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Sunday, August 27, 2023

तार हो तार प्रभु मुज सेवक Tar ho tar sevak jain song mahavir swami devchandraji

|| Tar ho tar prabhu mujh sevak Mahavir swami - JAIN STAVAN SONG ||
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 तार हो तार प्रभु मुज सेवक स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री वीर भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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||  तार हो तार प्रभु मुज सेवक ||  


तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमां एटलुं सुजश लीजे;
दास अवगुण भर्यो जाणी पोता तणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे    ।।1।।

राग द्वेषे भर्यो मोह वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो;
क्रोध वश धमधम्यो शुद्ध गुण नवि रम्यो, भम्यो भव मांहे हुं विषय मातो    ।।2।। 

आदर्युं आचरण लोक उपचारथी, शास्त्र अभ्यास पण कांई कीधो;
शुद्ध श्रद्धा न वली आत्म अवलंब विण, तेहवो कार्य तिणे कोन सीधो    ।।3।। 

स्वामी दरिसण समो निमित्त लही निरमलो, जो उपादान ए शुचि न थाशे;
दोष को वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, स्वामी सेवा सही निकट लाशे    ।।4।। 

स्वामी गुण ओळखी स्वामीने जे भजे, दरिशण शुद्धता तेह पामे;
ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीती वसे मुक्ति धामे    ।।5।।
 
जगत वत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभुचरणने शरण वास्यो;
तार जो बापजी बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो     ।।6।।
 
विनती मानजो शक्ति ए आपजो, भाव स्याद्वादता शुद्ध भासे;
साधी साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचंद्र विमल प्रभुता प्रकाशे.     ।।7।।


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अर्थ 1 : संसार के दुःख से उद्विग्न बना हुआ मुमुक्षु आत्मा श्री महावीर परमात्मा से अफनी दीन-दुःखी अवस्था का वर्णन करता हुआ प्रार्थना करता है, हे दीनदयाल ! करुणा सागर ! प्रभो ! आप इस दीन-दुःखी दास पर दया वरसाकर उसे संसार-सागर से तारो-पार उतारो। यद्यपि, यह सेवक अनेक अवगुणों-दोषों से भरा हुआ है, राग-द्वैषदि से रंगा हुआ है तो भी इसे आप अपना सेवक-शरणागत मानकर इस पर कृषादृष्टि करो और इसे संसार-सागर से पार उतारकर जगत् में महान् सुयश-कीर्ति को प्राप्त करो । यही मेरी भावभरी विनम्र प्रार्थना है।

तार हो तार प्रभु मुज सेवक भणी, जगतमां एटलुं सुजश लीजे;
दास अवगुण भर्यो जाणी पोता तणो, दयानिधि दीन पर दया कीजे    ।।1।।

अर्थ 2 : हे प्रभो ! आपका यह सेवक राग-द्वेष से भरा हुआ है, मोहशत्रु से दबा हुआ है, लोक-प्रवाह में रंगा हुआ है अर्थात् सदा लोकरंजन में कुशल है, क्रोध के वशीभूत होकर धमधमा रहा है, शुद्ध ज्ञान-दर्शन-चारित्र या क्षमादि गुणों में तन्मय नहीं बन रहा है, परन्तु विषयों में आसक्त बनकर भवभ्रमण कर रहा है।

राग द्वेषे भर्यो मोह वैरी नड्यो, लोकनी रीतमां घणुंए रातो;
क्रोध वश धमधम्यो शुद्ध गुण नवि रम्यो, भम्यो भव मांहे हुं विषय मातो    ।।2।।

अर्थ 3 : भवभ्रमण करते-करते कभी मानवभव में आवश्यकादि द्रव्य क्रियाएँ लोकोपचार से की होगी अर्थात् विष, गरम और अन्योन्यानुष्ठानवाली क्रियाएँ की होगी तथा ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से शास्त्रों का कुछ अभ्यास भी किया होगा। परन्तु शुद्ध सत्तागत आत्मधर्म की शुद्धरूचि (श्रद्धान) बिना और आत्मगुण के आलम्बन बिना केवल बाह्यक्रिया द्वारा या स्पर्श अनुभवज्ञान बिना के शास्त्राभ्यास द्वारा सम्यग्दर्शन की प्राप्ति रूप कोई कार्य सिद्ध नहीं हुआ।

आदर्युं आचरण लोक उपचारथी, शास्त्र अभ्यास पण कांई कीधो;
शुद्ध श्रद्धा न वली आत्म अवलंब विण, तेहवो कार्य तिणे कोन सीधो    ।।3।।

अर्थ 4 : वीतराग परमात्मा के दर्शन (शासन) जैसा निर्मल पुष्ट-निमित्त प्राप्त करके भी यदि मेरी आत्मसत्ता पवित्र-शुद्ध न हो तो यह वस्तु-आत्मा का ही कोई दोष है अथवा मेरा जीवदल तो योग्य है किन्तु मेरे अपने पुरुषार्थ की ही कमी है? परन्तु अब तो स्वामीनाथ की सेवा ही मुझे प्रभु के पास ले जायेगी और मेरे एवं उनके बीच के अन्तर को तोड़ देगी।

स्वामी दरिसण समो निमित्त लही निरमलो, जो उपादान ए शुचि न थाशे;
दोष को वस्तुनो अहवा उद्यम तणो, स्वामी सेवा सही निकट लाशे    ।।4।।

अर्थ 5 : जो आत्मा अरिहन्त परमात्मा के गुणों को पहचान कर उनकी सेवा करता है, वह आत्मा शुद्ध सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है और ज्ञान (यथार्थ-अवबोध), चारित्र (स्वरूप-रमणता), तप (तत्त्व एकाग्रता) वीर्य (आत्मशक्ति) गुण के उल्लास द्वारा क्रमशः सब कर्मों को जीतकर मोक्ष (मुक्ति) मन्दिर में जा बसता है।

स्वामी गुण ओळखी स्वामीने जे भजे, दरिशण शुद्धता तेह पामे;
ज्ञान चारित्र तप वीर्य उल्लासथी, कर्म जीती वसे मुक्ति धामे    ।।5।।

अर्थ 6 : महावीर परमात्मा तीनों जगत् के हितकर्ता हैं । ऐसा सुनकर मेरे चित्त ने आपके चरणों की शरण स्वीकार की है। अतः हे जगतात ! हे रक्षक ! हे प्रभो ! आप अपनी तारकता के विरुद्ध को सार्थक करने के लिए भी मुझे इस संसार-सागर से तारियेगा। परन्तु, दास की सेवा-भक्ति की तरफ ध्यान मत दिजियेगा अर्थात् यह सेवक तो मेरी सेवा-भक्ति ठीक से नहीं करता, ऐसा जानकर मेरी उपेक्षा मत करियेगा। मेरी सेवा की तरफ देखे बिना केवल आपके ‘तारक’ विरुद को सार्थक करने के लिए मुझे तारियेगा-पार उतारिएगा।

जगत वत्सल महावीर जिनवर सुणी, चित्त प्रभुचरणने शरण वास्यो;
तार जो बापजी बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो     ।।6।।

अर्थ 7 : हे कृपालु देवे ! मेरी एक छोटी-सी विनती को आप अवश्य स्वीकार करें और मुझे ऐसी शक्ति दें कि जिससे मैं वस्तु के सब धर्मों को तनिक भी शंकादि दूषण रखे बिना यथार्थरूप से जान सकूँ और साधक-दशा को सिद्ध कर सिद्ध-अवस्था का अनुभव कर सूकँ तथा देवों में चन्द्र समान उज्वल प्रभुता को प्रकटित कर सूकँ। स्याद्वाद के ज्ञान से साधकता प्रकटित होती है और साधकता से सिद्धता प्राप्त होती है।

विनती मानजो शक्ति ए आपजो, भाव स्याद्वादता शुद्ध भासे;
साधी साधक दशा सिद्धता अनुभवी, देवचंद्र विमल प्रभुता प्रकाशे.     ।।7।।


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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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Saturday, August 19, 2023

Sri Sumti Jin Sudhta lyrics Devchandraji chovishi अहो श्री सुमति जिन

|| Aho Shri Sumti Jin Sudhta tari Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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अहो श्री सुमति जिन शुद्धता ताहरी स्तवन सांग

जैन स्तवन


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Aho Shri Sumti Jin Sudhta tari 
Devchandraji Stavan




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|| श्री सुमति जिन शुद्धता ताहरी ||  


अहो श्री सुमति जिन शुद्धता ताहरी, स्वगुण पर्याय परिणाम रामी;

नित्यता एकता अस्तिता ईतर युत, भोग्य भोगी थको प्रभु अकामी    ।।1।।

ऊपजे व्यय लहे तहवि तेहवो रहे, गुण प्रमुख बहुलता तहवि पिंडी;

आत्मभावे रहे अपरता नवि ग्रहे, लोक प्रदेश मित पण अखंडी     ।।2।।

कार्य-कारण पणे परिणमे तहवि ध्रुव, कार्य भेदें करे पण अभेदी;

कर्तृता परिणमे नव्यता नवि रमे, सकलवेत्ता थको पण अवेदी     ।।3।।

शुद्धता बुद्धता देव परमात्मता, सहज निजभाव भोगी अयोगी;

स्व पर उपयोगी तादात्म्य सत्तारसी, शक्ति प्रयुंजतो न प्रयोगी     ।।4।।

वस्तु निज परिणते सर्व परिणामिकी, एटले कोई प्रभुता न पामे;

करे जाणे रमे अनुभवे ते प्रभु, तत्त्व स्वामित्व शुचि तत्त्व धामे     ।।5।।

जीव नवि पुग्गली नैव पुग्गल कदा, पुग्गलाधार नाहिं तास रंगी;

पर तणो ईश नहिं अपर अैश्वर्यता, वस्तु धर्मे कदा न परसंगी     ।।6।।

संग्रहे नहीं आपे नहीं परभणी, नवि करे आदरे न पर राखे;

शुद्ध स्याद्धाद निज भाव भोगी जिके, तेह परभावने केम चाखे     ।।7।।

ताहरी शुद्धता भास आश्चर्यथी; ऊपजे रुचि तेणे तत्त्व ईहे;

तत्त्वरंगी थयो दोषथी उभग्यो दोष त्यागे ढले तत्त्व लीहे     ।।8।।

शुद्ध मार्गे वध्यो साध्य साधन सध्यो, स्वामी प्रतिछंदे सत्ता आराधे;

आत्म निष्पत्ति तिम साधना नवि टके, वस्तु उत्सर्ग आतम समाधे    ।।9।।

माहरी शुद्ध सत्ता तणी पूर्णता, तेहनो हेतु प्रभु तुंहि साचो;

देवचंद्रे स्तव्यो मुनिगणे अनुभव्यो, तत्त्व भक्ते भविक सकळ राचो    ।।10।।



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अर्थ 1 : हे सुमतिनाथ प्रभु ! स्वगुण-पर्याय में ही रमणता करने वाले आपकी शुद्धता अतिशय आश्चर्यकारक है, क्योकि आपको शुद्धता, नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता और अस्तिता-नास्तितारूप परस्पर विरुद्ध धर्मो से युक्त है। साथ ही आप भौग्यज्ञानादि गुण-पर्यायों के भोगी होने पर भी अकामी-कामना रहित हैं, वह भी महान् आश्चर्य है।

अहो श्री सुमति जिन शुद्धता ताहरी, स्वगुण पर्याय परिणाम रामी;
नित्यता एकता अस्तिता ईतर युत, भोग्य भोगी थको प्रभु अकामी    ।।1।।

अर्थ 2 : हे प्रभो ! आपकी गुण-पर्यायमयी शुद्धता कैसी अद्भुत है। वह जिस समय उत्पन्न होती है उसी समय में नष्ट होती है और ध्रुव भी रहती है, यह नित्यता है। ज्ञान-दर्शन, चारित्र, वीर्यादि अनेक गुण आप में रहे हुए है, यह अनेकता है और सर्व गुणो का समूहरूप आत्मा एक है, वह एकता है। आप सदा आत्म-भाव में रहते हैं, यह अस्ति धर्म हे और परभाव को आप कदापि ग्रहण नहीं करते, यह नास्ति धर्म है अर्थात् आपमें स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अस्तिता है और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से नास्तिता भी रही हुई है। लोकाकाश के प्रदेशों जितने आपके असंख्य आत्मप्रदेश है। उनकी अपेक्षा से अवयवता होने पर भी वे प्रदेश कदापि आपसे अलग नहीं होते अतः आप अखण्ड हैं। यह अद्भुत आश्चर्य है।

ऊपजे व्यय लहे तहवि तेहवो रहे, गुण प्रमुख बहुलता तहवि पिंडी;
आत्मभावे रहे अपरता नवि ग्रहे, लोक प्रदेश मित पण अखंडी     ।।2।।

अर्थ 3 : प्रभो ! आपके उपादन-कारणरूप ज्ञानादि सब गुण अपने-अपने कार्य (ज्ञप्ति आदि) रूप में परिणत होते हैं, इसलिए उत्पाद और व्यय धर्म है और उनका अभाव कभी नहीं होता, यह ध्रुव धर्म है। ज्ञान गुण जानने का और चारित्र गुण स्थिरता का, इस तरह सब गुण अपने-अपने भिन्न कार्य को करते हैं, यह भेद स्वभाव है। इस प्रकार कार्य के भेद से अनेकता है। इन सब गुणों में कार्यभेद होने पर भी वे गुण आत्मा से अलग नहीं होते इसलिए अभेदरूप है, यह एकता है। हे प्रभो ! आप कर्त्ता होने से प्रतिसमय अपने कार्य में परिणत होते हैं तो भी कोई नवीनता को प्राप्त नहीं करते हैं। आप प्रीति समय गुण-पर्यायरूप कार्य को करते हैं तो भी अस्ति धर्म तो कायम रहता है। इसी तरह प्रभु सर्व द्रव्य के गुण-पर्यायों के तथा भूत-भविष्य-वर्तमान आदि काल के वेत्ता (ज्ञाता) हैं तो भी वे तीनों वेद से रहित होने से अवेदी हैं । यह आश्चर्यकारक बात है।

कार्य-कारण पणे परिणमे तहवि ध्रुव, कार्य भेदें करे पण अभेदी;
कर्तृता परिणमे नव्यता नवि रमे, सकलवेत्ता थको पण अवेदी     ।।3।।

अर्थ 4 : हे प्रभुो ! सर्व पुद्गलों के संग रहित आपकी शुद्धता है। केवलज्ञान दर्शनरूप बुद्धता है। अपने स्वरूप में रमण करने से आप देव हैं। ज्ञानावरणीयादि कर्मो से रहित आपका परमात्मपन है। आप सहज निज स्वभाव के भोगी हैं तथापि अयोगी (मन, वचन, और काया के योग से रहित) हैं। स्व-आत्मा और पर-पुद्गलादि सर्व द्रव्यों के उपयोगी (ज्ञाता एवं दृष्टा) होने पर भी तादात्म्यभाव से रही हुई शुद्ध-श्रद्धा के ही आप रसिया हैं। हे प्रभो ! आप में पूर्णरूप से प्रकट हुई कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि सर्व शक्तियाँ स्व-स्व कार्य में प्रवृत्त होने पर भी आप अप्रयोगी हैं अर्थात् इन शक्तियों को प्रयुक्त करने के लिए आपको कोई प्रयोग-प्रयास नहीं करना पड़ता। स्वतः ही शक्तियों का प्रवर्तन हुआ करता है। यह भी एक आश्चर्य है।

शुद्धता बुद्धता देव परमात्मता, सहज निजभाव भोगी अयोगी;
स्व पर उपयोगी तादात्म्य सत्तारसी, शक्ति प्रयुंजतो न प्रयोगी     ।।4।।

अर्थ 5 : इस प्रकार नित्यानित्य धर्मवाले सर्व द्रव्य अपनी परिणति (स्वधर्म) होने से परिणामी है परन्तु इतने मात्र से वे सब द्रव्य प्रभुता-महानता नहीं प्राप्त कर सकते। परन्तु जो अपने स्वभाव का कर्त्ता हो, वस्तुमात्र का ज्ञाता है, स्वगुण में रमण करने वाला हो, आत्मस्वभाव का अनुभव करने वाला हो तथा वस्तुस्वभाव का स्वामी हो तथा शुद्ध सिद्धता का धाम हो वह प्रभु-परमेश्वर कहा जाता है।

वस्तु निज परिणते सर्व परिणामिकी, एटले कोई प्रभुता न पामे;
करे जाणे रमे अनुभवे ते प्रभु, तत्त्व स्वामित्व शुचि तत्त्व धामे     ।।5।।

अर्थ 6 : जीव पुद्गल नहीं है। अनन्तकाल से वह पुद्गल के साथ रहता हुआ भी पुुद्गलरूप कभी नहीं बना। वह पुद्गलों का आधार भी नहीं। वह वास्तव में तो पुद्गल का रंगी-अनुरागी भी नहीं। वह परभाव रूप शरीर, धन, गृहादि का स्वामी भी नहीं। जीव की ऐश्वर्यता परपदार्थो के कारण नहीं है। वस्तुतः जीव परभाव का संगी भी नहीं। जीव द्रव्य का सत्ता-धर्म इसी प्रकार का है।

जीव नवि पुग्गली नैव पुग्गल कदा, पुग्गलाधार नाहिं तास रंगी;
पर तणो ईश नहिं अपर अैश्वर्यता, वस्तु धर्मे कदा न परसंगी     ।।6।।

अर्थ 7 : जो पर पुद्गल वस्तु का संग्रह नहीं करता, अन्य को देता भी नहीं, परवस्तु को करना भी नहीं, आदरता भी नहीं और रखता भी नहीं। जो शुद्ध स्याद्वादमय आत्म-स्वभाव का भोगी है वह परभाव का आस्वादन कैसे कर सकता है? अर्थात् नहीं कर सकता है।

संग्रहे नहीं आपे नहीं परभणी, नवि करे आदरे न पर राखे;
शुद्ध स्याद्धाद निज भाव भोगी जिके, तेह परभावने केम चाखे     ।।7।।

अर्थ 8 : हे प्रभो ! आपकी पूर्ण शुद्ध-स्वभाव-दशा का ज्ञान होने पर भव्यात्मा को अत्यन्त उत्पन्न होता है और अपनी भी वैसी शुद्ध दशा को प्रकट करने की रुचि जागृत होती है। तब मोक्षरुचि जीव को तत्त्व प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न होती है। जैसे जैसे तत्त्व की इच्छा प्रबल बनती जाती है और तत्त्वरंग जमता जाता है वैसे हिंसा और रामादि दोषों की निवृत्ति होती जाती है। दोषों की निवृत्ति होने से उस जीव का आत्म-स्वभाव में परिणमन-रमण होता है।

ताहरी शुद्धता भास आश्चर्यथी; ऊपजे रुचि तेणे तत्त्व ईहे;
तत्त्वरंगी थयो दोषथी उभग्यो दोष त्यागे ढले तत्त्व लीहे     ।।8।।

अर्थ 9 : पूर्वोक्त रीति से शुद्ध साध्य के प्रधान साधनभूत स्वभाव-रमणता के शुद्ध मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ साधक श्री सुमतिनाथ भगवान के समान ही अपनी आत्मसता को प्रकट करता है। जब आत्मा सम्पूर्ण शुद्ध समाधि अवस्था को पाकर सिद्ध-पद को प्राप्त करता है तब साधन का कार्य पूर्ण हो जाने से साधना विरत हो जाती है।

शुद्ध मार्गे वध्यो साध्य साधन सध्यो, स्वामी प्रतिछंदे सत्ता आराधे;
आत्म निष्पत्ति तिम साधना नवि टके, वस्तु उत्सर्ग आतम समाधे    ।।9।।

अर्थ 10 : हे प्रभो ! मेरी शुद्ध आत्मसत्ता की पूर्णता के लिए आप ही प्रधान हेतु हैं। देवेन्द्रों ने भी आपकी स्तुति की है। निर्ग्रन्थ मुनियों ने आपका साक्षात्कार (साक्षात् – अनुभव) किया है और भव्यात्माओं को लक्ष्य करके कहा है कि, ‘हे भव्यजनों ! तुम भी उन प्रभु की भक्ति में तत्पर बनो, यही परम तत्त्व है।

माहरी शुद्ध सत्ता तणी पूर्णता, तेहनो हेतु प्रभु तुंहि साचो;
देवचंद्रे स्तव्यो मुनिगणे अनुभव्यो, तत्त्व भक्ते भविक सकळ राचो    ।।10।।


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Kyu jaanu kyu bani aavse abhinandan Lyrics Devchandraji stavan कयुं जाणुं कयुं बनी

|| Kyu jaan kyu bani aavse abhinandan Lyrics - JAIN STAVAN SONG ||
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 || कयुं जाणुं कयुं बनी आवशे अभिनंदन  || 


कयुं जाणुं कयुं बनी आवशे, अभिनंदन रस रीत हो मित्त;

पुद्गल अनुभव त्यागथी, करवी जसु परतीत हो मित्त    ।।कयुं 1।।


परमातम परमेश्वरु, वस्तुगते ते अलिप्त हो मित्त;

द्रव्ये द्रव्य मिले नहीं, भावे ते अन्य अव्याप्त हो मित्त     ।।कयुं 2।।


शुद्ध स्वरूप सनातनो निर्मल जे नि:संग हो मित्त,

आत्म विभूतें परिणम्यो, न करे ते पर संग हो मित्त     ।।कयुं 3।।


पण जाणुं आगम बळे, मिलवुं तुम प्रभु साथहो मित्त;

प्रभु तो स्वसंपत्तिमयी, शुद्ध स्वरूपनो नाथहो मित्त     ।।कयुं 4।।


पर परिणामिक्ता अछे, जे तुज पुद्गल योग हो मित्त;

जड चल जगनी एंठनो, न घटे तुजने भोग हो मित्त     ।।कयुं 5।।


शुद्ध निमित्ती प्रभु ग्रहो, करी अशुद्ध पर हेय हो मित्त;

आत्मालंबी गुणलयी, सहु साधकनो ध्येय हो मित्त     ।।कयुं 6।।


जिम जिनवर आलंबने, वधे सधे एक  तान हो मित्त;

तिम तिम आत्मालंबनी, ग्रहे स्वरूप निदान हो मित्त     ।।कयुं 7।।


स्वस्वरूप एकत्वता, साधे पूर्णानंद हो मित्त;

रमे भोगवे आतमा, रत्नत्रयी गुणवृंद हो मित्त     ।।कयुं 8।।


अभिनंदन अवलंबने, परमानंद विलास हो मित्त;

देवचंद्र प्रभु सेवना, करी अनुभव अभ्यास हो मित्त     ।।कयुं 9।।



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अर्थ 1 : हे मित्र ! कौन जानता है कि श्री अभिनन्दन प्रभु के साथ रसभरी 

प्रीति, भक्ति, एकता, मिलनरूप तन्मयता किस प्रकार हो सकती है? साधक 

जब अन्तरात्मा के साथ एसी बात करता है तब उसे स्वयं स्फुरणा होती हैकि 

पुद्गल के वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शादि के भोंगों का त्याग करने से प्रभु के साथ 

रसीली प्रीति का अनुभव हो सकता है।


कयुं जाणुं कयुं बनी आवशे, अभिनंदन रस रीत हो मित्त;

पुद्गल अनुभव त्यागथी, करवी जसु परतीत हो मित्त    ।।कयुं 1।।


अर्थ 2 : श्री अभिनन्दन प्रभु तो कर्मरहित होने से परमात्मा हैं, सम्पूर्ण रूप से 

स्वाधीन होने से परमेश्वर हैं, स्वभाव वस्तुतः से अलिप्त हैं। निश्चय नय से कोई 

भी द्रव्य अन्य के साथ नहीं मिलता तथा अन्य का भाव भी अन्य में 

व्याप्त नहीं हो सकता। अतः प्रभु द्रव्य से दूसरे द्रव्य के साथ अलिप्त हैं और 

भाव से भी प्रभु अन्य द्रव्य से अव्याप्त हैं।


परमातम परमेश्वरु, वस्तुगते ते अलिप्त हो मित्त;

द्रव्ये द्रव्य मिले नहीं, भावे ते अन्य अव्याप्त हो मित्त     ।।कयुं 2।।


अर्थ 3 : हे मित्र ! प्रभु तो शुद्ध स्वरूपी हैं, सनातन हैं, निर्मल (कर्ममलरहित) 

हैं और निःसंग (संगरहित) हैं । साथ ही प्रभु आत्म-विभूति से सम्पन्न होने सेवे 

कदापि पर का संग नहीं करते । तो एसे प्रभु से किस प्रकार मिला जा सकता 

है? किस प्रकार उनमें तन्म्य हुआ जा सकता है?


शुद्ध स्वरूप सनातनो निर्मल जे नि:संग हो मित्त,

आत्म विभूतें परिणम्यो, न करे ते पर संग हो मित्त     ।।कयुं 3।।


अर्थ 4 : प्रभु ज्ञानादि स्व-सम्पत्ति और अपने शुद्ध-स्वरूप के नाथ हैं, 

इसीलिए वे किसी के साथ नहीं मिलते हैं परन्तु उनके साथ मिलने (तन्मय 

होने) का  उपाय आगम से (शास्त्राभ्यास से) इस प्रकार ज्ञात हुआ है।


पण जाणुं आगम बळे, मिलवुं तुम प्रभु साथहो मित्त;

प्रभु तो स्वसंपत्तिमयी, शुद्ध स्वरूपनो नाथहो मित्त     ।।कयुं 4।।


अर्थ 5 : हे जीव ! पुद्गल के योग से तू जो पर पदीर्थो में परिणमन करता है, 

वह दोष है। हे मित्र ! इन पुद्गलों का भोग तेरे लिअे उचित नहीं है। ये जड़ 

पदार्थ तो चंचल और नाशवान् हैं और सब जीवों ने उनका अनेक बार 

उपभोग किया है। अतः वे जगत की झूठन हैं। इस प्रकार सर्वप्रथम आत्मा 

को वैराग्य से भावित करना चाहिए।


पर परिणामिक्ता अछे, जे तुज पुद्गल योग हो मित्त;

जड चल जगनी एंठनो, न घटे तुजने भोग हो मित्त     ।।कयुं 5।।


अर्थ 6 : पर-भौतिक पदार्थ अशुद्ध होने से उनका त्याग करके आत्मा में ही 

रमण करने वाले-स्वगुणावलंबी और सर्व साधकों के ध्येय (आराध्य) रूप 

शुद्ध-निमित्ती श्री अरिहन्त परमात्मा का आलम्बन लेना चाहिए।


शुद्ध निमित्ती प्रभु ग्रहो, करी अशुद्ध पर हेय हो मित्त;

आत्मालंबी गुणलयी, सहु साधकनो ध्येय हो मित्त     ।।कयुं 6।।


अर्थ 7 : उक्त रीति से अभ्यास करते हुए जिनेश्वर परमात्मा के आलम्बन में 

जैसे साधक की एकाग्रता बढ़ती जाती है, वैसे वैसे प्रभु के साथ साधक की 

तन्मयता सिद्ध होती जाती है और उसके द्वारा साधक स्वरूपालंबी बन कर 

स्वरूप-प्राप्ति के मूल-कारण सम्यगदर्शनादि गुणों को प्राप्त करता है। 

अर्थात् वह साधक आत्मस्मरण, आत्मचिन्तन और आत्मध्यान में लीन बनता 

हैं।


जिम जिनवर आलंबने, वधे सधे एक  तान हो मित्त;

तिम तिम आत्मालंबनी, ग्रहे स्वरूप निदान हो मित्त     ।।कयुं 7।।


अर्थ 8 : इस प्रकार आत्मा क्षयोपशमभाव से प्रकट हुए स्व-स्वरूप 

(सम्यग्दर्शनादि गुणों) में तन्मय बनकर रमणता करता है तब उसकी आत्मा 

का पूर्णानन्द स्वरूप प्रकट होता है और बाद मैं वह आत्मा सदाकाल 

रत्नत्रयीरूप सम्यग्दर्शनादि गुणों में रमणता करता है और उन्हीं गुणों का 

भोग करता है अर्थात् वह आत्मा उन गुणों का ही भोक्ता बनता है।


स्वस्वरूप एकत्वता, साधे पूर्णानंद हो मित्त;

रमे भोगवे आतमा, रत्नत्रयी गुणवृंद हो मित्त     ।।कयुं 8।।


अर्थ 9 : इस प्रकार अभिनन्दन प्रभु के अवलम्बन से आत्मा को 

परमानन्दमय समाधि प्राप्त होती है। अतः देवों में चन्द्र समान ऐसे 

अभिनन्दन परमात्मा की अनुभव के अभ्यासपूर्वक सेवा करनी चाहिए।


अभिनंदन अवलंबने, परमानंद विलास हो मित्त;

देवचंद्र प्रभु सेवना, करी अनुभव अभ्यास हो मित्त     ।।कयुं 9।।

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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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