Friday, August 18, 2023

Rushabh jinandshu Pritaldi LYRICS Devchandraji Chovisi Stavan

|| Rushabh jinandshu Pritaldi LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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ऋषभ जिणंदशुं प्रीतडी  स्तवन सांग

जैन स्तवन

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ऋषभ जिणंदशुं प्रीतडी  


ऋषभ जिणंदशुं प्रीतडी, किम कीजे हो कहो चतुर विचार;

प्रभुजी जई अलगा वस्या, तिहां किणे नवि हो को वचन उच्चार. ऋषभ० १


कागळ पण पहोंचे नहीं, नवि पहोंचे हो तिहाँ को परधान;

जे पहोंचे ते तुम समो, नवि भाखे हो कोनुं व्यवधान. ऋषभ० २


प्रीति करे ते रागीआ, जिनवरजी हो तुमे तो वीतराग; 

प्रीतडी जेह अरागीथी, भेळववी हो ते लोकोत्तर मार्ग. ऋषभ० ३


प्रीति अनादिनी विष भरी, ते रीते हो करवा मुज भाव; 

करवी निर्विष प्रीतडी, किण भांते हो कहो बने बनाव. ऋषभ० ४


प्रीति अनंती पर थकी, जे तोडे हो ते जोडे एह; 

परमपुरुषथी रागता, एकत्वता हो दाखी गुण-गेह. ऋषभ० ५


प्रभुजीने अवलंबतां, निज प्रभुता हो प्रगटे गुणराश; 

देवचंद्रनी सेवना, आपे मुज हो अविचळ सुखवास. ऋषभ० ६


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अर्थ 1 : हे चतुर पुरुष! वीतराग परमात्मा श्री ऋषभदेव भगवान के साथ प्रीति

किस प्रकार हो सकती है? यह विचार कर कहो। जो नजदीक होता है उसके

साथ तो प्रीति हो सकती है परंतु प्रभु तो बहुत दूर सिद्ध-शिला पर बिराजमान

है, जहाँ वाणी का भी अभाव है, अतः उनके साथ किसी प्रकार की वातचीत

भी नहीं हो सकती है। तो उनके साथ प्रीति कैसे की जा सकती है? यह कहो।


 

ऋषभ जिणंद शुं प्रीतडी, किम कीजे हो कहो चतुर विचार;

प्रभुजी जई अलगा वस्या, तिहां किणे नवि हो कोई वचन उच्चार     

।।ऋषभ 1।।

अर्थ 2 : प्रीति करने का दूसरा साधन पत्र व्यवहार है परंतु सिद्धिगति में पत्र

 भी नहीं पहुँचता। इसी तरह किसी प्रधान-पुरुष (प्रतिनिधि) को भेजकर भी

 प्रीति की जा सकती है, परंतु वह प्रतिनिधि भी वहाँ नहीं पहुँच सकता है।

 साथ ही जो कोई यहाँ से सिद्धि गति में जाता है वह भी आप जैसा ही

 वीतराग, अयोगी एवं असंग होने से हमारा सन्देश किसी को कहता नहीं है ।

 तो प्रभु के साथ प्रीति कैसे की जा सकती है?

 

कागळ पण पहोंचे नहि, नवि पहोंचे हो तिहां को परधान;

जे पहोंचे ते तुम समो, नवि भाखें हो कोईनुं व्यवधान     ।।ऋषभ 2।।


अर्थ 3 : प्रीति करनेवाले हम संसारी जीव तो रागी है और आप रागरहित

 वीतराग है तो परस्पर प्रीति हो सकती है? इस प्रकार प्रभु के साथ प्रीति

 करने की इच्छावाले साधक को सान्त्वना देते हुए चतुर शास्त्रकार कहते है

 कि वीतराग प्रभु के साथ प्रीति करना ही प्रीति का लोकोत्तर (अलौकिक)

 मार्ग है। लोकोत्तर पुरुष के साथ की गई प्रीति भी लोकोत्तर बन जाती है।

 सर्व उत्तम पुरुषो का यही मार्ग है।

 

प्रीति करे ते रागीया, जिनवरजी हो तुमे तो वीतराग;

प्रीतडी जेह अरागीथा, भेळववी हो ते लोकोत्तर मार्ग     ।।ऋषभ 3।।


अर्थ 4 : संसारी जीवों को प्रीति का अभ्यास अनादिकाल से है, परंतु वह

 प्रीति अप्रशस्त है। पुद्गलों की आशंसा से युक्त होने से वह विष से भरी हुई

 है। हे प्रभो ! आपके साथ भी ऐसी ही विषमय प्रीति करने की मेरी इच्छा

 होती है, परंतु प्रभु के साथ तो निर्विष-प्रीति करनी चाहिए। वह कैसे की

 जाय? ज्ञानी पुरुषों ! मुझे यह बताइये ।

 

प्रीति अनादिनी विष भरी, ते रीते हो करवा मुज भाव;

करवी निरविष प्रीतडी, किण भांते हो कहो बने बनाव     ।।ऋषभ 4।।

अर्थ 5 : निर्विष-प्रीति का उपाय बताते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि-पर पुद्गल 

के साथ जो अनंती प्रीति है उसे जो जीव तोड देता है, वह जीव इस परम

 पुरुष परमात्मा के साथ प्रीति जोड सकता है। परमात्मा के साथ की गई

 प्रीति रागरूप होते हुए भी परमात्मा के साथ तन्मय होने में कारणभूत होने

 से वह प्रीति का घर है अर्थात् आत्मिक गुणसंपत्ति को देनेवाली है।

 

प्रीति अनंती पर थकी, जे तोडे हो ते जोडे एह;

परम पुरुषथी रागता, एकत्वता हो दाखी गुणगेह     ।।ऋषभ 5।।

अर्थ 6 : इस प्रकार श्री अरहिंत परमात्मा का अवलंबन लेने से अपनी अनन्त

 गुण-पर्यायमय प्रभुता प्रकट होती है। सचमुच ! देवों में चन्द्र समान श्री

 अरिहंत परमात्मा की सेवा-भक्ति मुझे अविचल अर्थात् मोक्ष-पद देनेवाली

 है । ‘देवचन्द्र पद से स्तुतिकर्ता ने अपना नाम भी सूचित किया है। आगे भी

 ऐसा ही समझना चाहिए।

 

प्रभुजीने अवलंबतां, निज प्रभुता हो प्रगटे गुण राश;

देवचंद्रनी सेवना, आपे मुज हो अविचळ सुखवास     ।।ऋषभ 6।।


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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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