Sunday, August 27, 2023

तार हो तार प्रभु मुज सेवक Tar ho tar sevak jain song mahavir swami devchandraji

|| Tar ho tar prabhu mujh sevak Mahavir swami - JAIN STAVAN SONG ||
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 तार हो तार प्रभु मुज सेवक स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री वीर भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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||  तार हो तार प्रभु मुज सेवक ||  


तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमां एटलुं सुजश लीजे;
दास अवगुण भर्यो जाणी पोता तणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे    ।।1।।

राग द्वेषे भर्यो मोह वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो;
क्रोध वश धमधम्यो शुद्ध गुण नवि रम्यो, भम्यो भव मांहे हुं विषय मातो    ।।2।। 

आदर्युं आचरण लोक उपचारथी, शास्त्र अभ्यास पण कांई कीधो;
शुद्ध श्रद्धा न वली आत्म अवलंब विण, तेहवो कार्य तिणे कोन सीधो    ।।3।। 

स्वामी दरिसण समो निमित्त लही निरमलो, जो उपादान ए शुचि न थाशे;
दोष को वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, स्वामी सेवा सही निकट लाशे    ।।4।। 

स्वामी गुण ओळखी स्वामीने जे भजे, दरिशण शुद्धता तेह पामे;
ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीती वसे मुक्ति धामे    ।।5।।
 
जगत वत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभुचरणने शरण वास्यो;
तार जो बापजी बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो     ।।6।।
 
विनती मानजो शक्ति ए आपजो, भाव स्याद्वादता शुद्ध भासे;
साधी साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचंद्र विमल प्रभुता प्रकाशे.     ।।7।।


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अर्थ 1 : संसार के दुःख से उद्विग्न बना हुआ मुमुक्षु आत्मा श्री महावीर परमात्मा से अफनी दीन-दुःखी अवस्था का वर्णन करता हुआ प्रार्थना करता है, हे दीनदयाल ! करुणा सागर ! प्रभो ! आप इस दीन-दुःखी दास पर दया वरसाकर उसे संसार-सागर से तारो-पार उतारो। यद्यपि, यह सेवक अनेक अवगुणों-दोषों से भरा हुआ है, राग-द्वैषदि से रंगा हुआ है तो भी इसे आप अपना सेवक-शरणागत मानकर इस पर कृषादृष्टि करो और इसे संसार-सागर से पार उतारकर जगत् में महान् सुयश-कीर्ति को प्राप्त करो । यही मेरी भावभरी विनम्र प्रार्थना है।

तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमां एटलुं सुजश लीजे;
दास अवगुण भर्यो जाणी पोता तणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे    ।।1।।

अर्थ 2 : हे प्रभो ! आपका यह सेवक राग-द्वेष से भरा हुआ है, मोहशत्रु से दबा हुआ है, लोक-प्रवाह में रंगा हुआ है अर्थात् सदा लोकरंजन में कुशल है, क्रोध के वशीभूत होकर धमधमा रहा है, शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र या क्षमादि गुणों में तन्मय नहीं बन रहा है, परन्तु विषयों में आसक्त बनकर भवभ्रमण कर रहा है।

राग द्वेषे भर्यो मोह वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो;
क्रोध वश धमधम्यो शुद्ध गुण नवि रम्यो, भम्यो भव मांहे हुं विषय मातो    ।।2।।

अर्थ 3 : भवभ्रमण करते-करते कभी मानवभव में आवश्यकादि द्रव्य क्रियाएँ लोकोपचार से की होगी अर्थात् विष, गरम और अन्योन्यानुष्ठानवाली क्रियाएँ की होगी तथा ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से शास्त्रों का कुछ अभ्यास भी किया होगा। परन्तु शुद्ध सत्तागत आत्मधर्म की शुद्धरूचि (श्रद्धान) बिना और आत्मगुण के आलम्बन बिना केवल बाह्यक्रिया द्वारा या स्पर्श अनुभवज्ञान बिना के शास्त्राभ्यास द्वारा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति रूप कोई कार्य सिद्ध नहीं हुआ।

आदर्युं आचरण लोक उपचारथी, शास्त्र अभ्यास पण कांई कीधो;
शुद्ध श्रद्धा न वली आत्म अवलंब विण, तेहवो कार्य तिणे कोन सीधो    ।।3।।

अर्थ 4 : वीतराग परमात्मा के दर्शन (शासन) जैसा निर्मल पुष्ट-निमित्त प्राप्त करके भी यदि मेरी आत्मसत्ता पवित्र-शुद्ध न हो तो यह वस्तु-आत्मा का ही कोई दोष है अथवा मेरा जीवदल तो योग्य है किन्तु मेरे अपने पुरुषार्थ की ही कमी है? परन्तु अब तो स्वामीनाथ की सेवा ही मुझे प्रभु के पास ले जायेगी और मेरे एवं उनके बीच के अन्तर को तोड़ देगी।

स्वामी दरिसण समो निमित्त लही निरमलो, जो उपादान ए शुचि न थाशे;
दोष को वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, स्वामी सेवा सही निकट लाशे    ।।4।।

अर्थ 5 : जो आत्मा अरिहन्त परमात्मा के गुणों को पहचान कर उनकी सेवा करता है, वह आत्मा शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है और ज्ञान (यथार्थ-अवबोध), चारित्र (स्वरूप-रमणता), तप (तत्त्व एकाग्रता) वीर्य (आत्मशक्ति) गुण के उल्लास द्वारा क्रमशः सब कर्मों को जीतकर मोक्ष (मुक्ति) मन्दिर में जा बसता है।

स्वामी गुण ओळखी स्वामीने जे भजे, दरिशण शुद्धता तेह पामे;
ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीती वसे मुक्ति धामे    ।।5।।

अर्थ 6 : महावीर परमात्मा तीनों जगत् के हितकर्ता हैं । ऐसा सुनकर मेरे चित्त ने आपके चरणों की शरण स्वीकार की है। अतः हे जगतात ! हे रक्षक ! हे प्रभो ! आप अपनी तारकता के विरुद्ध को सार्थक करने के लिए भी मुझे इस संसार-सागर से तारियेगा। परन्तु, दास की सेवा-भक्ति की तरफ ध्यान मत दिजियेगा अर्थात् यह सेवक तो मेरी सेवा-भक्ति ठीक से नहीं करता, ऐसा जानकर मेरी उपेक्षा मत करियेगा। मेरी सेवा की तरफ देखे बिना केवल आपके ‘तारक’ विरुद को सार्थक करने के लिए मुझे तारियेगा-पार उतारिएगा।

जगत वत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभुचरणने शरण वास्यो;
तार जो बापजी बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो     ।।6।।

अर्थ 7 : हे कृपालु देवे ! मेरी एक छोटी-सी विनती को आप अवश्य स्वीकार करें और मुझे ऐसी शक्ति दें कि जिससे मैं वस्तु के सब धर्मों को तनिक भी शंकादि दूषण रखे बिना यथार्थरूप से जान सकूँ और साधक-दशा को सिद्ध कर सिद्ध-अवस्था का अनुभव कर सूकँ तथा देवों में चन्द्र समान उज्वल प्रभुता को प्रकटित कर सूकँ। स्याद्वाद के ज्ञान से साधकता प्रकटित होती है और साधकता से सिद्धता प्राप्त होती है।

विनती मानजो शक्ति ए आपजो, भाव स्याद्वादता शुद्ध भासे;
साधी साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचंद्र विमल प्रभुता प्रकाशे.     ।।7।।


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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa prabhu Sawayo - Parshwanath song jain stavan

|| Parshwa prabhu Sawayo Devchandraji Jain stavan SONG ||
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 Parshwa prabhu Sawayo स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री पार्श्वनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa prabhu Sawayo
Devchandraji krut chovishi






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||  पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa


 prabhu Sawayo ||  


सहज गुण आगरो स्वामी सुख सागरो; ज्ञान वईरागरो प्रभु सवायो;
शुद्धता एकता तीक्ष्णता भावथी, मोहरिपु जीती जय पडह वायो     ।।1।। 

वस्तु निज भाव अविभास नि:कलंकता, परिणति वृत्तिता करी अभेदे;
भाव तादात्म्यता शक्ति उल्लासथी, संतति योगने तुं उच्छेदे     ।।2।। 

दोष गुण वस्तुनो लखीय यथार्थता, लही उदासीनता अपर भावे;
ध्वंसि तज्जन्यता भाव कर्त्तापणुं, परम प्रभु तुं रम्यो निज स्वभावे     ।।3।। 

शुभ अशुभ भाव अविभास तहकीकता, शुभ अशुभ भाव तिहां प्रभु न कीधो;
शुद्ध परिणामता वीर्य कर्त्ता थई, परम अक्रियता अमृत पीधो     ।।4।। 

शुद्धता प्रभुतणी आत्मभावे रमे, परम परमात्मता तास थाये;
मिश्र भावे अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आये     ।।5।। 

उपशम रसभरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटी;
कारणे कार्य निष्पत्ति श्रद्धान छे, तिणे भव भ्रमणनी भीड मेटी     ।।6।। 

नयर खंभायते पार्श्व प्रभु दरशने, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो;
हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो     ।।7।। 

आज कृतपुण्य धन्य दीह माहरो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो;
देवचंद्र स्वामी त्रेवीशमो वंदीयो, भक्तिभर चित्त तुज गुण रमाव्यो     ।।8।।


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अर्थ 1 : प्रभु कैसे हैं? यह बताते हैं। सहज स्वाभाविक गुणों के धाम हैं, अव्याबाध, अविनाशी सुख के सिन्धु हैं, ज्ञानरुप वज्र-हीरा की खान है, सवाया-साद सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान् ने शुद्धता (सम्यग्ज्ञान की निर्मलता), एकता (स्वरुप तन्मयता) और तीक्ष्णता (वीर्यगुण की तीव्रता) के भाव द्वारा मोहशत्रु को जीतकर जय पडह-विजय का डंका बजाया है।

सहज गुण आगरो स्वामी सुख सागरो; ज्ञान वईरागरो प्रभु सवायो;
शुद्धता एकता तीक्ष्णता भावथी, मोहरिपु जीती जय पडह वायो     ।।1।।

अर्थ 2 : अब शुद्धता, एकता और तीक्ष्णता की व्याख्या बताते हैं। वस्तु के स्वरुप का यथार्थ ज्ञान, यह निशष्कलंकता शुद्धता है। आत्मपरिणति में वृत्ति का अभेद, यह एकता है और तादात्म्य भाव से रही हुई वीर्य-है।

वस्तु निज भाव अविभास नि:कलंकता, परिणति वृत्तिता करी अभेदे;
भाव तादात्म्यता शक्ति उल्लासथी, संतति योगने तुं उच्छेदे     ।।2।।

अर्थ 3 : वस्तु के गुण-दोषों की यथार्थता जानकर परभाव से उदासीन होकर और तदुत्पत्ति सम्बन्ध से उत्पन्न अर्थात् पुद्गल के सम्बन्ध से पेदा हुए विभाग-कर्तुत्व का नाश करके हे प्रभो! आप अपने परम शुद्ध स्वभाव में रमण कर रहे हैं।

दोष गुण वस्तुनो लखीय यथार्थता, लही उदासीनता अपर भावे;
ध्वंसि तज्जन्यता भाव कर्त्तापणुं, परम प्रभु तुं रम्यो निज स्वभावे     ।।3।।

अर्थ 4 : शुभ अथवा अशुभ भाव की यथार्थ (निश्चित) पहचान करके शुभ या अशुभ पदार्थों में हे प्रभो! आपने शुभाशुभ भाव अर्थात् राग-द्वेष नहीं किया परन्तु शुद्ध पारिणामिक-भाव में वीर्यगुण को प्रवर्तितकर परम अक्रियतारुप अमृतरस का पान किया है।

शुभ अशुभ भाव अविभास तहकीकता, शुभ अशुभ भाव तिहां प्रभु न कीधो;
शुद्ध परिणामता वीर्य कर्त्ता थई, परम अक्रियता अमृत पीधो     ।।4।।
अर्थ 5 : प्रभु की पूर्ण शुद्धता का जो जीव आत्म-स्वभाव में अभेद भाव से चिन्तर कर ध्यान द्वारा उसमें ही रमण करता है अर्थात् मेरी आत्मा भी सत्तारुप से पूर्ण शुद्ध स्वरुप है। ऐसा निश्चय कर प्रभु की पूर्ण शुद्धता में तन्म्य बनता है, उसे वैसी ही परम परमात्म-दिशा प्राप्त होती है। क्षयोपशमभाव में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की भिन्नता मालूम होत है परन्तु क्षायिक यथाख्यात चारित्र प्राप्त होने पर तीनों गुणों की एकरुपता हो जाती है।

शुद्धता प्रभुतणी आत्मभावे रमे, परम परमात्मता तास थाये;
मिश्र भावे अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आये     ।।5।।

अर्थ 6 : उपशम-सुधारस से परिपूर्ण और सर्व जीवों को सुख देनेवाली श्री जिनेश्वर प्रभु की मूर्ति के साक्षात्कार से अर्थात् आज उसके दर्शन-वन्दन-सेवन अपूर्व हर्षाोल्लास के साथ करने से ऐसी दृढ प्रतीति हो गई है कि, मोक्ष के पुष्ट-निमित्त कारणरुप जिनदर्शन और जिनसेवा का योग मिला है, उससे मोक्षरुप कार्य की सिद्धि अवश्य होगी। ऐसी दृढ प्रतीति होने के साथ ही मेरे भवभ्रमण का भय भी भाग गया (कारण में कार्य का उपचार करके हर्षावेश से निकला हुआ कवि का यह अनुभव वचन है)।

उपशम रसभरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटी;
कारणे कार्य निष्पत्ति श्रद्धान छे, तिणे भव भ्रमणनी भीड मेटी     ।।6।।

अर्थ 7 : खम्भात नगर में बिराजमान श्री सुखसागर पार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन-वन्दन करते समय रोमराजि विकसित होने के अपूर्व हर्ष और उत्साह की उर्मियां उत्पन्न होने लगी और श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ ध्यान द्वारा तन्मयता सिद्ध होने से आत्म-रमणता प्राप्त हुई। इससे अनुमान होता है कि सिद्धि की साधकता मेरी आत्मा में प्रकटित हुई है।

नयर खंभायते पार्श्व प्रभु दरशने, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो;
हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो     ।।7।।

अर्थ 8 : देवों में चन्द्र समान समुज्जवल श्री पार्श्वनाथ प्रभु को भावपूर्वक वन्दन किया और भक्ति से भरपूर चित्त प्रभु के गुण में रमण करने लगा। इसलिए आज मेरा महान पुण्योदय जागृत हुआ है। आज का यह दिन धन्य बना है। और सचमुच ! आज मेरा यह जन्म भी सफल बन गया है।

आज कृतपुण्य धन्य दीह माहरो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो;
देवचंद्र स्वामी त्रेवीशमो वंदीयो, भक्तिभर चित्त तुज गुण रमाव्यो     ।।8।।



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Nemi Jineshwar Nij Karaj Karya lyrics नेमि जिनेश्वर श्री नेमिनाथ - Devchandraji Stavan

|| नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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 Nemi Jineshwar Nij Karaj karyo स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री नेमिनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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||  नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो ||  


नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो, छांड्यो सर्व विभावोजी;
आतम शक्ति सकल प्रगट करी, आस्वाद्यो निज भावोजी    ।।1।।
 
राजुल नारी रे सारी मति धरी, अवलंब्या अरिहंतोजी;
उत्तम संगे रे उत्तमता वधे, सधे आनंद अनंतोजी     ।।2।।
 
धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाती अग्राह्योजी,
पुदगल ग्रहवेरे कर्म कलंकता, वाधे बाधक बाह्योजी     ।।3।।
 
रागी संगे रे राग दशा वधे, थाए तिणे संसारोजी;
नीरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लहीये भवनो पारोजी     ।।4।।
 
अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करतां आश्रव नासेजी;
संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतमभाव प्रकाशेजी     ।।5।।
 
नेमि प्रभु ध्याने एकत्वता, निज तत्त्वे एकतानोजी;
शुकल ध्याने रे साधी सुसिद्धता, लहिये मुक्ति निदानोजी    ।।6।।
 
अगम अरूपी रे अलख अगोचरुं, परमातम परमीशोजी;
देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशोजी     ।।7।।


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अर्थ 1 : श्री नेमिनाथ भगवान् ने निज सिद्धतारूप कार्य को पूर्ण किया है, अर्थात् श्री नेमिनाथ भगवान् ने सर्व विभावदशा, विषयकषाय और राग-द्वेषादि का सर्वथा त्याग किया है एवम् आत्मा की ज्ञानादि सब शक्तियों को पूर्णरूप से प्रकट की है और निज शुद्ध स्वभाव का आस्वादन किया है। इस प्रकार वे अफनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव के भोक्ता बने हैं।

नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो, छांड्यो सर्व विभावोजी;
आतम शक्ति सकल प्रगट करी, आस्वाद्यो निज भावोजी    ।।1।।

अर्थ 2 : शीलादि गुण से विभूषित राजीमती ने भी उत्तम बुद्धि को धारण कर पति के रूपवाले अशुद्ध-राग को छोड़ दिया और श्री अरिहंत प्रभु को अपने देवाधिदेव के रूप में स्वीकार किया। सचमुच ! उत्तम पुरुषों के सहवास से उत्तमता की वृद्धि होती है और अनुक्रम से अनन्त आनंद प्राप्त होता है। राजीमती ने जैसे इस सूक्ति की यथार्थता सिद्ध कर दी, वैसे हमें भी इस सूक्ति को सार्थक करना चाहिए।

राजुल नारी रे सारी मति धरी, अवलंब्या अरिहंतोजी;
उत्तम संगे रे उत्तमता वधे, सधे आनंद अनंतोजी     ।।2।।

अर्थ 3 : श्री राजीमतीजी ने जिस तत्त्व की अनुप्रेक्षा-विचारणा की थी वह बताते हैं कि, समग्र लेोक में रहे हुए पंचास्तिकाय (धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव) में से धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीन द्रव्य अचेतन और विजातीय हैं, अतः उनका ग्रहण नहीं हो सकता। पुद्गल द्रव्य विजातीय होते हुए भी ग्राह्य है परन्तु इसे ग्रहण करने से जीव कर्म से कलंकित बनता है। बाह्यभाव की वृद्धि होती है और उससे स्वगुणों का अवरोध (बाध) होता है।

धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाती अग्राह्योजी,
पुदगल ग्रहवेरे कर्म कलंकता, वाधे बाधक बाह्योजी     ।।3।।

अर्थ 4 : संसारी जीव राग-द्वेषयुक्त हैं। उनके साथ संग-प्रेम करने से रागदशा बढ़ती है और उससे संसार की वृद्धि होती है। परन्तु नीरागी अरिहन्त परमात्मा के साथ राग-प्रीति करने से भव का पार पाया जा सकता है।

रागी संगे रे राग दशा वधे, थाए तिणे संसारोजी;
नीरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लहीये भवनो पारोजी     ।।4।।

अर्थ 5 : बाह्य पदार्थो पर से अप्रशस्तराग दूर करने से और श्री अरिहन्त परमात्मा पर प्रशस्तराग धारण करने से संवर (आस्रव का नाश) होता है अर्थात् नवीन कर्मबन्ध रुक जाता है। साथ ही पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा होती है। उस संवर और निर्जरा के योग से आत्मशक्तियाँ प्रकट होती है।

अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करतां आश्रव नासेजी;
संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतमभाव प्रकाशेजी     ।।5।।

अर्थ 6 : इस प्रकार शुभ विचारणा करने से राजीमतीजी ने श्री नेमिनाथ प्रभु के ध्यान में तन्मय-एकतान बनकर उसके द्वारा जिन तत्त्व-आत्मस्वरूप में एकाग्रता प्राप्त की और स्वरूप-तन्मयता द्वारा शुक्लध्यान सिद्ध करके स्व-सिद्धता प्राप्त की। इस प्रकार हम भी प्रभु के ध्यान में एकाग्र बनकर मुक्ति के निदान-भूल कारण को प्राप्त करें।

नेमि प्रभु ध्याने एकत्वता, निज तत्त्वे एकतानोजी;
शुकल ध्याने रे साधी सुसिद्धता, लहिये मुक्ति निदानोजी    ।।6।।

अर्थ 7 : अगम (सामान्य लोगों द्वारा अज्ञेय) अरूपी (वर्णादि से रहित), अलख (एकान्तवादियों द्वारा न पहचाने जाने वाले), अगोचर (इन्द्रियों से अग्राह्य), परमात्मा (रागादि दोष रहित), परमेश्वर (अनन्त गुण-पर्याय के स्वामी) और देवों में चन्द्र जैसे निर्मल श्री जिनेश्वर प्रभु की सेवा-आज्ञापालन करने से साधकता (अध्यात्म-शक्ति) की वृद्धि होकर शुद्ध स्वभाव की सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त होती है।

अगम अरूपी रे अलख अगोचरुं, परमातम परमीशोजी;
देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशोजी     ।।7।।


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श्री नमि जिनवर Sri NemiJinwar 21 Ghananghan devchandraji chovishi 24

|| श्री नमि जिनवर सेव LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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 Sri Nemi Jinwar sevai स्तवन स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री नमिनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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||  श्री नमि जिनवर सेव ||  


श्री नमि जिनवर सेव धनाधन ऊनम्यो रे, घ.
दीठां मिथ्यारोरव भविक चित्तथी गम्यो रे; भ.
शुचि आचरणा रीति ते अभ्र वधे वडा रे, ते.
आतम परिणति शुद्ध ते वीज झबुकडा रे     ।।वी. 1।। 

वाजे वायु सुवायु ते पावन भावना रे, पा.
इन्द्रधनुष त्रिक योग ते भक्ति एक मना रे; भ.
निर्मल प्रभु स्तव घोष ज्युं ध्वनि घनगर्जना रे, घ्व.
तृष्णा ग्रीष्म काल तापनी तर्जना रे     ।।ता. 2।।
 
शुभ लेश्यानी आलि ते बग पंक्ति बनी रे, ब.
श्रेणि सरोवर हंस वसे शुचि गुण मुनि रे; व.
चौगति मारग बंध भविक निज घर रह्या रे, भ.
चेतना समता संग रंगमें उमह्या रे 2.     ।।रं. 3।।
 
सम्यगद्रष्टि मोर तिहां हरखे घणुं रे, ति.
देखी अद्भुत रूप परम जिनवर तणुं रे; प.
प्रभु गुणनो उपदेश ते जलधारा वही रे, ज.
धर्मरुचि चित्तभूमि मांहि निश्चल रही रे     ।।मां. 4।।
 
चातक श्रमण समूह करे तब पारणो रे, क.
अनुभव रस आस्वाद सकल दु:ख वारणो रे; स.
अशुभाचार निवारण तृण अंकुरता रे, तृ.
विरति तणा परिणाम ते बीजनी पूरता रे     ।।ते. 5।। 

पंच महाव्रत धान्य, तणां कर्षण वध्यां रे, त.
साध्यभाव निज थापी, साधनतायें सध्यां रे, सा.
क्षायिक दरिसण ज्ञान, चरण गुण उपना रे, च.
आदिक बहु गुण सस्य, आतम घर नीपना रे    ।।आ. 6।। 

प्रभु दरिसण महा मेह, तणे प्रवेशमें रे, त.
परमानंद सुभिक्ष, थयो मुझ देशमें रे, ध.
'देवचंद्र' जिनचंद्र, तणो अनुभव करो रे, त.
सादि अनंतो काल, आतम सुख अनुसरो रे    ।।आ. 7।।


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अर्थ 1 : श्री नमि जिनेश्वर की सेवारूपी मेघ-घटा जब चढ़ आती है तब, उसे देखकर भवि जीवों के हृदय में से मिथ्यात्व-अविद्यारूप दुर्भिक्ष (दुष्काल) का भय भाग जाता है। तथा अविधि-आशातनादि दोषरहित और विधिपूर्वक की पवित्र आचरणारूप महा-मेघ वृद्धिगत होता है और आत्मपरिणति की शुद्धिरूप बिजली चमकने लगती है।

श्री नमि जिनवर सेव धनाधन ऊनम्यो रे, घ.
दीठां मिथ्यारोरव भविक चित्तथी गम्यो रे; भ.
शुचि आचरणा रीति ते अभ्र वधे वडा रे, ते.
आतम परिणति शुद्ध ते वीज झबुकडा रे     ।।वी. 1।।
अर्थ 2 : वर्षो के समय अनुकूल हवा चलती है वैसे यहां जिनभक्ति में पवित्र भावनारूप वायु चलती है। वर्षाऋतु में तीन रेखायुक्त इन्द्र-धनुष्य होता है, वैसे यहां मन, वचन, काया के तीनो योगों की एकाग्रता होती है। वर्षा के दिनों में गर्जना की ध्वनि होती है, वैसे यहां प्रभुगुण-स्तवन की ध्वनि होती है। वर्षा से ग्रीष्मऋतु का ताप शान्त हो जाता है, वैसे यहां जिनभक्ति से तृष्णा का आन्तरिक ताप शान्त हो जाता है।

वाजे वायु सुवायु ते पावन भावना रे, पा.
इन्द्रधनुष त्रिक योग ते भक्ति एक मना रे; भ.
निर्मल प्रभु स्तव घोष ज्युं ध्वनि घनगर्जना रे, घ्व.
तृष्णा ग्रीष्म काल तापनी तर्जना रे     ।।ता. 2।।
अर्थ 3 : जिनभक्तिरूप वर्षा बरसती है तब, शुभ-प्रशस्त लेश्यारूप बगुलों की पंक्ति बन जाती है। मुनिरूप हंस ध्यानारुढ होकर उपशम अथवा क्षपक श्रेणीरूप सरोवर में जाकर रहने लगते हैं। चार गतिरूप मार्ग बन्द हो जातै हैं, इससे भव्य आत्माएं अपने आत्ममन्दिर में रहती हैं और चेतन अपनी समता सखी के साथ रंग में आकर आनन्दपूर्वक रमण करता है।

शुभ लेश्यानी आलि ते बग पंक्ति बनी रे, ब.
श्रेणि सरोवर हंस वसे शुचि गुण मुनि रे; व.
चौगति मारग बंध भविक निज घर रह्या रे, भ.
चेतना समता संग रंगमें उमह्या रे 2.     ।।रं. 3।।
अर्थ 4 : जिनभक्तिरूपी वर्षा के समय में, जिनेश्वर प्रभु का अद्भुत अनुपम रूप देखकर सम्यग्दृष्टिरूप मोर अत्यन्त हर्षित बन जाता है। जिनगुण-स्तुतिरूप मेघ की जलधारा प्रवाहित होने लगती है और तत्त्वरुचि जीवों की चित-भूमि में स्थिर हो जाती है।

सम्यगद्रष्टि मोर तिहां हरखे घणुं रे, ति.
देखी अद्भुत रूप परम जिनवर तणुं रे; प.
प्रभु गुणनो उपदेश ते जलधारा वही रे, ज.
धर्मरुचि चित्तभूमि मांहि निश्चल रही रे     ।।मां. 4।।
अर्थ 5 : जब जिनभक्तिरुप जलधारा प्रवाहित होती है तब, तत्त्वरम करनेवाले श्रमण समूहरूप चातक पारणा करते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के समय जो तत्त्वरूप में अपने अनुभव की पिपासा पैदा हुई थी वह पिपासा जिनभक्ति के योग से आत्मस्वरूप के यथार्थ ज्ञानरूपी अनुभवरस का आस्वादन करके कुछ शान्त हो जाती है। सचमुच ! तत्त्व-पिपासा के शमनरूप यह पारणा सर्व सांसरिक विभावरूप दुःख का वारण-निवारण करता है। जैसे वर्षाकाल में हरा घास उगता है वैसे यहां अशुभ आचार के निवारणरूप तृण-अंकुप फूटते हैं। जैसे, वर्षाकाल में किसान जमीन में बीज बोता है वैसे यहां सम्यग्दृष्टि जीव में विरति के परिणामरुप बीज की पूर्ति-बौनी होती है।

चातक श्रमण समूह करे तब पारणो रे, क.
अनुभव रस आस्वाद सकल दु:ख वारणो रे; स.
अशुभाचार निवारण तृण अंकुरता रे, तृ.
विरति तणा परिणाम ते बीजनी पूरता रे     ।।ते. 5।।
अर्थ 6 : वर्षाकाल में बोये गये बीज जैसे ऊग कर बढ़ते हैं, वैसे यहां जिनभक्तिरूप जलधारा के प्रभाव से पांच महाव्रतरूपी धान्य के अंकुर बढ़ने लगते हैं और वे शुद्धात्म स्वरूप की पूर्णतारूप साध्य को सिद्ध करने के साधन बन जाते हैं। उससे क्षायिक स्म्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रादि अनन्त गुणरूपी धान्य आत्म-मंदिर में प्रकट होता है।

पंच महाव्रत धान्य, तणां कर्षण वध्यां रे, त.
साध्यभाव निज थापी, साधनतायें सध्यां रे, सा.
क्षायिक दरिसण ज्ञान, चरण गुण उपना रे, च.
आदिक बहु गुण सस्य, आतम घर नीपना रे    ।।आ. 6।।
अर्थ 7 : जिनदर्शनरूप महामेघ के आगमन से असंख्यात प्रदेशरूप मेरी आत्मा के देश में परमानन्दरूप सुभिक्ष-सुकाल हुआ है। अतः हे भव्य आत्माओं ! तुम सब देवों में चन्द्र समान उज्जवल ऐसे श्री जिनेश्वर प्रभु के ज्ञानादि गुणों का आदर-बहुमानपूर्वक अनुभव करो। उस अनुभवज्ञान के प्रभाव से तुम सादि-अनन्तकाल तक आत्मा के अक्षय, अनन्त, अव्याबाध सुख का अनुभव कर सकोगे।

प्रभु दरिसण महा मेह, तणे प्रवेशमें रे, त.
परमानंद सुभिक्ष, थयो मुझ देशमें रे, ध.
'देवचंद्र' जिनचंद्र, तणो अनुभव करो रे, त.
सादि अनंतो काल, आतम सुख अनुसरो रे    ।।आ. 7।।


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