी मूर्ति आत्म-सम्पति देने में भाव-चिन्तामणि है और मोक्षसुख का मंदिर-घर है तथा आत्म-तत्त्व के आलेबन में स्थिर होने का श्रेष्ठ साधन है।
भाव हो प्रभु भाव चिंतामणि एह, आतम हो प्रभु आतम संपत्ति आपवाजी;
एहिज हो प्रभु एहिज शिव सुख गेह, तत्त्व हो प्रभु तत्त्वालंबन थापवाजी ।।3।।
अर्थ 4 : हे प्रभो ! आपकी शान्त मुद्रा के दर्शनमात्र से आस्त्रव-परणिति (कर्मबन्धन) की प्रवृत्ति नष्ट होती है और आत्मरमणता रूप संवर-परिणति की वृद्धि होती है । साथ ही रत्नत्रयी-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप गुणों की माला जिसमें है ऐसे आत्मस्वरूप को प्रकट करने का उपाय भी प्राप्त होता है।
जाये हो प्रभु जाये आश्रव चाल, दीठे हो प्रभु दीठे संवरता वधेजी;
रत्न हो प्रभु रत्नत्रयी गुणमाल, अध्यातम हो प्रभु अध्यातम साधन सधेजी ।।4।।
अर्थ 5 : हे परमात्मन् ! मोक्ष की अभिलाषा से बहुमानपूर्वक आपकी मूर्ति के दर्शन करने से वह जिसको अत्यन्त मीठी-मधुर लगती है और आपके अनन्त गुणों के स्मरण, चिन्तन और ध्यान में तन्मय होकर जो आपकी सेवा करता है, उसके भव भ्रमण का भय नष्ट हो जाता है।
मीठी हो प्रभु मीठी सूरत तुज, दीठी हो प्रभु दीठी रुचि बहु मानथीजी;
तुज गुण हो प्रभु तुज गुण भासन युक्त, सेवे हो प्रभु सेवे तसु भव भय नथीजी ।।5।।
अर्थ 6 : हे प्रभो ! आपके नाम श्रवण-स्मरण मात्र से भी अद्भुत आनन्द उत्पन्न होता है। आपरकी प्रतिमा के दर्शन से हृदय उल्लसित-रोमांचित हो उठता है और आपकी मूर्ति के भव्य आलंबन से आत्म-स्वरूप को पहचान कर उसमे एकाकार-तन्मय हो जानेवाला साधक उन ज्ञानादि अनन्त गुणों के अभंग-अखण्ड आस्वाद का अनुभव करता है।
नामे हो प्रभु नामे अद्भुत रंग, ठवणा हो प्रभु ठवणा दीठे उल्लसेजी;
गुण आस्वाद हो प्रभु गुण आस्वाद अभंग, तन्मय हो प्रभु तन्मयताए जे धसेजी ।।6।।
अर्थ 7 : इस प्रकार अनन्त गुणों के समूह श्री अनन्तनाथ भगवान् की सेवा जो आदर और सम्मानपूर्वक करता है वह देवों में चन्द्र समान उज्वल परमानन्दमय महोदय-पद को प्राप्त करता है।
गुण अनंत हो प्रभु गुण अनंतनो वृंद, नाथहो प्रभु नाथअनंतने आदरेजी;
देवचंद्र हो प्रभु देवचंद्रने आणंद, परम हो प्रभु परम महोदय ते वरेजी ।।7।।
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