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Sunday, August 27, 2023

पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa prabhu Sawayo - Parshwanath song jain stavan

|| Parshwa prabhu Sawayo Devchandraji Jain stavan SONG ||
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 Parshwa prabhu Sawayo स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री पार्श्वनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa prabhu Sawayo
Devchandraji krut chovishi






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||  पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa


 prabhu Sawayo ||  


सहज गुण आगरो स्वामी सुख सागरो; ज्ञान वईरागरो प्रभु सवायो;
शुद्धता एकता तीक्ष्णता भावथी, मोहरिपु जीती जय पडह वायो     ।।1।। 

वस्तु निज भाव अविभास नि:कलंकता, परिणति वृत्तिता करी अभेदे;
भाव तादात्म्यता शक्ति उल्लासथी, संतति योगने तुं उच्छेदे     ।।2।। 

दोष गुण वस्तुनो लखीय यथार्थता, लही उदासीनता अपर भावे;
ध्वंसि तज्जन्यता भाव कर्त्तापणुं, परम प्रभु तुं रम्यो निज स्वभावे     ।।3।। 

शुभ अशुभ भाव अविभास तहकीकता, शुभ अशुभ भाव तिहां प्रभु न कीधो;
शुद्ध परिणामता वीर्य कर्त्ता थई, परम अक्रियता अमृत पीधो     ।।4।। 

शुद्धता प्रभुतणी आत्मभावे रमे, परम परमात्मता तास थाये;
मिश्र भावे अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आये     ।।5।। 

उपशम रसभरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटी;
कारणे कार्य निष्पत्ति श्रद्धान छे, तिणे भव भ्रमणनी भीड मेटी     ।।6।। 

नयर खंभायते पार्श्व प्रभु दरशने, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो;
हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो     ।।7।। 

आज कृतपुण्य धन्य दीह माहरो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो;
देवचंद्र स्वामी त्रेवीशमो वंदीयो, भक्तिभर चित्त तुज गुण रमाव्यो     ।।8।।


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अर्थ 1 : प्रभु कैसे हैं? यह बताते हैं। सहज स्वाभाविक गुणों के धाम हैं, अव्याबाध, अविनाशी सुख के सिन्धु हैं, ज्ञानरुप वज्र-हीरा की खान है, सवाया-साद सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान् ने शुद्धता (सम्यग्ज्ञान की निर्मलता), एकता (स्वरुप तन्मयता) और तीक्ष्णता (वीर्यगुण की तीव्रता) के भाव द्वारा मोहशत्रु को जीतकर जय पडह-विजय का डंका बजाया है।

सहज गुण आगरो स्वामी सुख सागरो; ज्ञान वईरागरो प्रभु सवायो;
शुद्धता एकता तीक्ष्णता भावथी, मोहरिपु जीती जय पडह वायो     ।।1।।

अर्थ 2 : अब शुद्धता, एकता और तीक्ष्णता की व्याख्या बताते हैं। वस्तु के स्वरुप का यथार्थ ज्ञान, यह निशष्कलंकता शुद्धता है। आत्मपरिणति में वृत्ति का अभेद, यह एकता है और तादात्म्य भाव से रही हुई वीर्य-है।

वस्तु निज भाव अविभास नि:कलंकता, परिणति वृत्तिता करी अभेदे;
भाव तादात्म्यता शक्ति उल्लासथी, संतति योगने तुं उच्छेदे     ।।2।।

अर्थ 3 : वस्तु के गुण-दोषों की यथार्थता जानकर परभाव से उदासीन होकर और तदुत्पत्ति सम्बन्ध से उत्पन्न अर्थात् पुद्गल के सम्बन्ध से पेदा हुए विभाग-कर्तुत्व का नाश करके हे प्रभो! आप अपने परम शुद्ध स्वभाव में रमण कर रहे हैं।

दोष गुण वस्तुनो लखीय यथार्थता, लही उदासीनता अपर भावे;
ध्वंसि तज्जन्यता भाव कर्त्तापणुं, परम प्रभु तुं रम्यो निज स्वभावे     ।।3।।

अर्थ 4 : शुभ अथवा अशुभ भाव की यथार्थ (निश्चित) पहचान करके शुभ या अशुभ पदार्थों में हे प्रभो! आपने शुभाशुभ भाव अर्थात् राग-द्वेष नहीं किया परन्तु शुद्ध पारिणामिक-भाव में वीर्यगुण को प्रवर्तितकर परम अक्रियतारुप अमृतरस का पान किया है।

शुभ अशुभ भाव अविभास तहकीकता, शुभ अशुभ भाव तिहां प्रभु न कीधो;
शुद्ध परिणामता वीर्य कर्त्ता थई, परम अक्रियता अमृत पीधो     ।।4।।
अर्थ 5 : प्रभु की पूर्ण शुद्धता का जो जीव आत्म-स्वभाव में अभेद भाव से चिन्तर कर ध्यान द्वारा उसमें ही रमण करता है अर्थात् मेरी आत्मा भी सत्तारुप से पूर्ण शुद्ध स्वरुप है। ऐसा निश्चय कर प्रभु की पूर्ण शुद्धता में तन्म्य बनता है, उसे वैसी ही परम परमात्म-दिशा प्राप्त होती है। क्षयोपशमभाव में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की भिन्नता मालूम होत है परन्तु क्षायिक यथाख्यात चारित्र प्राप्त होने पर तीनों गुणों की एकरुपता हो जाती है।

शुद्धता प्रभुतणी आत्मभावे रमे, परम परमात्मता तास थाये;
मिश्र भावे अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आये     ।।5।।

अर्थ 6 : उपशम-सुधारस से परिपूर्ण और सर्व जीवों को सुख देनेवाली श्री जिनेश्वर प्रभु की मूर्ति के साक्षात्कार से अर्थात् आज उसके दर्शन-वन्दन-सेवन अपूर्व हर्षाोल्लास के साथ करने से ऐसी दृढ प्रतीति हो गई है कि, मोक्ष के पुष्ट-निमित्त कारणरुप जिनदर्शन और जिनसेवा का योग मिला है, उससे मोक्षरुप कार्य की सिद्धि अवश्य होगी। ऐसी दृढ प्रतीति होने के साथ ही मेरे भवभ्रमण का भय भी भाग गया (कारण में कार्य का उपचार करके हर्षावेश से निकला हुआ कवि का यह अनुभव वचन है)।

उपशम रसभरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटी;
कारणे कार्य निष्पत्ति श्रद्धान छे, तिणे भव भ्रमणनी भीड मेटी     ।।6।।

अर्थ 7 : खम्भात नगर में बिराजमान श्री सुखसागर पार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन-वन्दन करते समय रोमराजि विकसित होने के अपूर्व हर्ष और उत्साह की उर्मियां उत्पन्न होने लगी और श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ ध्यान द्वारा तन्मयता सिद्ध होने से आत्म-रमणता प्राप्त हुई। इससे अनुमान होता है कि सिद्धि की साधकता मेरी आत्मा में प्रकटित हुई है।

नयर खंभायते पार्श्व प्रभु दरशने, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो;
हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो     ।।7।।

अर्थ 8 : देवों में चन्द्र समान समुज्जवल श्री पार्श्वनाथ प्रभु को भावपूर्वक वन्दन किया और भक्ति से भरपूर चित्त प्रभु के गुण में रमण करने लगा। इसलिए आज मेरा महान पुण्योदय जागृत हुआ है। आज का यह दिन धन्य बना है। और सचमुच ! आज मेरा यह जन्म भी सफल बन गया है।

आज कृतपुण्य धन्य दीह माहरो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो;
देवचंद्र स्वामी त्रेवीशमो वंदीयो, भक्तिभर चित्त तुज गुण रमाव्यो     ।।8।।



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MATUSHREE PAVANIDEVI AMICHANDJI KHATED SANGHVI 


JAINAM JAYATI SHASHNAM

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Mallinath Jagnath Thaye Nirabad Devchandraji chovisi stavan 19

|| Mallinath Jagnath Thaye Nirabad Devchandraji LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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 Mallinath Jagnath Thaye Nirabad स्तवन स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री मल्लिनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan
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||  मल्लिनाथ जगनाथ निराबाधना ||  


श्री मल्लिनाथ जिन स्तवन

मल्लिनाथ जगनाथ चरणयुग ध्याईये रे,  च.
शुद्धताम प्राग्भाव परम पद पाईये रे; प.
साधक कारक षट्क करे गुण साधना रे, क.
तेहिज शुद्ध सरूप, थाय निराबाधना रे     ।।था.1।।

कर्ता आतम द्रव्य, कार्यनिज सिद्धतारे, का.
उपादान परिणाम, प्रयुक्त ने करणता रे; प.
आतम संपद दान तेह संप्रदानता रे, ते.
दाता पात्रने देय, त्रिभाव अभेदता रे     ।।त्रि. 2।।

स्व पर विवेचन करण तेह अपादानथी रे, ते.
सकल पर्याय आधार संबंध आस्थानथी रे; स.
बाधक कारक भाव, अनादि निवारवो रे, अ.
साधकता अवलंबी, तेह समारवो रे     ।।ते. 3।।

शुद्धपणे पर्याय प्रवर्तन कार्यमें रे; ते.
कर्तादिक परिणाम ते आतम धर्ममें रे; ते
चेतन चेतन भाव करे समवेतमें रे, क.
सादि अनंतो काल, रहे निज खेतमें रे     ।।र. 4।।

पर कर्तृत्व स्वभाव करे तां लगी करे रे, क.
शुद्ध कार्य रुचि भास थये नवि आदरे रे; थ.
शुद्धात्म, निज कार्य रुचे कारक फिरे रे, रु.
तेहिज मूल स्वभाव, ग्रहे निज पद वरे रे     ।।ग्र. 5।।

कारण कारज रुप, अछे कारक दशा रे।। अछे.।।
वस्तु प्रगट पर्याय, एह मनमें वस्या रे ।। एह.।।
पण शुद्ध स्वरुप ध्यान, चेतनता ग्रह रे।। चेतनता.।।
तव निज साधकभाव सकल कारक लहे रे।।     ।।स. 6।।

माहरुं पूर्णानंद, प्रकट करवा भणी रे।। प्रकट.।।
पुष्टालंबन रुप, सेव प्रभुजी तणी रे ।। सेव।।
'देवचंद्र' जिनचंद्र, भक्ति मनमे धरो रे ।। भक्ति.।।
अव्याबाध अनंत, अक्षय पद आदरो रे    ।।अ. 7।।



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अर्थ 1 : जगत् के नाथ श्री मल्लिनाथ परमात्मा के पाद-पद्म का ध्यान करने से शुद्ध परमात्म पद का प्रादुर्भाव होता है। क्योंकि श्री अरिहन्त प्रभु की सेवा से साधक के छहों कारक ज्ञानादि गुणों की साधना करते हैं और आत्मा का पूर्ण शुद्ध स्वरूप प्रकट होने पर वे ही षट्कारक निराबाधरुप में परिणत होते हैं।

मल्लिनाथ जगनाथ चरणयुग ध्याईये रे,  च.
शुद्धताम  प्राग्भाव परम पद पाईये रे; प.
साधक कारक षट्क करे गुण साधना रे, क.
तेहिज शुद्ध सरूप, थाय निराबाधना रे     ।।था.1।।
अर्थ 2 : (1) कर्ता : आत्मद्रव्य आत्मशुद्धिरूप कार्य में प्रवृत्त हुआ। यह प्रथम कर्ता कारक है। (2) कार्य : स्वसिद्धता (ज्ञानादि सर्व गुणों की पूर्णतारूप) कार्य – यह दूसरा कार्य (कर्म) कारक है। (3) कारण : उपादानपरिणाम, तत्त्वरूचि, तत्त्वज्ञान, तत्त्वपरिणति-तत्त्वरमणता, ये उपादान-कारण है और अरिहन्तादि निमित्त कारण हैं, इनका प्रयोग करना यह तीसरा करण कारक है। (4) संप्रदान : आत्मसम्पत्ति का दान अर्थात् ज्ञान, दर्शन, चारित्र का दान आत्मा स्वयं अपने उत्तरोत्तर गुण को प्रकट करने के लिए करे, यह चौथा सम्प्रदान कारक है। यहाँ दाता आत्मा है, पात्र भी आत्मा है और देय आत्मगुण है। इस प्रकार तीनों की अभेदता है।

कर्ता आतम द्रव्य, कार्यनिज सिद्धतारे, का.
उपादान परिणाम, प्रयुक्त ने करणता रे; प.
आतम संपद दान तेह संप्रदानता रे, ते.
दाता पात्रने देय, त्रिभाव अभेदता रे     ।।त्रि. 2।।
अर्थ 3 : (5) अपादान : स्व-पर की विवेक करना। जैसे, ज्ञानादि आत्मगुण ‘स्व’ है और रागद्वेषादि ‘पर’ है। ऐसा विचारकर उनका विवेक करना यह पांचवां अपादान कारक है। (6) आधार : समग्र स्व-पर्याय का आधार आत्मा है। आत्मा का स्वपर्याय के साथ स्व-स्वामित्वादि संबंध है, उसका आस्थान-आधार क्षेत्र आत्मा है। यह छठा आधार कारक है। अनादि से बाधकभाव से (मिथ्यात्व-अविरति-कषायादि में) परिणत षट्कारक के चक्र को रोककर साधकता के आलम्बन द्वारा ‘स्वरूप-अनुयायी’ बनाना चाहिए। जिससे सिद्धता-मोक्षरूप स्वकार्य की सिद्धि हो।

स्व पर विवेचन करण तेह अपादानथी रे, ते.
सकल पर्याय आधार संबंध आस्थानथी रे; स.
बाधक कारक भाव, अनादि निवारवो रे, अ.
साधकता अवलंबी, तेह समारवो रे     ।।ते. 3।।
अर्थ 4 : अब सिद्ध अवस्था में षट्कारक-प्रवृत्ति किस प्रकार है? यह बताते हैं -(1) कर्ता : शुद्ध ज्ञान-दर्शनादि पर्यायों को जानने-देखनेरूप कार्य का अथवा उत्पाद-व्ययरूप से परिणमन का कर्ता शुद्ध आत्मा है। (2) कार्य : शुद्ध ज्ञानादि पर्यायों को जानने-देखने ते र्ता में प्रवचन होना यह कार्य कारक है। (3) करण : केवलज्ञानादि गुण करण कारक है। (4) संप्रदान : आत्म-गुणों का परस्पर सहायरूप दान अथवा लाभ, यह संप्रदान है। (5) अपादान : परभाव का त्याग अपादान कारक है। (6) अनन्त गुणों का आश्रय आत्मा है, यह आधार है। इस प्रकार पूर्ण शुद्ध आत्मदशा में कतादि षट्कारक का परिणमन स्व-स्वरूप में ही होता है। आत्मा समवाय संबंध से अपने में रहे हुए ज्ञानादि स्वकार्य का कर्ता है और इसीलिए सिद्ध परमात्मा सादि-अनन्तकाल तक असंख्यात प्रदेशरूप क्षेत्र में ही रहते हैं।

शुद्धपणे पर्याय प्रवर्तन कार्यमें रे; ते.
कर्तादिक परिणाम ते आतम धर्ममें रे; ते
चेतन चेतन भाव करे समवेतमें रे, क.
सादि अनंतो काल, रहे निज खेतमें रे     ।।र. 4।।
अर्थ 5 : यह जीव जब तक पर (पुद्गल) वस्तुओं को अपनी मानकर उनका भोग करता हैं तब तक ही उसे पर का कर्तृत्व (परकर्तापन) होता है। परंतु इस जीव को जब शुद्ध आत्मस्वरूप प्रकट करने की रूचि जाग्रत होती है, तब वह जीव पर-कर्तृत्व को स्वीकार नहीं करना अर्थात् मोक्षरूपी कार्य को करने की अभिलाषा होने पर, पर का कर्तृत्व उसमें नहीं रहता। शुद्धात्मस्वरूप की प्राप्तिरूप कार्य को करने की रुचि होने से कारकचक्र परिवर्तित हो जाता है और स्व-कार्य के अनुरूप वह अपने मूल स्वभाव को अर्थात् अपने अचल अखण्ड, अविनाशी आत्मस्वभाव को ग्रहण करता है। जिसके फलस्वरूप आत्मा अपने परमात्म-पद को प्राप्त करता है।

पर कर्तृत्व स्वभाव करे तां लगी करे रे, क.
शुद्ध कार्य रुचि भास थये नवि आदरे रे; थ.
शुद्धात्म, निज कार्य रुचे कारक फिरे रे, रु.
तेहिज मूल स्वभाव, ग्रहे निज पद वरे रे     ।।ग्र. 5।।
अर्थ 6 : षट्कारक क्या है? कर्तादि छहों कारकों की अवस्था का विचार करने से ज्ञात होता है कि कारक, कारण और कार्यरूप है। क्योंकि, वे कार्य को सिद्ध करने के साधन हैं और वे वस्तु (आत्मा) के प्रकट निरावरण पर्याय हैं। यह शास्त्रवचन मन में रहा हुआ है, परन्तु जब निराकार या साकार चेतना शुद्ध आत्मस्वरूप के ध्यान में लीन होती है तब कर्तादि छहों कारक परभाव को छोड़कर निज साधकभाव को प्राप्त करती हैं। कर्म का विदारण करना और स्वरूप को प्रकट करना, यही कारक का साधक स्वभाव है।

कारण कारज रुप, अछे कारक दशा रे।। अछे.।।
वस्तु प्रगट पर्याय, एह मनमें वस्या रे ।। एह.।।
पण शुद्ध स्वरुप ध्यान, चेतनता ग्रह रे।। चेतनता.।।
तव निज साधकभाव सकल कारक लहे रे।।     ।।स. 6।।
अर्थ 7 : इस प्रकार श्री अरिहन्त परमात्मा के दर्शन, पूजा और सेवा से छहों कारकों का वाधकभाव मिटकर साधकभाव हो जाने से क्रमशः पूर्णानन्द स्वरूप की प्राप्ति होती है। अतः मेरे पूर्णानन्द अव्याबाध सुख को प्रकट करने में पुष्ट (नियामक) निमित्त-आलंबनरूप श्री अरिहन्त प्रभु की सेवा (आज्ञापालन) ही है। अतः देवों में चन्द्र के समान निर्मल ऐसे जिनेश्वर परमात्मा की परम भक्ति को हृदय में धारण करो और अव्याबाध (परभाव की पीड़ा-रहितः, अनन्त, अक्षय पद को प्राप्त करो। जिन भक्ति ही सारी साधनाओं का सार है।

माहरुं पूर्णानंद, प्रकट करवा भणी रे।। प्रकट.।।
पुष्टालंबन रुप, सेव प्रभुजी तणी रे ।। सेव।।
'देवचंद्र' जिनचंद्र, भक्ति मनमे धरो रे ।। भक्ति.।।
अव्याबाध अनंत, अक्षय पद आदरो रे    ।।अ. 7।।

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Saturday, August 26, 2023

Munichand jinand Sri Shreyansh prabhu tano Devchandraji श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन

|| Shital jinpati Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी स्तवन सांग

जैन स्तवन


Munichand jinand, Sri Shreyansh prabhu tano ,Devchandraji ,श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन,Devchandraji Stavan,24 tirthankar,jain chovishi श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे; गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज । मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे
Munichand jinand Sri Shreyansh prabhu tano Devchandraji
श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन



Shreyanshnath bhagwan






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||  श्री श्रेयांस प्रभु तणो मुनिचंद जिणंद अमंद ||  


श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे;
गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज ।
मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे     ।।1।।
 
निज ज्ञाने करी ज्ञेयनो, ज्ञायक ज्ञाता पद ईश रे;
देखे निज दर्शन करी, निज दृश्य सामान्य जगीश रे     ।।मुनिचंद 2।।
 
निज रम्ये रमण करो, प्रभु चारित्रे रमताराम रे;
भोग्य अनंतने भोगवो, भोगे तेणे भोक्ता स्वाम रे     ।।मुनिचंद 3।।
 
देय दान नित दीजते, अति दाता प्रभु स्वयमेव रे;
पात्र तुमे निज शक्तिना, ग्राहक व्यापकमय देव रे     ।।मुनिचंद 4।।
 
परिणामी कारज तणो, कर्ता गुण करणे नाथरे;
अक्रिय अक्षय स्थितिमयी, निकलंक अनंती आथरे     ।।मुनिचंद 5।।

पारिणामिक सत्ता तणो, आविर्भाव विलास निवास रे;
सहज अकृत्रिम अपराश्रयी, निर्विकल्प ने नि:प्रयास रे।।मुनिचंद 6।।

प्रभु प्रभुता संभारतां, गातां करतां गुणग्राम रे;
सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे     ।।मुनिचंद 7।।
 
प्रगट तत्त्वता ध्यावतां, निज तत्त्वनो ध्याता थाय रे,
तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरण तत्त्वे एह समाय रे     ।।मुनिचंद 8।।
 
प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूरणानंद रे,
देवचंद्र जिनराजना, नित्य वंदो पद अरविंद रे     ।।मुनिचंद 9।।



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अर्थ 1 : श्री श्रेयांसनाथ प्रभु का सहजानंद स्वरूप अत्यन्त आश्चर्यजनक है। प्रभु का एक-एक गुण तीन प्रकार से परिणत होता है। प्रभु ऐसे अनन्त गुण के भण्डार है। मुनियों में चन्द्र समान उज्जवल-दैदीप्यमान, सूर्य के समान नित्य दीप्तिमान और सुख के कन्द प्रभु सदा अपने स्व-गुणपर्याय परिणमनरूप कार्य व्यक्तरूप कार्य में-प्रकट रीति से कर रहे हैं।

श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे;
गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज ।
मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे     ।।1।।

अर्थ 2 : परमात्मा अपने केवलज्ञान गुण से सर्वज्ञेय पदार्थो के ज्ञायक हैं। अत एव ज्ञातापद के स्वामी हैं। केवलज्ञान कारण है और सर्व ज्ञेय को जानना कार्य है, केवलज्ञान की प्रवत्ति क्रिया है और उसके कर्त्ता परमात्मा हैं। दर्शन गुण की त्रिविध परिणति भी इसी तरह समझनी चाहिए। निज दर्शन (केवलदर्शन) गुण के द्वारा परमात्मा देखने योग्य स्वयं की सर्व सामान्य सम्पदा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्वादि को देखते हैं। उपलक्षण से सर्व द्रव्यों में रहे हुए सामान्य को भी देखते हैं। आत्मा (कर्त्ता) दर्शनेन (करण) दृश्यभावनां (कार्य-साध्य) दर्शन-करोति (क्रिया)। जीव द्रव्य की गुण परिणति सिद्ध अवस्था में तीन रूप में परिणत होती है अर्थात् करण, कार्य और क्रियारूप में ज्ञानादि गुणों का परिणमन होता है । यहाँ उपादानरूप में प्रकट कारण यह ‘करण’ है। उस करण का साध्य (फल) वह कार्य है तथा करने की प्रवृत्ति यह क्रिया है। जैसे कि, केवलज्ञान गुण यह करण है और उससे सर्व ज्ञेय पदार्थो का बौध होना यह साध्य फलरूप ‘कार्य’ है और जानने के लिए जो वीर्य के सहकार से ज्ञान की स्फुरणा होती है वह प्रवृत्तिरूप ‘क्रिया’ है।

निज ज्ञाने करी ज्ञेयनो, ज्ञायक ज्ञाता पद ईश रे;
देखे निज दर्शन करी, निज दृश्य सामान्य जगीश रे     ।।मुनिचंद 2।।

अर्थ 3 : चारित्र गुण के द्वारा निज (रम्य) शुद्धात्म-परिणति में निरन्तर रमणता करनेवाले होने से परमात्मा रमतेराम हैं। यहां चारित्रगुण ‘करण’ है, स्वात्मा में रमण ‘कार्य’ है। इसी तरह प्रभु भोग गुण के द्वारा भोग्यरूप आत्मस्वरूप-अनन्त ज्ञानादि गुण को भोगते हैं अतःभोक्ता हैं। (भोग्य गुण करण है, भोग्य कार्य है और भोगने की प्रवृत्ति क्रिया है।)

निज रम्ये रमण करो, प्रभु चारित्रे रमताराम रे;
भोग्य अनंतने भोगवो, भोगे तेणे भोक्ता स्वाम रे     ।।मुनिचंद 3।।

अर्थ 4 : दान गुण के द्वारा आप सर्व गुणों का स्व-प्रवृत्ति में वीर्य का सहकाररूप दान सदा देते हैं, अतः हे प्रभो ! आप ही स्वयं देय, दान और दाता है। जिस गुण को सहकार मिला है उसे लाभ की प्राप्ति हुई है। इसी तरह हे देव ! आप निज आत्मशक्ति के पात्र-आधार हैं; उस आत्मशक्ति के ही आप ग्राहक हैं और उसमें व्यापक हैं।

देय दान नित दीजते, अति दाता प्रभु स्वयमेव रे;
पात्र तुमे निज शक्तिना, ग्राहक व्यापकमय देव रे     ।।मुनिचंद 4।।

अर्थ 5 : हे नाथ ! आप अव्याबाध सुखादि गुणों (करण) द्वारा सुखानुभवादि (कार्य) करते हैं। अतः आप ही गुण-करण द्वारा परिणामो कार्य के कर्त्ता हैं, अन्य किसी द्रव्य में कर्तृत्व धर्म नहीं है। इसी तरह आप अक्रिय-गमनक्रियारहित, अक्षय स्थितिवाले, निष्कलंक-सर्व कर्मकलंकरहित और अनन्त ज्ञानादि सम्पत्ति के स्वामी हैं।

परिणामी कारज तणो, कर्ता गुण करणे नाथरे;
अक्रिय अक्षय स्थितिमयी, निकलंक अनंती आथरे     ।।मुनिचंद 5।।

अर्थ 6 : परमात्मा अपनी पूर्णरूप से प्रकटित पारिणामिक सत्ता के अनुभव के भण्डार (घर) हैं। इसी तरह वे अपनी सहज, अकृत्रिम (स्वाभाविक), स्वतन्त्र, निर्विकल्प आत्मसत्ता का बिना किसी प्रयत्न के अनुभव करते हैं।

पारिणामिक सत्ता तणो, आविर्भाव विलास निवास रे;
सहज अकृत्रिम अपराश्रयी, निर्विकल्प ने नि:प्रयास रे।।मुनिचंद 6।।

अर्थ 7 : परमात्मा की अनन्त प्रभुता का स्मरण करने से तथा उच्च स्वर से उनके गुण समूह की स्तुति (गान) करने से भक्तसेवक निज संवर-परिणति स्वभाव रमणतारूप आत्मसाधना को प्राप्त करता है अर्थात् अनादि की विबावन परिणतता छोड़कर स्वभाव में मग्न बनता है।

प्रभु प्रभुता संभारतां, गातां करतां गुणग्राम रे;
सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे     ।।मुनिचंद 7।।

अर्थ 8 : प्रभु की प्रकट प्रभुता का श्रुत उपयोग द्वारा ध्यान करने से आत्मतत्त्व का भी ध्यान हो सकता है और जब ध्याता आत्मतत्त्व के ध्यान में तन्म्य बनता है तब क्रमशः निर्विकल्प-समाधि को पाकर पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है।

प्रगट तत्त्वता ध्यावतां, निज तत्त्वनो ध्याता थाय रे,
तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरण तत्त्वे एह समाय रे     ।।मुनिचंद 8।।

अर्थ 9 : परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन से उनमें रही हुई पूर्णानन्दमयी प्रभुता का ध्यान आता है अर्थात् चेतन परमगुणी का अनुयायी बनता है। यही आत्म-साधना का प्रधान अंग है। अतः है भव्यजनों ! तुम देवों में चन्द्र समान दैदीप्यमान जिनेश्वर भगवन्त के चरणकमलों में सदा नमस्कार करो और उन्हें ही त्राण, शरण, आधार एवं सर्वस्व मानकर उनकी सेवा में ही तन्मय-तल्लीन रहो। अरिहन्त की सेवा से अवश्य परम सुख की प्राप्ति होती है।

प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूरणानंद रे,
देवचंद्र जिनराजना, नित्य वंदो पद अरविंद रे     ।।मुनिचंद 9।।

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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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Shital Jinpati prabhuta Devchandraji stavan शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी

|| Shital jinpati Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी स्तवन सांग

जैन स्तवन


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Suvidhinath devchandra stavan Ditho suvidhijinand दीठो सुविधि जिणंद ho lal 





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||  शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी ||  


शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुजथी कहीय न जायजी;

अनंतता निर्मलता पूर्णता, ज्ञान विना न जणायजी     ।।1।।

चरम जलधि जल मिणे अंजलि, गति जीपे अति वायजी;

सर्व आकाश ओलंघे चरणे, पण प्रभुता न गणायजी     ।।2।।

सर्व द्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुण पर्यायजी;

तास वर्गथी अनंतगणुं प्रभु, केवलज्ञान कहायजी     ।।3।।

केवल दर्शन एम अनंतुं, ग्रहे सामान्य स्वभावजी;

स्वपर अनंतथी चरण अनंतुं, समरण संवर भावजी     ।।4।।

द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव गुण, राजनीति ए चारजी;

त्रास विना जड चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कारजी     ।।5।।

शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगे, जे समरे प्रभु नामजी;

अव्याबाध अनंतुं पामे, परम अमृत सुख धामजी     ।।6।।

आणा ईश्वरता निर्भयता, निर्वांछकता रूपजी;

भाव स्वाधीन ते अव्यय रीते, ईम अनंत गुण भूपजी     ।।7।।

अव्याबाध सुख निर्मल ते तो, करण ज्ञाने न जणायजी;

तेह ज एहनो जाणग भोक्ता, जे तुम सम गुणरायजी     ।।8।।

एम अनंत दानादिक निज गुण, वचनातीत पंडूरजी;

वासन भासन भावे दुर्लभ, प्राप्ति तो अति दूरजी     ।।9।।

सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन गुरु, जाणुं तुज गुणग्रामजी;


बीजुं कांई न मागुं स्वामी, एहि करो मुज कामजी     ।।10।।

ईम अनंत प्रभुता, सद्हतां, अरचे जे प्रभु रूपजी;

देवचंद्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी     ।।11।।



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अर्थ 1 : श्री शीतलनाथ प्रभु की परम प्रभुता का वर्णन मुझसे नहीं हो सकता क्योंकि प्रभु की प्रभुता की अनन्तता, निर्मलता और पूर्णता का पूर्ण स्वरूप केवलज्ञान के बिना नहीं जाना जा सकता और नहीं देखा जा सकता है। केवलज्ञानी भगवन्त भी प्रभुता को प्रत्यक्ष जानते है परंतु उसका वर्णन नहीं कर सकतें हैं। क्योंकि प्रभु की प्रभुता अनन्त है और वचन क्रमिक है एवं आयुष्य परिमित है। प्रभुता निरावरण-निःसंग होने से निर्मल है और सम्पूर्णरूप से प्रकट होने के कारण पूर्ण हैं।

शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुजथी कहीय न जायजी;
अनंतता निर्मलता पूर्णता, ज्ञान विना न जणायजी     ।।1।।

अर्थ 2 : कदाचित् कोई समर्थ व्यक्ति स्वयंभूरमण समुद्र के (साधिक तीन रज्जु विस्तार परिधिवाले) पानी को अंजलि से माप सकता है। शीघ्रगति से प्रचण्ड वायु के वेग को भी जीत सकता है। पैदल चलकर लोकालाकरूप आकाश को भी पार कर सकता है परन्तु वह प्रभुता को कदापि गिन नहीं सकता। यह असंभवित दृष्टांत प्रभु की अनन्तता कितनी अनन्त एवं अगम्य है। यह बताने के लिए ही दिया गया है।

चरम जलधि जल मिणे अंजलि, गति जीपे अति वायजी;
सर्व आकाश ओलंघे चरणे, पण प्रभुता न गणायजी     ।।2।।

अर्थ 3 : जगत् में जीवादि द्रव्य अनन्त हैं। उनसे प्रदेश अनन्त हैं। प्रदेशों से गुण अनन्त हैं और गुणों से पर्याय अनन्त हैं। उनका वर्ग करने से जो अनन्त-राशि प्राप्त होती है उस अनन्त-राशि से भी प्रभु का केवलज्ञान अनन्तगुण अधिक-विशाल है।

सर्व द्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुण पर्यायजी;
तास वर्गथी अनंतगणुं प्रभु, केवलज्ञान कहायजी     ।।3।।

अर्थ 4 : केवलज्ञान गुण की तरह सर्व द्रव्यों के सामान्य स्वभाव को ग्रहण करनेवाला केवलदर्शन गुण भी अनन्त है। इसी तरह प्रभु का चारित्र गुण भी अनन्त पर्याय से युक्त होने के कारण अनन्त है। चारित्र अर्थात् स्वधर्म (स्वभाव) में रमण और परधर्म में अरमण अथवा स्वरूपरमण और परभाव निवृत्ति-यह चारित्र परिणति का स्वरूप है। अपनी ज्ञान, दर्शन और वीर्यादि गुणों की परिणमन शक्ति को सर्व परभावों से रोककर स्वभाव में ही स्थिर रखना, यह संवरभावरूप चारित्र कीू अनन्तता है। वीर्यादि गुण की भी स्वधर्म सापेक्ष अनन्तता समझ लेनी चाहिए।

केवल दर्शन एम अनंतुं, ग्रहे सामान्य स्वभावजी;
स्वपर अनंतथी चरण अनंतुं, समरण संवर भावजी     ।।4।।

अर्थ 5 : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से श्री वीतराग अरिहन्त महाराजा की राजनीति चार प्रकार की है। उसका उल्लंघन कोई भी जड़ या चेतन पदार्थ नहीं कर सकता। अतः समस्त विश्व में प्रभु की आज्ञा अखण्ड रूप से चल रही है। जगत के राजा की आज्ञा को कोई मान्य करे, कोई मान्य न करे, ऐसा भी हो सकता है। परन्तु अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा को सृष्टि के समग्र पदार्थ मान्य करते हैं। जिस रूप में परमात्मा का ज्ञान परिणत होता है उसी रूप में सब पदार्थ परिणत होते हैं। परमात्मा ने जिस रूप में पदार्थो की प्ररूपणा की है उसी रूप में सर्व द्रव्यों की परिणति है। प्रभु न तो किसी को त्रास देते हैं और न किसी को भय दिखाते हैं तो भी सब पदार्थ प्रभु की आज्ञा का लोप बिना, प्रभु की ज्ञान-परिणति के अनुसार ही परिणत होते रहते हैं।

द्रव्य क्षेत्र ने काल भाव गुण, राजनीति ए चारजी;
त्रास विना जड चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कारजी     ।।5।।

अर्थ 6 : जो साधक दग्धादि दोषों को तजकर शुद्ध-आशय (मोक्षप्राप्ति के हेतु) से अरिहन्त परमात्मा के गुणों में ही स्थिर उपयोग रखकर प्रभु का स्मरण-ध्यान आदि करता है, वह अवश्य परम अमृत सुख के भण्डाररूप अनन्त अव्याबाध सुख को प्राप्त करता है।

शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगे, जे समरे प्रभु नामजी;
अव्याबाध अनंतुं पामे, परम अमृत सुख धामजी     ।।6।।

अर्थ 7 : आज्ञा, परम ऐश्वर्य, निष्कामता, स्वाधीनता, अविनाशिता आदि अनन्त गुण के स्वामी अरिहन्त परमात्मा है। वह इस प्रकार आज्ञा-राजा, वासुदेव या चक्रवर्ती की आज्ञा अपने अपने राज्य की मर्यादा में स्वार्थ या भय सें लोंगों द्वारा मानी जाती है परन्तु अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा का पालन को समग्र विश्व में सहजरूप से होता है। ऐश्वर्य – परमात्मा के पास स्वाभाविक अनन्त गुण-पर्यायमय सम्पत्ति है। निर्भयता – परमात्मा सदा सर्वदा सर्व भयों से रहित हैं। निष्कामता – परमातामा कामना (इच्छा) बिना ही सर्व ज्ञानादि सम्पत्ति के भोक्ता हैं। स्वाधीनता – परमात्मा का स्वभाव स्वाधीन है, वे कर्म की पराधीनता से मुक्त हैं। अविनाशिता – परमात्मा की सर्वसम्पदा नित्य-अविनश्वर है। (अन्य चक्रवर्ती आदि परिमित ऐश्वर्यवाले, भययुक्त, सकामी, पराधीन और विनाशी हैं।)

आणा ईश्वरता निर्भयता, निर्वांछकता रूपजी;
भाव स्वाधीन ते अव्यय रीते, ईम अनंत गुण भूपजी     ।।7।।

अर्थ 8 : प्रभु का निर्मल अव्याबाध सुख इन्द्रियादि से होनेवाले परोक्ष ज्ञान द्वारा कदापि नहीं जाना जा सकता। परन्तु जिसने प्रभु के जैसे ही गुण प्रकट किये हैं वे ही आत्मा के अव्याबाध सुख को जानते हैं और भोगते हैं।

अव्याबाध सुख निर्मल ते तो, करण ज्ञाने न जणायजी;
तेह ज एहनो जाणग भोक्ता, जे तुम सम गुणरायजी     ।।8।।

अर्थ 9 : इस प्रकार परमात्मा के दान, लाभ, योग, उपभोग और वीर्यादि अनन्त महान् गुण प्रकट हो चुके है, उनका वर्णन वाणी द्वारा नहीं हो सकता। मेरे जैसे मूढ को उन अनन्त गुणों की प्राप्ति होना तो दूर परन्तु उनकी निर्मल श्रद्धा और ज्ञान होना भी कठिन है-दुर्लभ है।

एम अनंत दानादिक निज गुण, वचनातीत पंडूरजी;
वासन भासन भावे दुर्लभ, प्राप्ति तो अति दूरजी     ।।9।।

अर्थ 10 : इस प्रकार परमात्मा की अनन्त प्रभुता की श्रद्धा करके आदर-बहुमानपूर्वक जो इन परमात्मा की द्रव्य और भाव से पूजा करता है वह अवश्य देवों में चन्द्र समान उज्जवल और परमानन्दमय प्रभुता को प्राप्त करता है।

सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन गुरु, जाणुं तुज गुणग्रामजी;
बीजुं कांई न मागुं स्वामी, एहि करो मुज कामजी     ।।10।।

ईम अनंत प्रभुता, सद्हतां, अरचे जे प्रभु रूपजी;
देवचंद्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी     ।।11।।

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