|| ASRAV BHAVNA : आस्त्रव भावना ||
ASHRAV BHAVANA JAIN DHARM RELIGION
|| आस्त्रव भावना -Influx of karma||
Influx of karma
Explanation of ASHRAV BHAVANA in English and Hindi
जिससे कर्म आश्रव के द्वारों को समझा जाता है, वह आस्रव भावना है| कर्मों का आगमन कितने द्वारों से होता है और इनके आगमन के कौन – कौन से कारण हैं तथा उससे कैसा फल – परिणाम मिलता है आदि विष्यों पर चिंतन किया जाता है| कर्मों के वशीभूत प्रत्येक जीव अनादिकाल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है| आस्रव द्वार या स्रोत जब तक खुले रहते हैं, तब तक मनुष्य अपने निजस्वरुप को भूलकर संसार में बार – बार जन्म – मरण धारण कर दु:खों व कष्टों को सहता रहता है|
जो योगन की चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे।।९।।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुधिवन्त तिन्हैं निरवेरे।।९।।
मोह नींद के जोर ,जगवासी घूमैंसदा ,
कर्म -चोर चहुँ ओर ,सरवस लूटें सुध नहीं !
मन-वचन और काय के निमित्त से आत्मा में हलन-चलन-कम्पन रूप चंचलता को आश्रव कहते हैं।।आश्रव से कर्म आते हैं।।यह आश्रव बहुत दुःख दाई है।।क्योंकि इसकी वजह से आत्मा के प्रदेश कर्मों से बंधते हैं।।जिससे आत्मा का अनंत सुख वाला स्वाभाव ढक जाता है,ज्ञान दर्शन स्वाभाव ढक जाता है।।इसलिए बुद्धिमान पुरुष इस आश्रव से दूर रहने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।।इससे मुक्त होने की चाह रखते हैं।।मिथ्यादर्शन,अविरत और कषाय और प्रमाद के साथ आत्मा में परवर्ती नहीं करते हैं।।और कम करते हैं।ऐसा चिंतन करना आश्रव भावना है।
ASRAV BHAVNA आस्त्रव भावना |
आस्रव भावनाजो योगनकी चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई ।
आस्रव दुखकार घनेरे, बुद्धिवन्त तिन्हें निरवेरे ।।९।।
अर्थ - हे भव्यजीवों! मन-वचन-काय की चंचलता से कर्मों का आस्रव होता है, अर्थात् कर्म आत्मप्रदेशों में बंधते हैं। यह कर्मास्रव जीव के लिए बहुत दु:खदायी है इसलिए बुद्धिमान एवं चतुर प्राणियों को यह वास्तविकता समझकर उससे बचना चाहिए अर्थात् उनको दूर करना चाहिए, ऐसा विचार करना ‘आस्रव भावना’ है।
विशेषार्थ - जैसे छिद्र सहित रत्नों से भरा जहाज भी समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही अनन्त गुणों का भण्डार यह आत्मा आस्रवों के कारण संसार-समुद्र में डूब रहा है, ऐसा विचार करना आस्रव भावना है।
अन्वयार्थ : – (भाई) हे भव्य जीव ! (योगनकी)योगोंकी (जो) जो (चपलाई) चंचलता है, (तातैं) उससे (आस्रव) आस्रव (ह्वै) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त (दुखकार) दुःखदायक है; इसलिये (बुधिवन्त) बुद्धिमान (तिन्हैं) उसे (निरवेरे) दूर करें।भावार्थ : – विकारी शुभाशुभभावरूप जो अरूपी दशाजीवमें होती है, वह भाव-आस्रव है और उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना (आत्माके साथ एक क्षेत्रमें आगमन होना) सो द्रव्य-आस्रव है । [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें निमित्तमात्र हैं । ]पुण्य और पाप दोनों आस्रव और बन्धके भेद हैं ।
पुण्य– दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि शुभराग सरागीजीवको होते हैं, वे अरूपी अशुभभाव हैं और वह भावपुण्य है तथा उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना (आत्माके साथ एक क्षेत्रमें आगमन होना) सो द्रव्यपुण्य है । उसमें जीवकी अशुद्धपर्याय निमित्तमात्र है ।
पाप–हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि जो अशुभभाव हैं वहभावपाप हैं, और उस समय कर्मयोग्य पुद्गलोंका आगमन होना सो द्रव्यपाप है। [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें निमित्त मात्र हैं । ]परमार्थसे (वास्तवमें) पुण्य-पाप (शुभाशुभ) आत्माकोअहितकर हैं, तथा वह आत्माकी क्षणिक अशुद्ध अवस्था है । द्रव्य पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्माका हित-अहित नहीं कर सकते–ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीवको होता है और इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके अवलम्बनके बलसे जितने अंशमें आस्रवभावको दूर करता है, उतने अंशमें उसे वीतरागताकी वृद्धि होती है–उसे 'आस्रव भावना' कहते हैं ।।९।।
विशेषार्थ - जैसे छिद्र सहित रत्नों से भरा जहाज भी समुद्र में डूब जाता है, वैसे ही अनन्त गुणों का भण्डार यह आत्मा आस्रवों के कारण संसार-समुद्र में डूब रहा है, ऐसा विचार करना आस्रव भावना है।
अन्वयार्थ : – (भाई) हे भव्य जीव ! (योगनकी)योगोंकी (जो) जो (चपलाई) चंचलता है, (तातैं) उससे (आस्रव) आस्रव (ह्वै) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त (दुखकार) दुःखदायक है; इसलिये (बुधिवन्त) बुद्धिमान (तिन्हैं) उसे (निरवेरे) दूर करें।भावार्थ : – विकारी शुभाशुभभावरूप जो अरूपी दशाजीवमें होती है, वह भाव-आस्रव है और उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना (आत्माके साथ एक क्षेत्रमें आगमन होना) सो द्रव्य-आस्रव है । [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें निमित्तमात्र हैं । ]पुण्य और पाप दोनों आस्रव और बन्धके भेद हैं ।
पुण्य– दया, दान, भक्ति, पूजा, व्रत आदि शुभराग सरागीजीवको होते हैं, वे अरूपी अशुभभाव हैं और वह भावपुण्य है तथा उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना (आत्माके साथ एक क्षेत्रमें आगमन होना) सो द्रव्यपुण्य है । उसमें जीवकी अशुद्धपर्याय निमित्तमात्र है ।
पाप–हिंसा, असत्य, चोरी इत्यादि जो अशुभभाव हैं वहभावपाप हैं, और उस समय कर्मयोग्य पुद्गलोंका आगमन होना सो द्रव्यपाप है। [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें निमित्त मात्र हैं । ]परमार्थसे (वास्तवमें) पुण्य-पाप (शुभाशुभ) आत्माकोअहितकर हैं, तथा वह आत्माकी क्षणिक अशुद्ध अवस्था है । द्रव्य पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्माका हित-अहित नहीं कर सकते–ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीवको होता है और इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके अवलम्बनके बलसे जितने अंशमें आस्रवभावको दूर करता है, उतने अंशमें उसे वीतरागताकी वृद्धि होती है–उसे 'आस्रव भावना' कहते हैं ।।९।।
Pravachan on ASRAV Bhavna
आस्त्रव भावना ASRAV BHAVNA
ज्यों सर-जल आवत मोरी त्यों, आस्रव कर्मन को।
दर्वित जीव प्रदेश गहै जब पुद्गल भरमन को॥
भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को।
पाप पुण्य के दोनों करता,कारण बन्धन को||(16)
पन-मिथ्यात योग- पन्द्रह द्वादश- अविरत जानो।
पंच रु बीसकषाय मिले सब, सत्तावन मानो॥
मोह- भाव की ममता टारै, पर परिणति खोते।
करै मोख का यतन निरास्रव, ज्ञानी जन होते||(17)
संयोगजा चिद्वृत्तियाँ भ्रमकूप आस्रवरूप हैं।
दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं।
संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है।
भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है॥१॥
संयोग के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली चैतन्य की राग-द्वेषरूप वृत्तियाँ भ्रम का कुआँ है, आस्रवभावरूप हैं, दु:खस्वरूप हैं, दुःख की कारण हैं, मलिन हैं, जड़ हैं, अशरंण हैं और संयोगों से रहित भगवान आत्मा परमपवित्र है, परमशरण है, चैतन्यरूप है, भ्रमरोग को हरण करनेवाला, संतोष करनेवाला, सुख करनेवाला और आनन्दरूप है।
इस भेद से अनभिज्ञता मद मोह मदिरा पान है।
इस भेद को पहिचानना ही आत्मा का भान है॥
इस भेद की अनभिज्ञता संसार का आधार है।
इस भेद की नित भावना ही भवजलधि का पार है॥२॥
आत्मा और आस्रव के इस भेद को नहीं जानना मोहरूपी मदिरा का पान करना है और दोनों के भेद को पहिचान लेना ही आत्मा का सच्चा ज्ञान है। इस भेद को नहीं पहिचानना ही संसार का मूल कारण है। इस भेद की निरन्तर भावना ही संसार समुद्र का किनारा है।
इस भेद से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा।
जो जानते इस भेद को वे ही विवेकी आतमा॥
यह जानकर पहिचानकर निज में जमे जो आतमा।
वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा।।३।।
बहिरात्मा जीव इस भेद से सदा अनभिज्ञ ही रहते हैं और जो इस भेद (रहस्य) को जानते हैं, वे ही विवेकजीव हैं। इस रहस्य को जानकर, पहिचानकर जो आत्मा अपने में जम जायेंगे, रम जायेंगे; वे भव्यजन पर्याय में भी परमात्मा बन जायेंगे।
हैं हेय आस्रवभाव सबै श्रद्धेय निज शुद्धातमा।
प्रिय ध्येय निश्चय ज्ञेय केवल श्रेय निज शुद्धातमा।
इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है।
धुवधाम की आराधना आराधना का सार है॥ ४॥
|| ASRAV BHAVANA||
दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं।
संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है।
भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है॥१॥
संयोग के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली चैतन्य की राग-द्वेषरूप वृत्तियाँ भ्रम का कुआँ है, आस्रवभावरूप हैं, दु:खस्वरूप हैं, दुःख की कारण हैं, मलिन हैं, जड़ हैं, अशरंण हैं और संयोगों से रहित भगवान आत्मा परमपवित्र है, परमशरण है, चैतन्यरूप है, भ्रमरोग को हरण करनेवाला, संतोष करनेवाला, सुख करनेवाला और आनन्दरूप है।
इस भेद से अनभिज्ञता मद मोह मदिरा पान है।
इस भेद को पहिचानना ही आत्मा का भान है॥
इस भेद की अनभिज्ञता संसार का आधार है।
इस भेद की नित भावना ही भवजलधि का पार है॥२॥
आत्मा और आस्रव के इस भेद को नहीं जानना मोहरूपी मदिरा का पान करना है और दोनों के भेद को पहिचान लेना ही आत्मा का सच्चा ज्ञान है। इस भेद को नहीं पहिचानना ही संसार का मूल कारण है। इस भेद की निरन्तर भावना ही संसार समुद्र का किनारा है।
इस भेद से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा।
जो जानते इस भेद को वे ही विवेकी आतमा॥
यह जानकर पहिचानकर निज में जमे जो आतमा।
वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा।।३।।
बहिरात्मा जीव इस भेद से सदा अनभिज्ञ ही रहते हैं और जो इस भेद (रहस्य) को जानते हैं, वे ही विवेकजीव हैं। इस रहस्य को जानकर, पहिचानकर जो आत्मा अपने में जम जायेंगे, रम जायेंगे; वे भव्यजन पर्याय में भी परमात्मा बन जायेंगे।
हैं हेय आस्रवभाव सबै श्रद्धेय निज शुद्धातमा।
प्रिय ध्येय निश्चय ज्ञेय केवल श्रेय निज शुद्धातमा।
इस सत्य को पहिचानना ही भावना का सार है।
धुवधाम की आराधना आराधना का सार है॥ ४॥
शुभाशुभभावरूप सम्पूर्ण आस्रवभाव हेय हैं और अपना शुद्धात्मा श्रद्धेय है, ध्येय है, निश्चय से ज्ञेय भी वही है; परमप्रिय एवं श्रेष्ठ भी वही है।इस सत्य को पहिचानना ही आस्रवभावना का सार है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।
सर्वज्ञता के निर्णय से, क्रमबद्धपर्याय के निर्णय से मति व्यवस्थित हो जाती है, कत्र्तत्व का अहंकार गल जाता है, सहज ज्ञानादृष्टापने का पुरुषार्थ जागृत होता है, पर में फेर-फार करने की बुद्धि समाप्त हो जाती है; इसकारण तत्संबंधी आकुलता-व्याकुलता भी चली जाती है, अतीन्द्रिय आनंद प्रगट होने के साथ-साथ अनंत शांति का अनुभव होता है।
सर्वज्ञता के निर्णय और क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से इतने लाभ तो तत्काल प्राप्त होते हैं। इसके पश्चात् जब वही आत्मा, आत्मा के आश्रय से वीतराग-परिणति की वृद्धि करता जाता है, तब एक समय यह भी आता है कि जब वह पूर्ण वीतरागता और सर्वज्ञता को स्वयं प्राप्त कर लेता है। आत्मा से परमात्मा बनने का यही मार्ग है।
अस्त्रवभावना: एक अनुशीलन
संयोगजा चिद्वृत्तियाँ भ्रमकूप आस्त्रवरूप हैं।
दुखरूप हैं दुखकरण हैं अशरण मलिन जड़रूप हैं।।
संयोग विरहित आतमा पावन शरण चिद्रूप है।
भ्रमरोगहर संतोषकर सुखकरण है सुखरूप है।।
शरीरादि संयोगी पदार्थों में एकत्व‘ममत्व एवं इन्हीं शरीरादि के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाली राग-द्वेषरूप विकल्पतरंगें भावास्त्रव हैं, तथा इन्हीं भावास्त्रवों में निमित्त से कर्माण वर्गणाओं का कर्मरूप परिणामित होना द्रव्यस्त्रव है।
भावास्त्रव व द्रव्यास्त्रव - इन दो भेदों के अतिरिक्त मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग्य - इन पाँच भेदों में भी आस्त्रव विभाजित किया जाता है।
ये पाँचों भावों भी भाव और द्रव्य के रूप में दो-दो प्रकार के होते हैं। इनमें भावमिथ्यात्वादि आत्मा के विकारी परिणाम हैं और द्रव्यमिथ्यात्वादि कार्माण वर्गणा के कर्मरूप परिणमन हैं।
शरीरादि संयोगों के समान ये आस्त्रवभाव भी अनत्यि हैं, अशण हैं, अशुचि हैं, आत्मस्वभाव से अन्य हैं, चतुर्गति में संसरण (परिभ्रमण) के हेतु हैं, दुःखरूप हैं, दुःख के हेतु हैं, जडृ हैं इनसे भिन्न ज्ञानादि अनन्त गुणों का अखण्डपिण्ड भगवान आत्मा नित्य है, परमशरणभूत है, संसारपरिभ्रमण से रहित, परमपवित्र, आनन्द का कन्द है और अतीन्द्रियानन्द की प्राप्ति का हेतु भी है। - इस प्रकार का चिन्तन ही आस्त्रवभावना है।
|| ASRAV BHAVANA||
Influx of karma
The inflow of Karmas grows my Universe,
And it also originates the Passions.
Sacrad and sinful kinds of Ashravas...
I'm praying to you...7
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ASRAV BHAVNA आस्त्रव भावना
Under this reflection, one thinks about karma streaming into the soul. Every time he enjoys or suffers through his five senses (touch, taste, smell, sight, and hearing), he accumulates more karma. This thought will make him more careful, and will try to stop the influx of karmas.
Raag, dvesh, agnaan, mithyaatva ityaadik sarv aashrav chhe em chintavvu te saatmi aashravbhavana.
Translation:
To contemplate that attachment, animosity, ignorance of reality, belief in the world as the reality, etc. are cause of karma is the seventh Ashrav bhavana.
— Shrimad Rajchandra, Vachanamrut
Ashrav means inflow of karmas. Evil tendencies and actions pollute and corrupt the soul with karmas. Therefore, one must think to be free from all such activities to avoid the inflow of karmas.
Asrava Bhavna – Influx of karma
Asrava Bhavna – Influx of karma
The inflow of Karmas grows my Universe,
And it also originates the Passions.
Sacrad and sinful kinds of Ashravas...
I'm praying to you...7
This Bhavana reflects the idea that our wrong belief, incorrect thoughts and poor conduct; add to our baggage of karmas.
We can only stop karma if we understand how we add to our acquired karma and find out how we attract it. We need to stop adding to what we’ve acquired so far so that we have less to shed in the future.
The lack of karma will help us on the path to achieve moksha.
Our senses play a major part in our continuous accumulation of karmas. Let’s look at each of the senses now.
Sight
You see a particular insect and want to harm it perhaps because you fear it for one reason or another.
Smell
You smell something that’s rotting and you get angry because you’re disgusted by it.
Touch
You scrape your skin against a broken piece of glass and blame and curse the person who left it there.
Hearing
You hear techno music and you want ear plugs. You are vexed and wonder why anyone would want to listen to it.
Taste
You taste something that has too much salt and you’d rather go hungry than eat it. You think ‘who would make such a thing!’
Can you see how we’re a slave to our senses? Can you see the link between this slavery and how it leads to accumulation of karma?
Now the great thing about this is that our drive to expect less and want less will reduce the amount we react to things. As a result of reacting less we will bind and attract less karma.
Having the right belief, the correct thoughts and good conduct will all help in the aim to bind less karmas.
Our ‘bags’ of karma will begin to empty as we continue to shed what’s there already.
The reduced load will help the soul on the path to freedom, to Moksha. It will also empower your soul to progress spiritually.
Ashrav bhavana refers to the inflow of karma. Every moment of our lives, we are adding to our monumental pile of karma - both good and bad. The karmas stay bound to us and, in turn, bind us to countless cycles of births and deaths because karma can be neutralized only by going through its consequences, that is – the consequences of our thought, speech and action.
The law of karma works in clear and definite ways. It can be positive or negative. When we move, cook, use water or do any activity without ‘jayna’ (utmost care to prevent harm to other living beings around us), we attract karma. When we speak words that hurt or are false, we attract karma. When we think negatively or harbour negative emotions such as anger and jealousy, we attract karma. These are negative karmas.
When we think, speak or do good, we attract positive karma. According to Shri Bhagwati Sutra, positive karmas can be collected only voluntarily, unlike negative karmas which are accumulated even by the mere act of breathing. Like ceaseless rain, karma gets deposited on us every second (called ‘Kaarman varganaa’). In every breath, we kill microorganisms; with every step, we tread on invisible life forms; with every morsel of food and sip of water, we injure and destroy living organisms. This accumulation of karma, though not done consciously, harms us inasmuch as it harms other living beings. It is said that the Jain narration of karma is the most refined and elaborate among all religions.
Param Krupalu Dev Shrimad Rajchandra says this world is the outcome of our positive and negative karmas (punya and paap). Our body is the result of vasanaa (desire) or karma. We get our fleeting moments of joy, fame and success based on the karma arithmetic. It needs to be stressed that no karma bestows lasting peace or happiness. Karma follows the time-honoured cyclical principle – our endless entrapment in this cosmic web leads to desires; desires lead to thoughts, emotions and deeds that settle around our consciousness as layers upon layers of karma.
While the binding of karma through speech and action is generally well understood, we commonly overlook the fact that every thought is energy imbued with a positive or negative charge. Our thoughts are potent and create karmic atoms. It is therefore equally vital to monitor our thoughts as well.
For instance, forming a judgment about something or somebody is limiting that thing or person. At the same time, it causes us to form a positive or negative karma. While nobody is defined by our opinion of him or her, our karma stays with us and causes us pain or happiness. The happiness it causes us is also pain in the long run as it is momentary, distracts us from our sadhana and draws us into the deceptive world of momentary gain.
According to ‘Bhavanabodh’, there are 57 sources of karmic inflow – through our five senses, five vices of indiscipline, four vices of the mind- anger, ego, attachment and greed, and then, every single activity of the body, mind and speech. The type of karma we attract depends on its category and gravity. Having faced the onslaught of heavy karma several times, all of us are aware of the frightening quality of karma to sometimes tear our lives asunder. Just as heavy rainfall causes a pond to overflow and muddies the ground, a high-octane attack of karma from all sides can frighten, baffle and confuse a soul.
A bee by his love for fragrance, a butterfly by his weakness for external beauty, and a fish by its greed for food face the prospect of self-annihilation but cannot overcome their nature and save themselves. Are we too similarly paralysed in thought that we cannot do anything to avoid the lethal blows of our karma?
We, as ‘sangni’ (sentient and rational) human beings, can avoid the repercussions of karma by keeping a constant vigil on our thought, speech and action; by avoiding injury, hurt or death of visible and invisible organisms around us; by continuous introspection on the cause of our karma- whether we are getting carried away by our senses, whether we are slipping deeply in our sansaric or worldly activities, whether we are getting swayed by worldly issues.
When we stop reacting to the world, we understand how to respond. That paves the way to enlightenment, which is a state of being where karmas go on the backfoot. An enlightened soul collects no karmas. Shrimadji has said, “This world is full of misery. Enlightened souls act to surpass this ocean of misery, attain salvation and dwell in eternal bliss.”
Being with Param Pujya Bhaishree enables us to absorb some of his greatness by sheer osmosis. His mere presence instills a detached state of mind within us; a mere glance at him stills our questioning and agitating mind; listening to him quietens the mental and emotional storms brewing within. What better way to stem the karmic tide than to take full advantage of our good fortune?
Once Pujya Saubhagbhai’s son, young Manilal, demanded to see a play. Shrimadji took him to the window and pointed out the scenes outside: men sitting on a horse carriage, a beggar, poor and ailing people, etc. and told him to watch the real “play of karma” unfolding before him.
Each time we are born, we die. Each birth, we create and build a world steeped in desire, ambitions, and emotions. Then comes the moment when all of it is snatched away and we go on to build another world at another place. A wise person seeks and works on the way out. Freedom from karma is possible but first, let’s dwell on its cause and avoid them.
Further Insights
Our scriptures say that countless units of time (samay) pass in the blink of the eye. Param Krupalu Dev Shrimad Rajchandra, in his writings, and Param Pujya Bhaishree, in his discourses, urge us to not waste even a single samay in ‘pramad’ (pursuit of any activity other than spirituality). Every moment spent in ‘pramad’ leads to the binding of karma. If we are offered the choice between flinging mud on our faces and cleansing our face bit by bit, which one would we prefer? A worldly man cannot neglect his duties to himself or others. While doing so, we need to work on ourselves so that we remain free of the mud of attachment in whatever we do. Lord Mahavir has said that an unenlightened person has to assume millions of lives to shed their karma whereas an enlightened person wipes out large swathes of karma in a single moment.
The way dirt sticks to grease and gets deposited as waste on our body, karmic particles stick to the grease of mithyaatva (delusion of the material world being the real world), indiscipline and vices and form ashrav on our soul.
We can only stop karma if we understand how we add to our acquired karma and find out how we attract it. We need to stop adding to what we’ve acquired so far so that we have less to shed in the future.
The lack of karma will help us on the path to achieve moksha.
Our senses play a major part in our continuous accumulation of karmas. Let’s look at each of the senses now.
Sight
You see a particular insect and want to harm it perhaps because you fear it for one reason or another.
Smell
You smell something that’s rotting and you get angry because you’re disgusted by it.
Touch
You scrape your skin against a broken piece of glass and blame and curse the person who left it there.
Hearing
You hear techno music and you want ear plugs. You are vexed and wonder why anyone would want to listen to it.
Taste
You taste something that has too much salt and you’d rather go hungry than eat it. You think ‘who would make such a thing!’
Can you see how we’re a slave to our senses? Can you see the link between this slavery and how it leads to accumulation of karma?
Now the great thing about this is that our drive to expect less and want less will reduce the amount we react to things. As a result of reacting less we will bind and attract less karma.
Having the right belief, the correct thoughts and good conduct will all help in the aim to bind less karmas.
Our ‘bags’ of karma will begin to empty as we continue to shed what’s there already.
The reduced load will help the soul on the path to freedom, to Moksha. It will also empower your soul to progress spiritually.
Ashrav bhavana refers to the inflow of karma. Every moment of our lives, we are adding to our monumental pile of karma - both good and bad. The karmas stay bound to us and, in turn, bind us to countless cycles of births and deaths because karma can be neutralized only by going through its consequences, that is – the consequences of our thought, speech and action.
The law of karma works in clear and definite ways. It can be positive or negative. When we move, cook, use water or do any activity without ‘jayna’ (utmost care to prevent harm to other living beings around us), we attract karma. When we speak words that hurt or are false, we attract karma. When we think negatively or harbour negative emotions such as anger and jealousy, we attract karma. These are negative karmas.
When we think, speak or do good, we attract positive karma. According to Shri Bhagwati Sutra, positive karmas can be collected only voluntarily, unlike negative karmas which are accumulated even by the mere act of breathing. Like ceaseless rain, karma gets deposited on us every second (called ‘Kaarman varganaa’). In every breath, we kill microorganisms; with every step, we tread on invisible life forms; with every morsel of food and sip of water, we injure and destroy living organisms. This accumulation of karma, though not done consciously, harms us inasmuch as it harms other living beings. It is said that the Jain narration of karma is the most refined and elaborate among all religions.
Param Krupalu Dev Shrimad Rajchandra says this world is the outcome of our positive and negative karmas (punya and paap). Our body is the result of vasanaa (desire) or karma. We get our fleeting moments of joy, fame and success based on the karma arithmetic. It needs to be stressed that no karma bestows lasting peace or happiness. Karma follows the time-honoured cyclical principle – our endless entrapment in this cosmic web leads to desires; desires lead to thoughts, emotions and deeds that settle around our consciousness as layers upon layers of karma.
While the binding of karma through speech and action is generally well understood, we commonly overlook the fact that every thought is energy imbued with a positive or negative charge. Our thoughts are potent and create karmic atoms. It is therefore equally vital to monitor our thoughts as well.
For instance, forming a judgment about something or somebody is limiting that thing or person. At the same time, it causes us to form a positive or negative karma. While nobody is defined by our opinion of him or her, our karma stays with us and causes us pain or happiness. The happiness it causes us is also pain in the long run as it is momentary, distracts us from our sadhana and draws us into the deceptive world of momentary gain.
According to ‘Bhavanabodh’, there are 57 sources of karmic inflow – through our five senses, five vices of indiscipline, four vices of the mind- anger, ego, attachment and greed, and then, every single activity of the body, mind and speech. The type of karma we attract depends on its category and gravity. Having faced the onslaught of heavy karma several times, all of us are aware of the frightening quality of karma to sometimes tear our lives asunder. Just as heavy rainfall causes a pond to overflow and muddies the ground, a high-octane attack of karma from all sides can frighten, baffle and confuse a soul.
A bee by his love for fragrance, a butterfly by his weakness for external beauty, and a fish by its greed for food face the prospect of self-annihilation but cannot overcome their nature and save themselves. Are we too similarly paralysed in thought that we cannot do anything to avoid the lethal blows of our karma?
We, as ‘sangni’ (sentient and rational) human beings, can avoid the repercussions of karma by keeping a constant vigil on our thought, speech and action; by avoiding injury, hurt or death of visible and invisible organisms around us; by continuous introspection on the cause of our karma- whether we are getting carried away by our senses, whether we are slipping deeply in our sansaric or worldly activities, whether we are getting swayed by worldly issues.
When we stop reacting to the world, we understand how to respond. That paves the way to enlightenment, which is a state of being where karmas go on the backfoot. An enlightened soul collects no karmas. Shrimadji has said, “This world is full of misery. Enlightened souls act to surpass this ocean of misery, attain salvation and dwell in eternal bliss.”
Being with Param Pujya Bhaishree enables us to absorb some of his greatness by sheer osmosis. His mere presence instills a detached state of mind within us; a mere glance at him stills our questioning and agitating mind; listening to him quietens the mental and emotional storms brewing within. What better way to stem the karmic tide than to take full advantage of our good fortune?
Once Pujya Saubhagbhai’s son, young Manilal, demanded to see a play. Shrimadji took him to the window and pointed out the scenes outside: men sitting on a horse carriage, a beggar, poor and ailing people, etc. and told him to watch the real “play of karma” unfolding before him.
Each time we are born, we die. Each birth, we create and build a world steeped in desire, ambitions, and emotions. Then comes the moment when all of it is snatched away and we go on to build another world at another place. A wise person seeks and works on the way out. Freedom from karma is possible but first, let’s dwell on its cause and avoid them.
Further Insights
Our scriptures say that countless units of time (samay) pass in the blink of the eye. Param Krupalu Dev Shrimad Rajchandra, in his writings, and Param Pujya Bhaishree, in his discourses, urge us to not waste even a single samay in ‘pramad’ (pursuit of any activity other than spirituality). Every moment spent in ‘pramad’ leads to the binding of karma. If we are offered the choice between flinging mud on our faces and cleansing our face bit by bit, which one would we prefer? A worldly man cannot neglect his duties to himself or others. While doing so, we need to work on ourselves so that we remain free of the mud of attachment in whatever we do. Lord Mahavir has said that an unenlightened person has to assume millions of lives to shed their karma whereas an enlightened person wipes out large swathes of karma in a single moment.
The way dirt sticks to grease and gets deposited as waste on our body, karmic particles stick to the grease of mithyaatva (delusion of the material world being the real world), indiscipline and vices and form ashrav on our soul.
Raag, Dwesh, and ignorance attract new karmas. Deluded state and how to be free from delusion is the subject matter of this thought activity.
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JAINAM JAYATI SHASHNAM
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