Saturday, August 17, 2019

ANYATVA BHAVANA अन्यत्व भावना - Separateness

|| ANYATVA BHAVANA : अन्यत्व भावना  ||

ANYATVA  BHAVANA JAIN DHARM RELIGION
|| अन्यत्व भावना - Separateness||
Explanation of ANYATVA BHAVANA in English and Hindi

यह जो शरीर मैंने धारण कर रखा है, वह मेरा नहीं है, फिर घर – परिवार, कुटुम्ब, जाति धन – वैभव आदि मेरे कैसे हो सकते हैं? मैं अन्य हूँ और ये सब मुझसे भिन्न हैं, अलग हैं| शरीरादि तो जड़ हैं, नाशवान हैं, अस्थिर हैं, क्षणभंगुर हैं| मैं तो आत्मा हूँ, चेतना हूँ, शाश्वत हूँ| शरीरदि में मोह – आसक्ति रखना हितकारी नहीं है| जिस प्रकार तिल से तिल और खली, धान से छिलका, फलों से गुठली और रस अलग हो जाता है उसी प्रकार यह शरीर और आत्मा भिन्न – भिन्न है| ऐसी दृढ़ प्रतीति अन्यत्व भावना के चिंतन से ही सम्भव है|

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अन्यत्व भावना ANYATVA BHAVNA

जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला ।


तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत-रामा ।।७।।


अन्वयार्थ : – (जिय-तन) जीव और शरीर (जल-पयज्यों) पानी और दूधकी भाँति (मेला) मिले हुए हैं (पै) तथापि
(भेला) एकरूप (नहिं) नहीं हैं, (भिन्न-भिन्न) पृथक्-पृथक् हैं, (तो) तो फि र (प्रगट) जो बाह्यमें प्रगटरूपसे (जुदे) पृथक् दिखाई देते हैं ऐसे (धन) लक्ष्मी, (धामा) मकान, (सुत) पुत्र और (रामा) स्त्री आदि (मिलि) मिलकर (इक) एक (क्यों) कैसे (ह्वै) हो सकते हैं?

भावार्थ : – जिस प्रकार दूध और पानी एकमेक होकर मिल जाते हैं, किन्तु अपने-अपने गुणादिक की अपेक्षा से दोनों अलग-अलग रहते हैं, उसी प्रकार यह जीव और शरीर भी एकमेक होकर मिले हुए हैं, तो भी वे दोनों अपने-अपने स्वरूपादिक की अपेक्षा से अलग-अलग हैं-एक नहीं। जब लेशमात्र भी पृथक् न दिखने वाले जीव तथा शरीर भी जुदे-जुदे हैं, तब स्पष्टरूप से अलग दिखने वाले धन, मकान, पुत्र, स्त्री आदि एक (अपने) कैसे हो सकते हैं ? ऐसा बारम्बार विचार करना ‘अन्यत्व भावना’ है। इस भावना के चिन्तवन से ‘भेदज्ञान’ की सिद्धि होती है। यद्यपि अनादिकाल से शरीर व आत्मा एक साथ रह रहे हैं, किन्तु जो शरीर है वह आत्मा नहीं और जो आत्मा है वह शरीर नहीं। इसी प्रकार संसार की कोई वस्तु मेरी नहीं और मैं भी किसी का नहीं। अन्य वस्तु अन्य रूप है और मैं अन्य रूप हूँ, ऐसी भावना भानी चाहिए।

विशेषार्थ - संसार की कोई भी वस्तु मेरी नहीं है, दूध-पानी सदृश एकमेक होने वाला शरीर भी मेरा नहीं है, ऐसा चिन्तन करना अन्यत्व भावना है। एकत्व भावना में ‘‘मैं एक हूँ’’ इस प्रकार विधिरूप से एकपने का चिन्तन किया जाता है किन्तु अन्यत्व भावना में ‘देहादिक पदार्थ मेरे नहीं हैं, मुझसे भिन्न हैं’ इस प्रकार निषेधरूप से चिन्तन किया जाता है।


मोह-रूप मृग-तृष्णा जग में, मिथ्या जल चमकै।
मृग चेतन नितभ्रम में उठ उठ, दौड़े थक थककै॥
जल नहिं पावै प्राण गमावे, भटक भटक मरता।
वस्तु पराई माने अपनी, भेद नहीं करता||(12)


जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला।
तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत रामा।।७।।

तू चेतन अरु देह अचेतन, यह जड़ तू ज्ञानी।
मिले-अनादि यतन तैं बिछुडै, ज्यों पय अरु पानी॥
रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना।
जौलों पौरुष थकै न तौलों उद्यम सों चरना||(13)

जिस देह में आतम रहे वह देह भी जब भिन्न है।
तब क्या करें उनकी कथा जो क्षेत्र से भी अन्य हैं।
हैं भिन्न परिजन भिन्न पुरजन भिन्न ही धन-धाम हैं।
है भिन्न भगिनी भिन्न जननी भिन्न ही प्रिय वाम है ॥१॥

जिस देह में यह आत्मा रहता है, जब वह एकक्षेत्रावगाही देह भी आत्मा से भिन्न है तो जो क्षेत्र से भिन्न है, उनकी क्या बात करें? वे तो सर्वथा भिन्न हैं ही। नगरवासी, कुटुम्बीजन, भाई-बहिन, माँ-बाप, पति या पत्नी, धन-धान्य एवं मकान आदि सभी आत्मा से भिन्न ही हैं।


अनुज-अग्रज सुत-सुता प्रिय सुहृद जन सब भिन्न हैं।
ये शुभ अशुभ संयोगजा चिवृत्तियाँ भी अन्य हैं ।
स्वोन्मुख चिद्वृत्तियाँ भी आतमा से अन्य हैं ।
चैतन्यमय ध्रुव आतमा गुणभेद से भी भिन्न है ॥ २॥

छोटे-बड़े भाई, पुत्र-पुत्री, प्रिय मित्रजन आदि सभी तो आत्मा से भिन्न हैं ही, परन्तु पर के लक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाली शुभाशुभभावरूप तथा स्वलक्ष्य से उत्पन्न होनेवाली शुद्धभावरूप चिवृत्तियाँ भी आत्मा से अन्य ही हैं, भिन्न ही हैं; चैतन्यमय ध्रुव आत्मा तो गुणभेद से भी भिन्न परमपदार्थ है।


गुणभेद से भी भिन्न है आनन्द का रसकन्द है।
है संग्रहालय शक्तियों का ज्ञान का घनपिण्ड है ॥
वह साध्य है आराध्य है आराधना का सार है।
धुवधाम की आराधना का एक ही आधार है॥ ३॥

यह गुणभेद से भी भिन्न परमपदार्थ आनन्द का कन्द, ज्ञान का घनपिण्ड एवं अनन्त शक्तियों का संग्रहालय है। वह परमपदार्थ साध्य भी है, आराध्य भी है और आराधना का सार भी वही है। ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना का एकमात्र आधार वही परमपदार्थ निज आत्मा है।


जो जानते इस सत्य को वे ही विवेकी धन्य हैं।
ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है ॥
अन्यत्व को पहिचानना ही भावना का सार है।
एकत्व की आराधना आराधना का सार है ॥४॥

जो जीव इस सत्य को जानते हैं, वे ही विवेकी हैं, वे ही धन्य हैं; क्योंकि ध्रुवधाम के आराधकों की बात ही कुछ और है। अन्यत्वभावना का सार आत्मा का पर से भिन्नत्व. पहिचानना ही है एवं अखण्ड एक आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

जहाँ देह अपनी नहीं ,तहाँ न अपनों कोय ,
घर संपत्ति पर प्रगट ये ,तहाँ न अपनों कोय !

यह जीव और शरीर ,पानी और दूध के सामान एक दुसरे से मिले हुए हैं…लेकिन फिर भी दोनों-दोनों भिन्न-भिन्न हैं।एक नहीं हैं।।अगर शरीर और आत्मा एक ही होती तोह क्या मुर्दे में जान नहीं होती,फिर ऐसा क्यों होता है कि आत्मा के शरीर से निकलते ही।।सारा शरीर ऐसे ही पड़ा रह जाता है,कहाँ चली जाती है उसमें से चेतनता।।यानि कि हम जीव हैं,शरीर नहीं हैं…जब शरीरऔर आत्मा अलग हैं तब जो पर-वस्तुएं,भौतिक वस्तुएं हैं।।धन,घर,परिवार है राज्य है,सम्पदा है,पुत्र है,स्त्री है।।वह मेरी कैसे हो सकती है…ऐसा चिंतन करना अन्यत्व भावना है
जो जानते इस सत्य को वे ही विवेकी धन्य हैं।
धु्रवधाम के आराधकों की बात ही कुछ अन्य है।।
अन्यत्व को पहिचानना ही भावना का सार है।
एकत्व की आराधना आराधना का सार है।।४।।

जो जीव इस सत्य को जानते हैं, वे ही विवेकी हैं, वे ही धन्य हैं; क्योंकि धु्रवधाम के आराधकों की बात ही कुछ और है। अन्यत्वभावना का सार आत्मा का पर से भिन्नत्व पहिचानना ही है एवं अखंड एक आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

तब प्रश्न उठता है कि आखिर ‘मैं हूँ कौन?‘ यदि एक बार यह प्रश्न हृदय की गहराई से उठे और उसके समाधान की सच्ची जिज्ञासा जगे तो इसका उत्तर मिलना दुर्लभ नहीं। पर यह ‘मैं‘ पर की खोज में स्वयं को भूल रहा है। कैसी विचित्र बात है कि खोजने वाला खोजने वाले को ही भूल रहा है। सारा जगत पर की संभाल में इतना व्यस्त नजर आता है कि ‘मैं कौन हूँ?‘ - यह सोचने-समझने की उसे फुर्सत ही नहीं है।

'मैं' शरीर, मन, वाणी, और मोह-राग-द्वेष, यहाँ तक कि क्षणस्थायी परलक्षी बुद्धि से भिन्न एक त्रैकालिक, शुद्ध, अनादि-अत्यंत, चैतन्य, ज्ञानानंदस्वभावी ध्रवतत्व हूँ, जिसे आत्मा कहते हैं।

|| ANYATVA BHAVANA|| 
Separateness

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 Soul is separate from my body,
All relatives are different from me,
I think, my soul is as God.....
I'm praying to you....5


Under this reflection, one thinks that one's own soul is separate from any other objects or living beings of the world. Even his physical body is also not his. At the time of death, soul leaves the body behind. The body is matter, while the soul is all consciousness.


The soul therefore should not develop attachment for worldly objects, other living beings, or to his physical body. He should not allow himself to be controlled by desires, greed, and urges of his own physical body.

Aa sansaarma koi koinu nathi em chintavvu te paanchmi anyatvabhavana.
Translation : To contemplate that nobody truly belongs to another person is Anyatvabhavana.— Shrimad Rajchandra


Anyatva Bhavna – Separateness
Anyatva Bhavana – Thinking of the soul as separate from the body.

Under this reflection, one thinks that one’s own soul is separate from any other objects or living beings of the world. Even his physical body is also not his. At the time of death, soul leaves the body behind. The body is matter, while the soul is all consciousness.
The Jain concept of Anyatva refers to the thinking that we have a sense of identity which may be associated to us belonging to a community, a family, a workplace or any other group, for example.

Anyatva means that we should not identify ourselves with these things. They are temporary and part of sansaar. The truth is that nothing is mine. We are the soul and only the soul.

The body and the soul are different and separate from each other. The body is inert, but my soul is the very embodiment of consciousness. The soul is imperishable. It will not die. The body; of course, burns and becomes ashes. Agonies afflict only the body and not to the soul. I am not the body. The body is not mine.
The soul therefore should not develop attachment for worldly objects, other living beings, or to his physical body. He should not allow himself to be controlled by desires, greed, and urges of his own physical body.
This Bhavana reflects the fact that the body is separate to the soul. Here are some examples to illustrate this Bhavana.

As time passes, the body will age and decay. Eventually, it will perish. However, the only thing which is imperishable is the soul.

The soul is the embodiment of consciousness. For this reason we shouldn’t get attached to the body that we are born into as it will not come with us in our next birth.

This applies to the relationships that the body identifies with. They are separate to the soul. They are not everlasting! In one lifetime we may be the parent of a being. However, in another lifetime we could be a sibling to the same being. Therefore we should not be attached to the body or the relationships that the body can identify with. We also need to refrain from indulging in the passions of the physical body, through emotions, such as, greed, anger, ego or lust.

Mahavir Bhagwan experienced 27 significant births prior to liberating his soul. His soul was born into different gatis. Every time his life ended, the body perished and the soul was born into a new form with a different body. For this reason, we should not be attached to the body as it is not ours. As our soul moves from one life form to another our body will not.

Now the bliss in this understanding is all to do with the human birth. Through the human birth one can attain Moksha. This gives us freedom from pain, suffering, greed, lust, ego, loss and much more. So let’s focus on the soul, rather than, the body and let’s empower the soul  so that we can be rid of birth, death and rebirth.



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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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