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Sunday, August 27, 2023

पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa prabhu Sawayo - Parshwanath song jain stavan

|| Parshwa prabhu Sawayo Devchandraji Jain stavan SONG ||
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 Parshwa prabhu Sawayo स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री पार्श्वनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa prabhu Sawayo
Devchandraji krut chovishi






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||  पार्श्वनाथ प्रभु सवायो Parshwa


 prabhu Sawayo ||  


सहज गुण आगरो स्वामी सुख सागरो; ज्ञान वईरागरो प्रभु सवायो;
शुद्धता एकता तीक्ष्णता भावथी, मोहरिपु जीती जय पडह वायो     ।।1।। 

वस्तु निज भाव अविभास नि:कलंकता, परिणति वृत्तिता करी अभेदे;
भाव तादात्म्यता शक्ति उल्लासथी, संतति योगने तुं उच्छेदे     ।।2।। 

दोष गुण वस्तुनो लखीय यथार्थता, लही उदासीनता अपर भावे;
ध्वंसि तज्जन्यता भाव कर्त्तापणुं, परम प्रभु तुं रम्यो निज स्वभावे     ।।3।। 

शुभ अशुभ भाव अविभास तहकीकता, शुभ अशुभ भाव तिहां प्रभु न कीधो;
शुद्ध परिणामता वीर्य कर्त्ता थई, परम अक्रियता अमृत पीधो     ।।4।। 

शुद्धता प्रभुतणी आत्मभावे रमे, परम परमात्मता तास थाये;
मिश्र भावे अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आये     ।।5।। 

उपशम रसभरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटी;
कारणे कार्य निष्पत्ति श्रद्धान छे, तिणे भव भ्रमणनी भीड मेटी     ।।6।। 

नयर खंभायते पार्श्व प्रभु दरशने, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो;
हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो     ।।7।। 

आज कृतपुण्य धन्य दीह माहरो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो;
देवचंद्र स्वामी त्रेवीशमो वंदीयो, भक्तिभर चित्त तुज गुण रमाव्यो     ।।8।।


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अर्थ 1 : प्रभु कैसे हैं? यह बताते हैं। सहज स्वाभाविक गुणों के धाम हैं, अव्याबाध, अविनाशी सुख के सिन्धु हैं, ज्ञानरुप वज्र-हीरा की खान है, सवाया-साद सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसे श्री पार्श्वनाथ भगवान् ने शुद्धता (सम्यग्ज्ञान की निर्मलता), एकता (स्वरुप तन्मयता) और तीक्ष्णता (वीर्यगुण की तीव्रता) के भाव द्वारा मोहशत्रु को जीतकर जय पडह-विजय का डंका बजाया है।

सहज गुण आगरो स्वामी सुख सागरो; ज्ञान वईरागरो प्रभु सवायो;
शुद्धता एकता तीक्ष्णता भावथी, मोहरिपु जीती जय पडह वायो     ।।1।।

अर्थ 2 : अब शुद्धता, एकता और तीक्ष्णता की व्याख्या बताते हैं। वस्तु के स्वरुप का यथार्थ ज्ञान, यह निशष्कलंकता शुद्धता है। आत्मपरिणति में वृत्ति का अभेद, यह एकता है और तादात्म्य भाव से रही हुई वीर्य-है।

वस्तु निज भाव अविभास नि:कलंकता, परिणति वृत्तिता करी अभेदे;
भाव तादात्म्यता शक्ति उल्लासथी, संतति योगने तुं उच्छेदे     ।।2।।

अर्थ 3 : वस्तु के गुण-दोषों की यथार्थता जानकर परभाव से उदासीन होकर और तदुत्पत्ति सम्बन्ध से उत्पन्न अर्थात् पुद्गल के सम्बन्ध से पेदा हुए विभाग-कर्तुत्व का नाश करके हे प्रभो! आप अपने परम शुद्ध स्वभाव में रमण कर रहे हैं।

दोष गुण वस्तुनो लखीय यथार्थता, लही उदासीनता अपर भावे;
ध्वंसि तज्जन्यता भाव कर्त्तापणुं, परम प्रभु तुं रम्यो निज स्वभावे     ।।3।।

अर्थ 4 : शुभ अथवा अशुभ भाव की यथार्थ (निश्चित) पहचान करके शुभ या अशुभ पदार्थों में हे प्रभो! आपने शुभाशुभ भाव अर्थात् राग-द्वेष नहीं किया परन्तु शुद्ध पारिणामिक-भाव में वीर्यगुण को प्रवर्तितकर परम अक्रियतारुप अमृतरस का पान किया है।

शुभ अशुभ भाव अविभास तहकीकता, शुभ अशुभ भाव तिहां प्रभु न कीधो;
शुद्ध परिणामता वीर्य कर्त्ता थई, परम अक्रियता अमृत पीधो     ।।4।।
अर्थ 5 : प्रभु की पूर्ण शुद्धता का जो जीव आत्म-स्वभाव में अभेद भाव से चिन्तर कर ध्यान द्वारा उसमें ही रमण करता है अर्थात् मेरी आत्मा भी सत्तारुप से पूर्ण शुद्ध स्वरुप है। ऐसा निश्चय कर प्रभु की पूर्ण शुद्धता में तन्म्य बनता है, उसे वैसी ही परम परमात्म-दिशा प्राप्त होती है। क्षयोपशमभाव में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की भिन्नता मालूम होत है परन्तु क्षायिक यथाख्यात चारित्र प्राप्त होने पर तीनों गुणों की एकरुपता हो जाती है।

शुद्धता प्रभुतणी आत्मभावे रमे, परम परमात्मता तास थाये;
मिश्र भावे अछे त्रिगुणनी भिन्नता, त्रिगुण एकत्व तुज चरण आये     ।।5।।

अर्थ 6 : उपशम-सुधारस से परिपूर्ण और सर्व जीवों को सुख देनेवाली श्री जिनेश्वर प्रभु की मूर्ति के साक्षात्कार से अर्थात् आज उसके दर्शन-वन्दन-सेवन अपूर्व हर्षाोल्लास के साथ करने से ऐसी दृढ प्रतीति हो गई है कि, मोक्ष के पुष्ट-निमित्त कारणरुप जिनदर्शन और जिनसेवा का योग मिला है, उससे मोक्षरुप कार्य की सिद्धि अवश्य होगी। ऐसी दृढ प्रतीति होने के साथ ही मेरे भवभ्रमण का भय भी भाग गया (कारण में कार्य का उपचार करके हर्षावेश से निकला हुआ कवि का यह अनुभव वचन है)।

उपशम रसभरी सर्व जन शंकरी, मूर्ति जिनराजनी आज भेटी;
कारणे कार्य निष्पत्ति श्रद्धान छे, तिणे भव भ्रमणनी भीड मेटी     ।।6।।

अर्थ 7 : खम्भात नगर में बिराजमान श्री सुखसागर पार्श्वनाथ प्रभु के दर्शन-वन्दन करते समय रोमराजि विकसित होने के अपूर्व हर्ष और उत्साह की उर्मियां उत्पन्न होने लगी और श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ ध्यान द्वारा तन्मयता सिद्ध होने से आत्म-रमणता प्राप्त हुई। इससे अनुमान होता है कि सिद्धि की साधकता मेरी आत्मा में प्रकटित हुई है।

नयर खंभायते पार्श्व प्रभु दरशने, विकसते हर्ष उत्साह वाध्यो;
हेतु एकत्वता रमण परिणामथी, सिद्धि साधकपणो आज साध्यो     ।।7।।

अर्थ 8 : देवों में चन्द्र समान समुज्जवल श्री पार्श्वनाथ प्रभु को भावपूर्वक वन्दन किया और भक्ति से भरपूर चित्त प्रभु के गुण में रमण करने लगा। इसलिए आज मेरा महान पुण्योदय जागृत हुआ है। आज का यह दिन धन्य बना है। और सचमुच ! आज मेरा यह जन्म भी सफल बन गया है।

आज कृतपुण्य धन्य दीह माहरो थयो, आज नर जन्म में सफल भाव्यो;
देवचंद्र स्वामी त्रेवीशमो वंदीयो, भक्तिभर चित्त तुज गुण रमाव्यो     ।।8।।



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Nemi Jineshwar Nij Karaj Karya lyrics नेमि जिनेश्वर श्री नेमिनाथ - Devchandraji Stavan

|| नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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 Nemi Jineshwar Nij Karaj karyo स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री नेमिनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

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||  नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो ||  


नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो, छांड्यो सर्व विभावोजी;
आतम शक्ति सकल प्रगट करी, आस्वाद्यो निज भावोजी    ।।1।।
 
राजुल नारी रे सारी मति धरी, अवलंब्या अरिहंतोजी;
उत्तम संगे रे उत्तमता वधे, सधे आनंद अनंतोजी     ।।2।।
 
धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाती अग्राह्योजी,
पुदगल ग्रहवेरे कर्म कलंकता, वाधे बाधक बाह्योजी     ।।3।।
 
रागी संगे रे राग दशा वधे, थाए तिणे संसारोजी;
नीरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लहीये भवनो पारोजी     ।।4।।
 
अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करतां आश्रव नासेजी;
संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतमभाव प्रकाशेजी     ।।5।।
 
नेमि प्रभु ध्याने एकत्वता, निज तत्त्वे एकतानोजी;
शुकल ध्याने रे साधी सुसिद्धता, लहिये मुक्ति निदानोजी    ।।6।।
 
अगम अरूपी रे अलख अगोचरुं, परमातम परमीशोजी;
देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशोजी     ।।7।।


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अर्थ 1 : श्री नेमिनाथ भगवान् ने निज सिद्धतारूप कार्य को पूर्ण किया है, अर्थात् श्री नेमिनाथ भगवान् ने सर्व विभावदशा, विषयकषाय और राग-द्वेषादि का सर्वथा त्याग किया है एवम् आत्मा की ज्ञानादि सब शक्तियों को पूर्णरूप से प्रकट की है और निज शुद्ध स्वभाव का आस्वादन किया है। इस प्रकार वे अफनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव के भोक्ता बने हैं।

नेमि जिनेश्वर निज कारज कर्यो, छांड्यो सर्व विभावोजी;
आतम शक्ति सकल प्रगट करी, आस्वाद्यो निज भावोजी    ।।1।।

अर्थ 2 : शीलादि गुण से विभूषित राजीमती ने भी उत्तम बुद्धि को धारण कर पति के रूपवाले अशुद्ध-राग को छोड़ दिया और श्री अरिहंत प्रभु को अपने देवाधिदेव के रूप में स्वीकार किया। सचमुच ! उत्तम पुरुषों के सहवास से उत्तमता की वृद्धि होती है और अनुक्रम से अनन्त आनंद प्राप्त होता है। राजीमती ने जैसे इस सूक्ति की यथार्थता सिद्ध कर दी, वैसे हमें भी इस सूक्ति को सार्थक करना चाहिए।

राजुल नारी रे सारी मति धरी, अवलंब्या अरिहंतोजी;
उत्तम संगे रे उत्तमता वधे, सधे आनंद अनंतोजी     ।।2।।

अर्थ 3 : श्री राजीमतीजी ने जिस तत्त्व की अनुप्रेक्षा-विचारणा की थी वह बताते हैं कि, समग्र लेोक में रहे हुए पंचास्तिकाय (धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव) में से धर्म, अधर्म और आकाश-ये तीन द्रव्य अचेतन और विजातीय हैं, अतः उनका ग्रहण नहीं हो सकता। पुद्गल द्रव्य विजातीय होते हुए भी ग्राह्य है परन्तु इसे ग्रहण करने से जीव कर्म से कलंकित बनता है। बाह्यभाव की वृद्धि होती है और उससे स्वगुणों का अवरोध (बाध) होता है।

धर्म अधर्म आकाश अचेतना, ते विजाती अग्राह्योजी,
पुदगल ग्रहवेरे कर्म कलंकता, वाधे बाधक बाह्योजी     ।।3।।

अर्थ 4 : संसारी जीव राग-द्वेषयुक्त हैं। उनके साथ संग-प्रेम करने से रागदशा बढ़ती है और उससे संसार की वृद्धि होती है। परन्तु नीरागी अरिहन्त परमात्मा के साथ राग-प्रीति करने से भव का पार पाया जा सकता है।

रागी संगे रे राग दशा वधे, थाए तिणे संसारोजी;
नीरागीथी रे रागनुं जोडवुं, लहीये भवनो पारोजी     ।।4।।

अर्थ 5 : बाह्य पदार्थो पर से अप्रशस्तराग दूर करने से और श्री अरिहन्त परमात्मा पर प्रशस्तराग धारण करने से संवर (आस्रव का नाश) होता है अर्थात् नवीन कर्मबन्ध रुक जाता है। साथ ही पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा होती है। उस संवर और निर्जरा के योग से आत्मशक्तियाँ प्रकट होती है।

अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करतां आश्रव नासेजी;
संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतमभाव प्रकाशेजी     ।।5।।

अर्थ 6 : इस प्रकार शुभ विचारणा करने से राजीमतीजी ने श्री नेमिनाथ प्रभु के ध्यान में तन्मय-एकतान बनकर उसके द्वारा जिन तत्त्व-आत्मस्वरूप में एकाग्रता प्राप्त की और स्वरूप-तन्मयता द्वारा शुक्लध्यान सिद्ध करके स्व-सिद्धता प्राप्त की। इस प्रकार हम भी प्रभु के ध्यान में एकाग्र बनकर मुक्ति के निदान-भूल कारण को प्राप्त करें।

नेमि प्रभु ध्याने एकत्वता, निज तत्त्वे एकतानोजी;
शुकल ध्याने रे साधी सुसिद्धता, लहिये मुक्ति निदानोजी    ।।6।।

अर्थ 7 : अगम (सामान्य लोगों द्वारा अज्ञेय) अरूपी (वर्णादि से रहित), अलख (एकान्तवादियों द्वारा न पहचाने जाने वाले), अगोचर (इन्द्रियों से अग्राह्य), परमात्मा (रागादि दोष रहित), परमेश्वर (अनन्त गुण-पर्याय के स्वामी) और देवों में चन्द्र जैसे निर्मल श्री जिनेश्वर प्रभु की सेवा-आज्ञापालन करने से साधकता (अध्यात्म-शक्ति) की वृद्धि होकर शुद्ध स्वभाव की सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त होती है।

अगम अरूपी रे अलख अगोचरुं, परमातम परमीशोजी;
देवचंद्र जिनवरनी सेवना, करतां वाधे जगीशोजी     ।।7।।


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शांतिनाथ Jagatdiwakar jagatkrupanidhi Nirkhi,Shanti Jinand bhavikjan 16 Devchandraji jain stavan

|| Shantinath bhagwan Nirkhi Shanti Jinand bhavikjan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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जगत दिवाकर जगत कृपानिधि स्तवन स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री शांतिनाथ प्रभु स्तवन Devchandraji jain stavan

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Jagatdiwakar jagatkrupanidhi Nirkhi,Shanti Jinand 
Shantinath bhgwan Devchandraji stavan




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||  जगत दिवाकर जगत कृपानिधि ||  


जगत दिवाकर जगत कृपानिधि, वाल्हा मारा समवसरणमां बेठा रे;
चौमुख चौविह धर्म प्रकाशे, ते में नयणे दीठा रे;भविक जन हरखो रे,
निरखी शांति जिणंद उपशम रसनो कंद, नहीं इण सरखो रे     ।।भविक 1।।

प्रातिहार्य अतिशय शोभा, वा. ते तो कहिय न जावे रे;
घूक बालकथी रवि कर भरनुं, वर्णन केणी परे थावे रे     ।।भविक 2।।

वाणी गुण पांत्रीश अनोपम, वा. अविसंवाद सरूपे रे;
भवदु:ख वारण शिवसुख कारण, सुधो धर्म प्ररुपे रे     ।।भविक 3।।

दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशिमुख, वा. ठवणा जिन उपगारी रे;
तसु आलंबन लहीय अनेके, तिहां थया समक्ति धारी रे।।भविक 4।।

षट नय कारज रूपे ठवणा, वा. संग नय कारण ठाणी रे;
निमित्त समान थापना जिनजी, ए आगमनी वाणी रे     ।।भविक 5।।

साधक तीन निक्षेपा मुख्य, वा. जे विणु भाव न लहिये रे;
उपगारी दुग भाष्ये भाख्या, भाव वंदकनो ग्रहीये रे     ।।भविक 6।।

ठवणा समवसरणे जिन सेंति, वा. जो अभेदता वाधी रे;
ए आतमना स्व स्वभाव गुण, व्यक्त योग्यता साधी रे     ।।भविक 7।।

भलुं थयुं में प्रभु गुण गाया, वा. रसनानो फल लीधो रे;
देवचंद्र कहे माहरा मननो, सकल मनोरथसीधो रे     ।।भविक 8।।



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अर्थ 1 : जगत् में सूर्य के समान ज्ञान-प्रकाश के करनेवाले, सब जीवों पर परम करुणा (दया) के भण्डार ऐसे परमात्मा मुझे अत्यन्त वल्लभ है। जो परमात्मा समवसरण मैं बैठकर चार प्रकारे के धर्म की देशना देते हैं, उन परमात्मा को मैंने शास्त्र-चक्षु से देखा है और हे भव्य जीवों ! तुम भी ऐसे शान्तिनाथ भगवान् को देखकर हर्षित बनो। सचमुच ! ये परमात्मा उपशम-समतारस के कन्द हैं, इनकी तुलना में आवे ऐसा कोई अन्य इस जगत् में नहीं है।

जगत दिवाकर जगत कृपानिधि, वाल्हा मारा समवसरणमां बेठा रे;
चौमुख चौविह धर्म प्रकाशे, ते में नयणे दीठा रे;भविक जन हरखो रे,
निरखी शांति जिणंद उपशम रसनो कंद, नहीं इण सरखो रे     ।।भविक 1।।
अर्थ 2 : अरिहन्त परमात्मा के अष्ट प्रातिहार्य और चौतीस अतिशयों की शोभा का वर्णन मेरे जैसे मन्दमतिवाले से नहीं हो सकता है। उल्लू का बालक सूर्य की तेजस्वी किरणों के समूह का वर्णन कैसे कर सकता है ?

प्रातिहार्य अतिशय शोभा, वा. ते तो कहिय न जावे रे;
घूक बालकथी रवि कर भरनुं, वर्णन केणी परे थावे रे     ।।भविक 2।।
अर्थ 3 : परमात्मा की मधुरी वाणी (देशना) अनुपम पैतीस गुणों से युक्त और अविसंवाद (परस्पर विरोधरहित) स्वरूप वाली है। एसी अपूर्व अद्भुत वाणी द्वारा प्रभु भव्य जीवों के भवदुःख को मिटानेवाले और मोक्षसुख को देनेवाले शुद्ध-धर्म की प्ररूपणा करते हैं।

वाणी गुण पांत्रीश अनोपम, वा. अविसंवाद सरूपे रे;
भवदु:ख वारण शिवसुख कारण, सुधो धर्म प्ररुपे रे     ।।भविक 3।।
अर्थ 4 : समवसरण में अरिहन्त परमात्मा पूर्व सन्मुख बैठकर देशना देते है। व्रत लेने वाले श्रोताजन उनके सामने बैठते है। शेष दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में प्रभु की प्रतिमाएँ विराजमान होती हैं, वे भी स्थापनाजिन होने से महान् उपकारक हैं। जिन बिन्ब के आलंबन द्वारा अनेक भव्यात्मा वहीं सम्यग्दर्शन प्राप्त करते हैं।

दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशिमुख, वा. ठवणा जिन उपगारी रे;
तसु आलंबन लहीय अनेके, तिहां थया समक्ति धारी रे।।भविक 4।।
अर्थ 5 : स्थापना-जिन यानि प्रतिमा में अरिहंततारूप, सिद्धतारूप कार्य नैगमादि षड्नय की अपेक्षा से रहा हुआ है। इसी तरह सात नय की अपेक्षा से उसमें मोक्ष की निमित्त-कारणता भी रही हुई है। भव्य जीवों को मोक्षप्राप्ति में साक्षात् अरिहंत और स्थापना अरिहन्त (जिनप्रतिमा) दोनों निमित्त कारणरूप में समान है, ऐसा आगम वचन है।

षट नय कारज रूपे ठवणा, वा. संग नय कारण ठाणी रे;
निमित्त समान थापना जिनजी, ए आगमनी वाणी रे     ।।भविक 5।।
अर्थ 6 : नाम, स्थापना और द्रव्य-ये तीन निक्षेप भावसाधक होने से मुख्य हैं। इन तीन के बिना भाव की प्राप्ति नहीं हो सकती है। विशेषावश्यकभाष्य में भी नाम स्थापना को ही उपकारी कहा है क्योंकि परमात्मा का द्रव्य-निक्षेप पिण्डरूप है और भाव अरूपी है, अतः उनका ग्रहण नहीं हो सकता। समवसरण में विराजमान साक्षात् अरिहन्त परमात्मा के नाम और स्थापना ही छद्मस्थ जीवों के लिए ग्राह्य बनते हैं, इसलिए वे ही महान् उपकारी हैं। भाव तो वंदन करनेवाले का लेना चारिए।

साधक तीन निक्षेपा मुख्य, वा. जे विणु भाव न लहिये रे;
उपगारी दुग भाष्ये भाख्या, भाव वंदकनो ग्रहीये रे     ।।भविक 6।।
अर्थ 7 : समवसरण में विराजमान स्थापना-जिन के आलंभन से जो मेरी चेतना की अभेदता (अभेद-प्रणिधान) की वृद्धि-सिद्धि हुई है, उससे अनुमान होता है कि मेरी आत्मा में संपूर्ण शुद्ध स्वभाव को प्रकट करने की योग्यता रही हुई है अर्थात् अल्पकाल में ही आत्म-स्वभाव में रमणता-तन्मयता प्राप्त होगी।

ठवणा समवसरणे जिन सेंति, वा. जो अभेदता वाधी रे;
ए आतमना स्व स्वभाव गुण, व्यक्त योग्यता साधी रे     ।।भविक 7।।
अर्थ 8 : बहुत अच्छा हुआ कि मैंने प्रभु के गुणगान किये और रसना का वास्तविक फल प्राप्त किया अर्थात् वाणी को सार्थक बनाया। देवचन्द्र मुनि कहते हैं कि – ‘आज मेरे मन के सफल मनोरथ पूर्ण हुए हैं।’

भलुं थयुं में प्रभु गुण गाया, वा. रसनानो फल लीधो रे;
देवचंद्र कहे माहरा मननो, सकल मनोरथसीधो रे     ।।भविक 8।।

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