Saturday, August 19, 2023

Sambhav jinwar Pujo re lyrics Devchandraji chouvisi श्री संभव जिनराजजी रे,

|| Sambhavnathji Jinwar pujo re Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री संभव जिनराजजी रे स्तवन सांग 
जैन स्तवन

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Sambhav jinwar Pujo re lyrics Devchandraji chouvisi

श्री संभव जिनराजजी रे




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श्री संभव जिनराजजी रे 


श्री संभव जिनराजजी रे, ताहरुं अकल स्वरूप, जिनवर पूजो रे;

 स्वपर प्रकाशक दिनमणि रे, समता रसनो भूप जिनवर पूजो ।।

 पूजो पूजो रे भविक जन पूजो, प्रभु पूज्या परमानंद     ।।जिनवर 1।।

अविसंवादी निमित्त छो रे ; जगतजंतु सुखकाज;

 हेतु सत्य बहुमानथी रे, जिन सेव्यां शिवराज     ।।जिनवर 2।।

उपादान आतम सही रे, पुष्टालंबन देव;

उपादान कारणपणे रे, प्रगट करे प्रभु सेव     ।।जिनवर 3।।

कार्यगुण कारणपणे रे, कारण कार्य अनुप;

सकळ सिद्धता ताहरी रे, माहरे साधनरूप     ।।जिनवर 4।।

एक वार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय;

 कारण सत्ये कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय     ।।जिनवर 5।।

प्रभुपणे प्रभु ओळखी रे, अमल विमल गुण गेह;

 साध्यद्दष्टि साधकपणे रे, वंदे धन्य नर तेह     ।।जिनवर 6।।

जन्म कृतारथतेहनो रे, दिवस सफळ पण तास;

 जगत शरण जिन चरणने रे, वंदे धरीय उल्लास     ।।जिनवर 7।।

निज सत्ता निज भावथी रे, गुण अनंतनुं ठाण;

देवचंद्र जिनराजजी रे, शुद्ध सिद्ध सुख खाण     ।।जिनवर 8।।


Sambhav jinwar Pujo re lyrics Devchandraji chouvisi
श्री संभव जिनराजजी रे,

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अर्थ 1-2 : श्री पद्मप्रभ भगवान् गुण के भण्डार हैं, भव्य जीवों को भवसागर से

 तारने वाले हैं, जगत के ईश-स्वामी हैं। उन प्रभु की कृपा से भव्य जीव 

सिद्धि-सुख की सम्पत्ति को प्राप्त करते हैं। हे प्रभो! आपका निर्मल दर्शन 

मुझें अत्यन्त वल्लभ-प्रिय लगता है। सचमुच! आपका दर्शन (मूर्ति-दर्शन या 

जिनेश्वर का शासन अथवा सम्यग्दर्शन-सम्यक्त्व) परम शुद्ध है, पवित्र है । 

क्योंकि उसके द्वारा आत्मा कर्म-मल से रहित बनता है। नय की अपेक्षा से 

इसी बात को स्पष्ट करते हैं कि जो भव्यात्मा परमात्मा का दर्शन शब्द-नय से 

करता हैं उसकी संग्रह-नय की अपेक्षा से शुद्ध सत्ता एवंभूत-नय से पूर्ण 

शुद्धता को प्राप्त करती है अर्थात् संग्रह-नय एवंभूत-नय में परिणत ही जाता 

है । दूसरे शब्दों में आत्मा शुद्धात्मा या परमात्मा बन जाती है।


श्री संभव जिनराजजी रे, ताहरुं अकल स्वरूप, जिनवर पूजो रे;

 स्वपर प्रकाशक दिनमणि रे, समता रसनो भूप जिनवर पूजो ।।

 पूजो पूजो रे भविक जन पूजो, प्रभु पूज्या परमानंद     ।।जिनवर 1।।


अविसंवादी निमित्त छो रे ; जगतजंतु सुखकाज;

हेतु सत्य बहुमानथी रे, जिन सेव्यां शिवराज     ।।जिनवर 2।।


अर्थ 3 : बीज में अनन्त वृक्षों को उत्पन्न करने की शक्ति रही हुई है तथापि 

उसे भूमि (मिट्टी), जल आदि का संयोग मिलता है तो ही वृक्ष उग सकता है। 

उसी तरह मेरी आत्मा में सत्ता की अपेक्षा से अनन्त ज्ञानादि सम्पत्ति रही हुई 

है परन्तु उसका प्रकटीकरण श्री अरिहन्त परमात्मा के दर्शन के संयोग से ही 

होता है !


उपादान आतम सही रे, पुष्टालंबन देव;

उपादान कारणपणे रे, प्रगट करे प्रभु सेव     ।।जिनवर 3।।


अर्थ 4 : जैसे जगत के सर्व जीव स्वकार्य करने की रूचिवाले होते हैं, परन्तु 

सूर्योदय का निमित्त मिलने से वे कार्य सिद्ध होते हैं, इसी तरह श्री जिनेश्वर 

भगवान के ध्यान से ही चिदानन्द-ज्ञानानन्द का विलास वृद्धि को प्राप्त होता 

है।


कार्यगुण कारणपणे रे, कारण कार्य अनुप;

सकळ सिद्धता ताहरी रे, माहरे साधनरूप     ।।जिनवर 4।।


अर्थ 5 : जैसे अमुक मंत्राक्षर में अमुक विद्यासिद्धि की शक्ति रही हुई होती 

है, 

परन्तु उत्तम उत्तरसाधक के योग से ही वह विद्या सिद्ध होती है। उसी तरह 

सहज अनन्त ज्ञानादि-शक्तियाँ आत्मा में रही हुई हैं, परंतु वे उत्तमोत्तम उत्तर 

साधक तत्त्वरंगी परमात्मा के निर्मल ध्यानादि के योग से ही प्रकट होती हैं।


एक वार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय;

 कारण सत्ये कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय     ।।जिनवर 5।।


अर्थ 6 : जैसे पारस के स्पर्शमात्र से लोहा स्वर्णमय बन जाता है वैसे ही 

पूर्णगुणी श्री अरिहन्त परमात्मा के गुणग्राम से-गुणस्मरण ध्यान आदि करने 

से शुद्धि आत्मिक दशा पूर्णरूप से प्रकट होती है।


प्रभुपणे प्रभु ओळखी रे, अमल विमल गुण गेह;

साध्यद्दष्टि साधकपणे रे, वंदे धन्य नर तेह     ।।जिनवर 6।।


अर्थ 7 : श्री अरिहन्त परमात्मा आत्मा की मुक्तिरूप कार्य के लिए सहज 

नियामक-निश्चित कार्य सिद्ध करने वाले हेतु हैं। श्री अरिहन्त परमात्मा के 

नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, ये चारों निक्षेप संसारसागर मे सेतु (पुल) के 

समान हैं अर्थात् भवसागर से पार उतरने के लिए प्रभु के नामादि आलम्बन 

हैं, आधार हैं।


जन्म कृतारथतेहनो रे, दिवस सफळ पण तास;

 जगत शरण जिन चरणने रे, वंदे धरीय उल्लास     ।।जिनवर 7।।


अर्थ 8 : अनन्त गुण के स्वामी भी पद्मप्रभ भगवान् के शरीर को रक्तवर्ण की 

लाल कान्ति भी साधक की इन्द्रियों और मन, वचन, काया के योगों के लिए 

स्तंभन मन्त्र है अर्थात् प्रभु के शरीर के रक्तवर्ण के दर्शन से भव्यात्मा की 

इन्द्रियाँ और मन-वचन-काया स्थिर बनते हैं। देवेन्द्रों के समूह से संस्तुत प्रभु 

वास्तव में तो वर्णरहित और शरीर से भी रहित हैं। सिद्ध अवस्था में वणादि 

या  शरीरादि नहीं होते।


निज सत्ता निज भावथी रे, गुण अनंतनुं ठाण;

देवचंद्र जिनराजजी रे, शुद्ध सिद्ध सुख खाण     ।।जिनवर 8।।


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