Showing posts with label Devchandraji. Show all posts
Showing posts with label Devchandraji. Show all posts

Saturday, August 26, 2023

Dharma jagnathno dharma suchi gayiye Devchandraji jain stavan

|| Dharmanath Dharma jagnathno dharma suchi gayiye LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
To download this song click HERE.


धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईये स्तवन स्तवन सांग

जैन स्तवन


श्री धर्मनाथ भगवान् स्तवन Devchandraji jain stavan

Dharma jagnathno dharma suchi gayiye,Dharmanath bhagwan stavan,Devchandraji stavan ,Devchandra chovishi,jain stavan chovishi,24 tirthankar stavan,jain stavan,श्री धर्मनाथ भगवान्, धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईये, आपणो आतमा तेहवो भाविये; जाति जसु एकता तेह पलटे नहि, शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी,श्री धर्मनाथ भगवान्
श्री धर्मनाथ भगवान्






Please visit this channel for more stavans like this.





||  धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईजी ||  


धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईये, आपणो आतमा तेहवो भाविये;
जाति जसु एकता तेह पलटे नहि, शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी     ।।1।।
 
नित्य निरवयव वली एक अक्रियपणे, सर्वगत तेह सामान्य भावे भणे;
तेहथी ईतर सावयव विशेषता, व्यक्तिभेदे पडे जेहनी भेदता     ।।2।।
 
एकता पिंडने नित्य अविनाशता, अस्ति निज ऋद्धिथी कार्य गत भेदता;
भावश्रुत गम्य अभिलाप्य अनंतता, भव्यपर्यायनी जे परावर्तिता     ।।3।।

क्षेत्र गुण भाव अविभाग अनेकता, नाश उत्पाद अनित्य परनास्तिता;
क्षेत्र व्याप्यत्व अभेद अवकतव्यता, वस्तु ते रूपथी नियत अभव्यता     ।।4।।

धर्म प्राग्भावता सकल गुण शुद्धता, भोग्यता कर्तृता रमण परिणामता;
शुद्ध स्वप्रदेशता तत्त्व चैतन्यता, व्याप्य व्यापक तथा ग्राह्य ग्राहकता     ।।5।।

संग परिहारथी स्वामी निज पद लह्युं, शुद्ध आत्मिक आनंद पद संग्रह्युं;
जहवि परभावथी हुं भवोदधि वस्यो, पर तणो संग संसारताए ग्रस्यो     ।।6।।

तहवि सत्ता गुणे जीव ते निरमलो, अन्य संश्लेष जिम स्फटिक नवि सामलो;
जे परोपाधिथी दुष्ट परिणति ग्रही, भाव तादात्म्यमा माहरुं ते नहीं     ।।7।।

तिणे परमात्म प्रभु भक्तिरंगी थई, शुद्ध कारण रसे तत्त्व परिणतिमयी;
आत्म ग्राहक थये तजे पर ग्रहणता, तत्त्व भोगी थये टले परभोग्यता     ।।8।।

शुद्ध नि:प्रयास निज भाव भोगी यदा, आत्मक्षेत्रे नहि अन्य रक्षण तदा;
एक असहाय निस्संग निर्द्वंद्वता, शक्ति उत्सर्गनी होय सहु व्यक्तता     ।।9।।

तिणे मुझ आतमा तुज थकी नीपजे, माहरी संपदा सकल मुज संपजे;
तेणे मन-मंदिरे धर्म प्रभु ध्याईये, परम देवचंद्र निज सिद्धि सुख पाईये     ।।10।।



Below explanation is taken from https://swanubhuti.me/
 
Please visit the site for more such stavans 



अर्थ 1 : जगत के नाथ श्री धर्मनाथ भगवान् के शुद्धस्वभाव का निरन्तर गान, स्मरण और ध्यान करना चाहिए तथा उनके शुद्धस्वभाव में तन्मय बनकर अपने आत्मा को भी उसी परमात्मरूप में देखना चाहिए। क्योंकि, जीव की जीवत्व जाति एक ही है। वह कभी बदलती नहीं। शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से तो वस्तु-आत्मा की सत्ता शुद्ध गुण-पर्यायमयी हैं। संग्रहनय शुद्ध सामान्य सत्ताग्रही है अतः वह सर्व जीवों को सिद्ध समान मानता है।

धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाईये, आपणो आतमा तेहवो भाविये;
जाति जसु एकता तेह पलटे नहि, शुद्ध गुण पज्जवा वस्तु सत्तामयी     ।।1।।

अर्थ 2 : जो नित्य (अविनाशी), निरवयव (विभाग-अंशरहित), एक, अक्रिय (हलन-चलनादि क्रियारहित) और सर्वगत (सर्व प्रदेश-गुण-पर्याय में व्यापक) हो उसे सामान्य स्वभाव कहते हैं। इस सामान्य स्वभाव से इतर-प्रतिपक्षी-विपरीत हो उसे विशेष स्वभाव कहते है। जैसे अनित्य, सावयव, अनेक, सक्रिय और देशगत हो तथा व्यक्तिभेद से जिसमें भेद हो, वह विशेष है। अर्थात् सब व्यक्तियों में विशेषत्व भिन्न होता है। ज्ञानादि गुणों का भेद विशेष स्वभाव को लेकर ही होता है।

नित्य निरवयव वली एक अक्रियपणे, सर्वगत तेह सामान्य भावे भणे;
तेहथी ईतर सावयव विशेषता, व्यक्तिभेदे पडे जेहनी भेदता     ।।2।।

अर्थ 3 : एकता, नित्यता, अस्तिता, भेदता, अभिलाप्यता और भव्यता, ये छह सामान्य स्वभाव हैं और वै प्रत्येक द्रव्य, गुण और पर्याय में होते हैं। (1) एकता : पिण्ड अर्थात् एक स्वभाव। जैसे द्रव्य के सर्व प्रदेश, गुण और पर्याय का समुदाय एक पिण्डरूप है, भिन्न नहीं, यह एक स्वभाव है। (2) नित्यता : सर्व द्रव्यों में ध्रुवता रही हुई है, यह नित्य स्वभाव है। (3) अस्तिता : स्वभाव से सब द्रव्य सत् हैं। वे कभी भी अपनी गुण-पर्याय की ऋद्धि को नहीं छोडते, यह अस्ति स्वभाव है। (4) भेदता : यह कार्यगत है अर्थात् कार्य की अपेक्षा से भेद स्वभाव होता है। जैसे आत्मद्रव्य में ज्ञान गुण जानने का, दर्शन गुण देखने का और चारित्र गुण रमणता का कार्य करता है। इस प्रकार कार्य के भेद से द्रव्य में भेद स्वभाव होता है। (5) अभिलाप्यता : श्रुत-वचन से गम्य भावों में अर्थात् वचन से कहे जा सकनेवाले या श्रुतज्ञान से जाने जा सकनेवाले भावों में अभिलाप्य स्वभाव होता है। जैसे आत्मद्रव्य में अनन्त ऐसे भाव हैं जो वचन से कहे जा सकते हैं। (6) भव्यता : पर्यायों का परावर्तन होना, यह भव्य स्वभाव हैं।

एकता पिंडने नित्य अविनाशता, अस्ति निज ऋद्धिथी कार्य गत भेदता;
भावश्रुत गम्य अभिलाप्य अनंतता, भव्यपर्यायनी जे परावर्तिता     ।।3।।

अर्थ 4 : ऊपर बताये हुए सामान्य स्वभाव के प्रतीपक्षी अनेकता आदि छह सामान्य स्वभाव का स्वरूप इस प्रकार है। (1) अनेकता भाव : क्षेत्र, गुण, भाव (पर्याय) के अविभाग द्वारा अनेकता है। (अ) क्षेत्र के अविभाग : पदार्थ में प्रदेशरूप अविभाग अनेक होते हैं। (ब) गुण के अविभाग : एक-एक गुण के अनन्त अविभाग होते हैं। (क) भाव के अविभाग : अर्थात् पर्याय-धर्म। एक एक ज्ञानादि गुण के अनन्त पर्याय होते है। अर्थात् क्षेत्र, गुण और पर्याय की अपेक्षा से द्रव्य में अनेक स्वभाव है। (2) अनित्यता : उत्पत्ति और विनाश की अपेक्षा से द्रव्य में अनित्यता है। (3) नास्तिता : एक द्रव्य के धर्म दूसरे द्रव्य में नहीं होते अतः पर की अपेक्षा से द्रव्य में नास्ति स्वभाव है। (4) अभेदता : सर्व गुण-पर्यायों का आधार द्रव्य होता है। मूल द्रव्य को छोड़कर कोई गुण अन्यत्र नहीं रहता अतः एक क्षेत्र को अवगाहकर सर्व गुण-पर्याय रहे हुए होने से द्रव्य में अभेद स्वभाव है। (5) अनभिलाप्यता : द्रव्य में अनन्त भाव ऐसे होते हैं जो वचन से अगोचर हैं। इस अपेक्षा से द्रव्य में अनभिलाप्यता स्वभाव है। (6) अभव्यता : द्रव्य में अनेक पर्यायों का परावर्तन होता है तो भी वस्तु का मूल स्वरूप नहीं बदलताः उसी रूप में रहता है। इस नियतपन को लेकर द्रव्य में अभव्य स्वभाव है। उक्त बारह प्रकार के सामान्य स्वभावों का विस्तृत वर्णन ‘सन्मतितर्क, धर्मसंग्रहणी और द्रव्य-गुण पर्यायनो रास’ आदि ग्रंथो में है। विशेष जिज्ञासु वहाँ से जान लेवें। ये सब धर्म एक ही समय में द्रव्य में रहते हैं। जिस समय एकता है उसी समय अनेकता, जिस समय नित्यता है उसी समय अनित्यता भी है। इस प्रकार एक-एक स्वभाव की सप्तभंगी होती है। इस तरह द्रव्य में अनन्त स्वभावों की अनन्ती सप्तभंगियाँ होती है। यह बात ‘स्याद्वाद रत्नाकर और रत्नाकरावतैरिका’ आदि ग्रन्थों में विस्तार से समझायी गई है। यह सामान्य स्वभाव सब पदार्थो का (द्रव्यास्तिक) मूल-धर्म है। सब पदार्थों में इसका परिणमन होने से सर्व पदार्थ स्याद्वादमय हैं।

क्षेत्र गुण भाव अविभाग अनेकता, नाश उत्पाद अनित्य परनास्तिता;
क्षेत्र व्याप्यत्व अभेद अवकतव्यता, वस्तु ते रूपथी नियत अभव्यता     ।।4।।

अर्थ 5 : विशेष स्वभाव प्रत्येक द्रव्य में भिन्न भिन्न होता है। जीव द्रव्य के कतिपय विशेष स्वभावों का स्वरूप इस प्रकार है – (1) आविर्भावता : ज्ञानादि गुणों का प्रकट होना, यह आविर्भावता है। (2) भोग्यता या भोक्तृता : समग्र शुद्ध गुणों में भोग्यता है और आत्मा उन शुद्ध गुणों का भोक्ता है, अतः उसका भोक्तृत्व स्वभाव है। (3) कर्तृता : आत्मा में कर्तृत्व स्वभाव है । उसके सर्व प्रदेश एक साथ मिलकर कार्य-प्रवृत्ति करते हैं जबकि अन्य द्रव्यों के प्रति प्रदेश में अलग-अलग कार्य होता है अतः उनमें कर्तृता स्वभाव नहीं है। (4) रमणता : स्वगुण-पर्याय में रमण करना, यह आत्मा का रमणता स्वभाव है। (5) पारिणामिकता : शुद्ध स्वप्रदेशता अर्थात् प्रदेशों की पूर्ण शुद्धता होना। (6) तत्त्व-चैतन्यता : तत्त्व अर्थात् आत्मास, उसमें चेतना का होना उसका विशेष स्वभाव है। (7) व्याप्य-व्यापकता : आत्मा व्यापक है। उसके ज्ञानादि गुण व्याप्य है, अतः आत्मा में व्याप्य-व्यापकभाव है। (8) ग्राह्य-ग्राहकता : स्वगुण ग्राह्य हैं और आत्मा ग्राहक है, अतः आत्मा में ग्राह्य-ग्राहक भाव है। इसी प्रकार स्व-स्वामित्वादि आत्मा के विशेष स्वभाव भी जान लेने चाहिए।

धर्म प्राग्भावता सकल गुण शुद्धता, भोग्यता कर्तृता रमण परिणामता;
शुद्ध स्वप्रदेशता तत्त्व चैतन्यता, व्याप्य व्यापक तथा ग्राह्य ग्राहकता     ।।5।।

अर्थ 6 : हे स्वामीनाथ ! पुद्गलमात्र का संग छोड़कर आप तो शुद्ध आत्मिक आनन्दमय निज-पद को प्राप्त कर चुके हो और मैं पर-पुदगल पदार्थों में मोहित बनकर चार गतिमय संसार-समुद्र में परिभ्रमण कर रहा हूँ। पुद्गल का संग करने सी इस संसार (कर्म) ने मुझे ग्रस लिया है-जकड़ लिया है। इस प्रकार आपके और मेरे आत्मा के बीच बहुत अन्तर पड गया है।

संग परिहारथी स्वामी निज पद लह्युं, शुद्ध आत्मिक आनंद पद संग्रह्युं;
जहवि परभावथी हुं भवोदधि वस्यो, पर तणो संग संसारताए ग्रस्यो     ।।6।।

अर्थ 7 : तो भी सत्ता गुण से अर्थात् द्रव्यास्तिक संग्रहनय की अपेक्षा से विचारने पर प्रतीत होता है कि मेरी आत्मा भी निर्मल है, कर्मकलंक से रहित है, असंग और अरूपी है। जैसे अन्य कृष्णादि पदार्थो के संयोग से स्फटिक काला दिखाई देता है, परन्तु वात्सव में वह काला नहीं होता। (1) निर्मलस्फटिकस्येव सहजं रूपमात्मनः (ज्ञानसार)(2) जेम निर्मलता रे रत्न स्फटिक तणी, तेम ए तीव-स्वभाव। – इत्यादि। उसी तरह पर उपाधि से-पुद्गल द्रव्य (कर्म) के योग से दुष्ट राग-द्वेष की परिणति होती है। आत्मा पर पदार्थों और कर्म के कर्त्तापन का अभिमान करता है परंतु वह सर्व दुष्ट भाव मेरे तादात्म्य-भाव नहीं है। वह सब उपाधिजन्य विभाव मेरा नहीं है बल्कि कर्म के संयोग के कारण है।

तहवि सत्ता गुणे जीव ते निरमलो, अन्य संश्लेष जिम स्फटिक नवि सामलो;
जे परोपाधिथी दुष्ट परिणति ग्रही, भाव तादात्म्यमा माहरुं ते नहीं     ।।7।।

अर्थ 8 : उक्त रीति से विभाव परिणति मेरे आत्मा में उत्पन्न हुआ मूल स्वभाव नहीं है, अतः उसका निवारण हो सकता है। ऐसा विचारकर साघक परमात्मा की भक्ति में तन्मय होकर शुद्ध निमित्त-कारणरूप परमात्मा के ध्यान में मग्न बनकर तत्त्व परिणतिवाला बनता है। अर्थात् आत्मस्वभाव दशा में मग्न बनता है। इस प्रकार आत्मस्वरूप का ग्राहक ओर भोक्ता बनने से पर पुद्गल की ग्राहकता का त्याग करता है अर्थात् वह पर पदार्थों को न तो ग्रहण करता है और न भोगता ही है।

तिणे परमात्म प्रभु भक्तिरंगी थई, शुद्ध कारण रसे तत्त्व परिणतिमयी;
आत्म ग्राहक थये तजे पर ग्रहणता, तत्त्व भोगी थये टले परभोग्यता     ।।8।।

अर्थ 9 : जब आत्मा शुद्ध निर्मल और प्रयासरहित ऐसे आत्म-स्वभाव का भोक्ता होता है तब आत्मप्रदेशरूप क्षेत्र मेंम अन्य पुद्गल या रागद्वेषादि नहीं रह सकते। अर्थात् आत्म-स्वरूप में लीनता होती है तब सब आत्मप्रदेशों में संयोग-संबंध से रहे हुए सर्व कर्म-पुद्गल नष्ट हो जाते हैं और उस समय एक, असहाय, निःसंग (कर्मसंगरहित), निर्द्वन्द्व (राग-द्वेषरहित), उत्सर्ग-शक्ति (परम आत्म-शक्ति) प्रकट होती है।

शुद्ध नि:प्रयास निज भाव भोगी यदा, आत्मक्षेत्रे नहि अन्य रक्षण तदा;
एक असहाय निस्संग निर्द्वंद्वता, शक्ति उत्सर्गनी होय सहु व्यक्तता     ।।9।।

अर्थ 10 : इस प्रकार अरिहन्त परमात्मा के आलंबन से मेरा आत्मतत्त्व प्रकट होता है। मेरी सत्तागत आत्म-लक्ष्मी प्राप्त होती है। ऐसा जानकर जो मुमुक्षु आत्मा अपने मन-मन्दिर में सदा धर्मनाथ प्रभु का ध्यान करते हैं, वे देवों में चन्द्र समान निर्मल जिन सिद्धि-सुख को प्राप्त करते हैं।

तिणे मुझ आतमा तुज थकी नीपजे, माहरी संपदा सकल मुज संपजे;
तेणे मन-मंदिरे धर्म प्रभु ध्याईये, परम देवचंद्र निज सिद्धि सुख पाईये     ।।10।।

If you are interested in knowing the meanings of the 24 stavans

then below pdfs have more insights and page number of all the 

stavans are as per below

You can download below pdf  with stavan from 1st to 12th Tirthankar from here.


Below with Stavan from 13st to 24th Tirthankar from here.

This Blog is sponsored by :
मातुश्री पवनिदेवी अमीचंदजी खाटेड़ संघवी || राजस्थान : करडा 
MATUSHREE PAVANIDEVI AMICHANDJI KHATED SANGHVI 

 

JAINAM JAYATI SHASHNAM

IF YOU ARE INTERESTED IN LIST OF ALL THE SONGS TO DOWNLOAD  JUST CLICK THE BELOW 
HIGHLIGHTED BUTTON TO DOWNLOAD FROM GOOGLE DRIVE
Note : Click HERE to download from google drive and click on the song or down arrow 
to download it

Vasupujya Pujana toh kije re Vasupujya Jintani lyrics -Devchandraji stavan

|| Vasupujya Pujana toh kiye barma jintani Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
To download this song click HERE.


श्री पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे स्तवन सांग

जैन स्तवन


Pujana toh kije barma vasupujya tana,Vasupujya Pujana toh kije re Vasupujya Jintani lyrics,Devchandraji ,श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन,Devchandraji Stavan,24 tirthankar,jain chovishi,Devchandraji stavan,Devchandraji Stavan,Devchandraji,Devchandra chovishi,jain stavan chovishi,




Suvidhinath devchandra stavan Ditho suvidhijinand दीठो सुविधि जिणंद ho lal 





Please visit this channel for more stavans like this.





||  Vasupujya Pujana toh kije re ||  


पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव,
पर कृत पूजा रे जे ईच्छे नहि रे, साधक कारज दाव     ।।पूजना 1।।
 
द्रव्यथी पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध;
परम ईष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयंबुद्ध     ।।पूजना 2।।
 
अतिशय महिमा रे अति उपगारता रे, निरमल प्रभु गुणराग;
सुरमणि सुरघट सुरतरुतुच्छ ते रे, जिनरागी महाभाग     ।।पूजना 3।।
 
दर्शन ज्ञानादिक गुण आत्मना रे, प्रभु प्रभुता लयलीन;
शुद्ध स्वरूपी रूपे तन्मयी रे, तसु आस्वादनपीन     ।।पूजना 4।। 

शुद्ध तत्त्वरंगी चेतना रे, पामे आत्म स्वभाव;
आत्मालंबी निज गुण साधतो रे, प्रगटयो पूज्य स्वभाव     ।।पूजना 5।।
 
आप अकर्त्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि;
निज धन न दीये पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि     ।।पूजना 6।।
 
जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति;
परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति     ।।पूजना 7।।



Below explanation is taken from https://swanubhuti.me/
 
Please visit the site for more such stavans 


अर्थ 1 : जिनका पूज्य पूर्ण शुद्ध स्वभाव प्रकट हो चूका है और जो परकृत-अन्य से पूजा करवाने के अभिलाषी नहीं हैं तथापि साधक की सिद्धता में परम साधन हैं, ऐसे श्री वासुपूज्य स्वामी भगवान् की पूजा मुमुक्षु आत्माओं को अवश्य करनी चाहिए।

पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव,
पर कृत पूजा रे जे ईच्छे नहि रे, साधक कारज दाव     ।।पूजना 1।।

अर्थ 2 : प्रभु पूजा के मुख्य दो प्रकार है : (1) द्रव्यपूजा और (2) भावपूजा। द्रव्यपूजा यानी जल, स्नान, विलेपन आदि द्वारा होने वाली पूजा। वह भावपूजा का कारण है और मन-वचन-काया को स्थिर बनाती है। भावपूजा भी दो प्रकार की है ः (1) प्रशस्त भावपूजा और (2) शुद्धभाव पूजा। गुणी पर के राग को प्रशस्त भावपूजा कहतें हैं। तीन भुवन के स्वामी भगवान ही मुझे परम इष्ट हैं, वल्लभ हैं, वी ही प्रिय लगते हैं। यह प्रशस्त रागरूप भावपूजा है।

द्रव्यथी पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध;
परम ईष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयंबुद्ध     ।।पूजना 2।।

अर्थ 3 : प्रभु के अष्ट प्रातिहार्य और चौतीस अतिशयों की महिमा सुनकर अति आश्चर्य पैदा होता है। शुद्ध-धर्म की देशना द्वारा सब जीवों के मोहान्धकार को दूर कर, सर्व सन्देहों को टालकर आत्मधर्म की पहचान करानेवाले अरिहन्त प्रभु की अनन्त उपकारिता और निर्मल केवलज्ञानादि गुणों घर जो अनुराग-अहोभाव उत्पन्न होता है वह भी प्रशस्त भावपूजा है। महापुण्यशाली जिनेश्वर के भक्तों (रागियों) को प्रभुभक्ति के सामने सुरमणि (चिंतामणि), सुरघट (कामकुम्भ) सुरतरु (कल्पवृक्ष) भी तुच्छ (निस्सार) लगते हैं। आगे की दो गाथाओं में शुद्ध भावपूजा का स्वरूप बताते हैं।

अतिशय महिमा रे अति उपगारता रे, निरमल प्रभु गुणराग;
सुरमणि सुरघट सुरतरुतुच्छ ते रे, जिनरागी महाभाग     ।।पूजना 3।।

अर्थ 4 : अपने क्षयोपशमभाव से प्रकटित सम्यग्दर्शन और ज्ञानादि गुणों को परमात्मा-प्रभु की परम प्रभुता में लयलीन बनाने के लिए शुद्ध स्वरूपी परमात्मा के स्वरूप में तन्मय होकर अनुभव-अमृत के आस्वाद से आत्मा को पुष्ट बनाना शुद्ध भावपूजा है।

दर्शन ज्ञानादिक गुण आत्मना रे, प्रभु प्रभुता लयलीन;
शुद्ध स्वरूपी रूपे तन्मयी रे, तसु आस्वादनपीन     ।।पूजना 4।।

अर्थ 5 : शुद्धतत्त्वी श्री अरिहन्त परमात्मा और सिद्ध भगवन्त के ध्यान-सुधारस के रंग से जब चेतना रँगती है तब वह आत्म-स्वभाव को पाती है। इस प्रकार प्रभु के आलम्बन से स्वरूपालम्बी बना हुआ आत्मा आत्मगुणों को साधता हुआ क्रमशः अपने पूज्य-स्वभाव को प्रकट करता है।

शुद्ध तत्त्वरंगी चेतना रे, पामे आत्म स्वभाव;
आत्मालंबी निज गुण साधतो रे, प्रगटयो पूज्य स्वभाव     ।।पूजना 5।।

अर्थ 6 : हे परमात्मन् ! आप अन्य जीवों के मोक्ष के कर्त्ता नहीं है। फिर भी आपकी सेवा से सेवक पूर्ण सिद्धता प्राप्त करता है। आप अपना ज्ञानादि धन किसी को नहीं देते हैं तो भी आपका आश्रित भक्त कभी नष्ट न होनेवाली अक्षय अक्षर आत्म-समृद्धि को प्राप्त करता है।

आप अकर्त्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि;
निज धन न दीये पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि     ।।पूजना 6।।

अर्थ 7 : सचमुच ! परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर जिनेश्वर परमात्मा की पूजा स्व-आत्मा की ही पूजा है। क्योंकि जैसे जैसे साधक प्रभुपूजा में तन्मय बनता है वैसे उसकी अन्वय शक्ति-सहज (स्वाभाविक) अनन्त आत्मशक्ति प्रकट होती है। आत्मा परमान्द का विलासी बनकर देवों में चन्द्र समान निर्मल सिद्ध-पद को प्रकट करके उसका साक्षात् अनुभव करता है।

जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति;
परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति     ।।पूजना 7।।

If you are interested in knowing the meanings of the 24 stavans

then below pdfs have more insights and page number of all the 

stavans are as per below

You can download below pdf  with stavan from 1st to 12th Tirthankar from here.


Below with Stavan from 13st to 24th Tirthankar from here.

This Blog is sponsored by :
मातुश्री पवनिदेवी अमीचंदजी खाटेड़ संघवी || राजस्थान : करडा 
MATUSHREE PAVANIDEVI AMICHANDJI KHATED SANGHVI 

 

JAINAM JAYATI SHASHNAM

IF YOU ARE INTERESTED IN LIST OF ALL THE SONGS TO DOWNLOAD  JUST CLICK THE BELOW 
HIGHLIGHTED BUTTON TO DOWNLOAD FROM GOOGLE DRIVE
Note : Click HERE to download from google drive and click on the song or down arrow 
to download it

Munichand jinand Sri Shreyansh prabhu tano Devchandraji श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन

|| Shital jinpati Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
To download this song click HERE.


श्री शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी स्तवन सांग

जैन स्तवन


Munichand jinand, Sri Shreyansh prabhu tano ,Devchandraji ,श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन,Devchandraji Stavan,24 tirthankar,jain chovishi श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे; गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज । मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे
Munichand jinand Sri Shreyansh prabhu tano Devchandraji
श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन



Shreyanshnath bhagwan






Please visit this channel for more stavans like this.





||  श्री श्रेयांस प्रभु तणो मुनिचंद जिणंद अमंद ||  


श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे;
गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज ।
मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे     ।।1।।
 
निज ज्ञाने करी ज्ञेयनो, ज्ञायक ज्ञाता पद ईश रे;
देखे निज दर्शन करी, निज दृश्य सामान्य जगीश रे     ।।मुनिचंद 2।।
 
निज रम्ये रमण करो, प्रभु चारित्रे रमताराम रे;
भोग्य अनंतने भोगवो, भोगे तेणे भोक्ता स्वाम रे     ।।मुनिचंद 3।।
 
देय दान नित दीजते, अति दाता प्रभु स्वयमेव रे;
पात्र तुमे निज शक्तिना, ग्राहक व्यापकमय देव रे     ।।मुनिचंद 4।।
 
परिणामी कारज तणो, कर्ता गुण करणे नाथरे;
अक्रिय अक्षय स्थितिमयी, निकलंक अनंती आथरे     ।।मुनिचंद 5।।

पारिणामिक सत्ता तणो, आविर्भाव विलास निवास रे;
सहज अकृत्रिम अपराश्रयी, निर्विकल्प ने नि:प्रयास रे।।मुनिचंद 6।।

प्रभु प्रभुता संभारतां, गातां करतां गुणग्राम रे;
सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे     ।।मुनिचंद 7।।
 
प्रगट तत्त्वता ध्यावतां, निज तत्त्वनो ध्याता थाय रे,
तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरण तत्त्वे एह समाय रे     ।।मुनिचंद 8।।
 
प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूरणानंद रे,
देवचंद्र जिनराजना, नित्य वंदो पद अरविंद रे     ।।मुनिचंद 9।।



Below explanation is taken from https://swanubhuti.me/
 
Please visit the site for more such stavans 



अर्थ 1 : श्री श्रेयांसनाथ प्रभु का सहजानंद स्वरूप अत्यन्त आश्चर्यजनक है। प्रभु का एक-एक गुण तीन प्रकार से परिणत होता है। प्रभु ऐसे अनन्त गुण के भण्डार है। मुनियों में चन्द्र समान उज्जवल-दैदीप्यमान, सूर्य के समान नित्य दीप्तिमान और सुख के कन्द प्रभु सदा अपने स्व-गुणपर्याय परिणमनरूप कार्य व्यक्तरूप कार्य में-प्रकट रीति से कर रहे हैं।

श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे;
गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज ।
मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे     ।।1।।

अर्थ 2 : परमात्मा अपने केवलज्ञान गुण से सर्वज्ञेय पदार्थो के ज्ञायक हैं। अत एव ज्ञातापद के स्वामी हैं। केवलज्ञान कारण है और सर्व ज्ञेय को जानना कार्य है, केवलज्ञान की प्रवत्ति क्रिया है और उसके कर्त्ता परमात्मा हैं। दर्शन गुण की त्रिविध परिणति भी इसी तरह समझनी चाहिए। निज दर्शन (केवलदर्शन) गुण के द्वारा परमात्मा देखने योग्य स्वयं की सर्व सामान्य सम्पदा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्वादि को देखते हैं। उपलक्षण से सर्व द्रव्यों में रहे हुए सामान्य को भी देखते हैं। आत्मा (कर्त्ता) दर्शनेन (करण) दृश्यभावनां (कार्य-साध्य) दर्शन-करोति (क्रिया)। जीव द्रव्य की गुण परिणति सिद्ध अवस्था में तीन रूप में परिणत होती है अर्थात् करण, कार्य और क्रियारूप में ज्ञानादि गुणों का परिणमन होता है । यहाँ उपादानरूप में प्रकट कारण यह ‘करण’ है। उस करण का साध्य (फल) वह कार्य है तथा करने की प्रवृत्ति यह क्रिया है। जैसे कि, केवलज्ञान गुण यह करण है और उससे सर्व ज्ञेय पदार्थो का बौध होना यह साध्य फलरूप ‘कार्य’ है और जानने के लिए जो वीर्य के सहकार से ज्ञान की स्फुरणा होती है वह प्रवृत्तिरूप ‘क्रिया’ है।

निज ज्ञाने करी ज्ञेयनो, ज्ञायक ज्ञाता पद ईश रे;
देखे निज दर्शन करी, निज दृश्य सामान्य जगीश रे     ।।मुनिचंद 2।।

अर्थ 3 : चारित्र गुण के द्वारा निज (रम्य) शुद्धात्म-परिणति में निरन्तर रमणता करनेवाले होने से परमात्मा रमतेराम हैं। यहां चारित्रगुण ‘करण’ है, स्वात्मा में रमण ‘कार्य’ है। इसी तरह प्रभु भोग गुण के द्वारा भोग्यरूप आत्मस्वरूप-अनन्त ज्ञानादि गुण को भोगते हैं अतःभोक्ता हैं। (भोग्य गुण करण है, भोग्य कार्य है और भोगने की प्रवृत्ति क्रिया है।)

निज रम्ये रमण करो, प्रभु चारित्रे रमताराम रे;
भोग्य अनंतने भोगवो, भोगे तेणे भोक्ता स्वाम रे     ।।मुनिचंद 3।।

अर्थ 4 : दान गुण के द्वारा आप सर्व गुणों का स्व-प्रवृत्ति में वीर्य का सहकाररूप दान सदा देते हैं, अतः हे प्रभो ! आप ही स्वयं देय, दान और दाता है। जिस गुण को सहकार मिला है उसे लाभ की प्राप्ति हुई है। इसी तरह हे देव ! आप निज आत्मशक्ति के पात्र-आधार हैं; उस आत्मशक्ति के ही आप ग्राहक हैं और उसमें व्यापक हैं।

देय दान नित दीजते, अति दाता प्रभु स्वयमेव रे;
पात्र तुमे निज शक्तिना, ग्राहक व्यापकमय देव रे     ।।मुनिचंद 4।।

अर्थ 5 : हे नाथ ! आप अव्याबाध सुखादि गुणों (करण) द्वारा सुखानुभवादि (कार्य) करते हैं। अतः आप ही गुण-करण द्वारा परिणामो कार्य के कर्त्ता हैं, अन्य किसी द्रव्य में कर्तृत्व धर्म नहीं है। इसी तरह आप अक्रिय-गमनक्रियारहित, अक्षय स्थितिवाले, निष्कलंक-सर्व कर्मकलंकरहित और अनन्त ज्ञानादि सम्पत्ति के स्वामी हैं।

परिणामी कारज तणो, कर्ता गुण करणे नाथरे;
अक्रिय अक्षय स्थितिमयी, निकलंक अनंती आथरे     ।।मुनिचंद 5।।

अर्थ 6 : परमात्मा अपनी पूर्णरूप से प्रकटित पारिणामिक सत्ता के अनुभव के भण्डार (घर) हैं। इसी तरह वे अपनी सहज, अकृत्रिम (स्वाभाविक), स्वतन्त्र, निर्विकल्प आत्मसत्ता का बिना किसी प्रयत्न के अनुभव करते हैं।

पारिणामिक सत्ता तणो, आविर्भाव विलास निवास रे;
सहज अकृत्रिम अपराश्रयी, निर्विकल्प ने नि:प्रयास रे।।मुनिचंद 6।।

अर्थ 7 : परमात्मा की अनन्त प्रभुता का स्मरण करने से तथा उच्च स्वर से उनके गुण समूह की स्तुति (गान) करने से भक्तसेवक निज संवर-परिणति स्वभाव रमणतारूप आत्मसाधना को प्राप्त करता है अर्थात् अनादि की विबावन परिणतता छोड़कर स्वभाव में मग्न बनता है।

प्रभु प्रभुता संभारतां, गातां करतां गुणग्राम रे;
सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे     ।।मुनिचंद 7।।

अर्थ 8 : प्रभु की प्रकट प्रभुता का श्रुत उपयोग द्वारा ध्यान करने से आत्मतत्त्व का भी ध्यान हो सकता है और जब ध्याता आत्मतत्त्व के ध्यान में तन्म्य बनता है तब क्रमशः निर्विकल्प-समाधि को पाकर पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है।

प्रगट तत्त्वता ध्यावतां, निज तत्त्वनो ध्याता थाय रे,
तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरण तत्त्वे एह समाय रे     ।।मुनिचंद 8।।

अर्थ 9 : परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन से उनमें रही हुई पूर्णानन्दमयी प्रभुता का ध्यान आता है अर्थात् चेतन परमगुणी का अनुयायी बनता है। यही आत्म-साधना का प्रधान अंग है। अतः है भव्यजनों ! तुम देवों में चन्द्र समान दैदीप्यमान जिनेश्वर भगवन्त के चरणकमलों में सदा नमस्कार करो और उन्हें ही त्राण, शरण, आधार एवं सर्वस्व मानकर उनकी सेवा में ही तन्मय-तल्लीन रहो। अरिहन्त की सेवा से अवश्य परम सुख की प्राप्ति होती है।

प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूरणानंद रे,
देवचंद्र जिनराजना, नित्य वंदो पद अरविंद रे     ।।मुनिचंद 9।।

If you are interested in knowing the meanings of the 24 stavans

then below pdfs have more insights and page number of all the 

stavans are as per below

You can download below pdf  with stavan from 1st to 12th Tirthankar from here.


Below with Stavan from 13st to 24th Tirthankar from here.

This Blog is sponsored by :
मातुश्री पवनिदेवी अमीचंदजी खाटेड़ संघवी || राजस्थान : करडा 
MATUSHREE PAVANIDEVI AMICHANDJI KHATED SANGHVI 

 

JAINAM JAYATI SHASHNAM

IF YOU ARE INTERESTED IN LIST OF ALL THE SONGS TO DOWNLOAD  JUST CLICK THE BELOW 
HIGHLIGHTED BUTTON TO DOWNLOAD FROM GOOGLE DRIVE
Note : Click HERE to download from google drive and click on the song or down arrow 
to download it

Tuesday, August 22, 2023

Sri ChandraPrabha Jin pad seva श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा Devchandraji chovisi

|| Sri ChandraPrabha Jin pad seva Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
To download this song click HERE.


श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा स्तवन सांग

जैन स्तवन


Sri ChandraPrabha Jin pad seva,श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा Devchandraji chovisi,Devchandraji Stavan,Devchandraji chouvisi,JAIN STAVAN,द्रव्य सेव वंदन, श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा, हेवायें जे हलियाजी; आतम गुण अनुभवथी मलिया, ते भवभयथी टलियाजी







Please visit this channel for more stavans like this.





|| श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा ||  


श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा, हेवायें जे हलियाजी;

आतम गुण अनुभवथी मलिया, ते भवभयथी टलियाजी    ।।1।।

द्रव्य सेव वंदन नमनादिक, अर्चन वली गुणग्रामोजी;

भाव अभेद थवानी ईहा, परभावे नि:कामोजी     ।।2।।

भावसेव अपवादे नैगम, प्रभु गुणने संकल्पेजी;

संग्रह सत्ता तुल्यारोपे, भेदाभेद विकल्पेजी     ।।3।।

व्यवहारे बहुमान ज्ञान निज, चरणे जिन गुण रमणाजी;

प्रभु गुण आलंबी परिणामे, ऋजुपद ध्यान स्मरणाजी     ।।4।।

शब्दे शुक्ल ध्यानारोहण, समभिरुढ गुण दशमेंजी;

बीय शुक्ल अविक्ल्प एकत्वे, एवंभूत ते अममेंजी     ।।5।।

उत्सर्गें समकित गुण प्रकट्ये, नैगम प्रभुता अंशेजी;

 संग्रह आतम सत्तालंबी, मुनि पद भाव प्रशंसेजी     ।।6।।

ऋजुसूत्रे जे श्रेणि पदस्थे, आत्मशक्ति प्रकाशेजी;

 यथाख्यात पद शब्द स्वरूपे शुद्ध धर्म उल्लासेजी     ।।7।।

भाव सयोगी अयोगी शैलेशे अंतिम दुग नय जाणोजी;

साधनता ए निज गुण व्यक्ति, तेह सेवना वखाणोजी     ।।8।।

कारण भाव तेह अपवादे, कार्यरूप उत्सर्गेजी;

आत्मभाव ते भाव द्रव्यपद, बाह्य प्रवृत्ति नि:सर्गेंजी     ।।9।।

कारण भाव परंपर सेवन, प्रगटे कारज भावोजी;

कारज सिद्धे कारणता व्यय, शुचि पारिणामिक भावोजी    ।।10।।

परम गुणी सेवन तन्मयता, निश्चय ध्याने ध्यावेजी;

शुद्धातम अनुभव आस्वादी, देवचंद्र पद पावेजी    ।।11।।




Below explanation is taken from https://swanubhuti.me/
 
Please visit the site for more such stavans 


अर्थ 1 : जिन भाग्यवान साधकों को ची चन्द्रप्रभस्वामी भगवान् के चरणों की विधिपूर्वक सेवा करने की आदत पड़ गई है अर्थात् प्रभुसेवा ही जिनका जीवन है, उनको आत्मा के ज्ञानादि गुणों का अवश्य अनुभव होता है और उनके भवभ्रमण का भय दूर हो जाता है।

श्री चंद्रप्रभ जिन पद सेवा, हेवायें जे हलियाजी;
आतम गुण अनुभवथी मलिया, ते भवभयथी टलियाजी    ।।1।।

अर्थ 2 : प्रभु को वन्दन करना, नमन करना, उनेकगुणों का कीर्तिन करना-यह द्रव्यसेवा-पूजा है और बाह्य सुख की आशंसा किये बिना श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ अभेदभाव-एकत्वरूप से तन्मय होने की इच्छापूर्वक की जाती हुई द्रव्यसेवा, यह भाव सेवा है। द्रव्यसेवा भावसेवा का कारण होने से आदरणीय है। साध्यरूचि बिना द्रव्यपूजा आत्महित साधक न होने से निष्फल है। सेवा के चार प्रकार हैं ः नाम सेवा, स्थापना सेवा, द्रव्य सेवा और भावसेवा। इनमें से प्रथम की दो सेवाओं का अर्थ सुगम होने से यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया है। द्रव्य सेवा की व्याख्या दूसरी गाथा में बताई है। अब भावसेवा के दो मुख्य प्रकार और उसके अवान्तर भेदों का वर्णन करते है।

द्रव्य सेव वंदन नमनादिक, अर्चन वली गुणग्रामोजी;
भाव अभेद थवानी ईहा, परभावे नि:कामोजी     ।।2।।

अर्थ 3 : भावसेवा के दो प्रकार है ः (1) अपवाद भावसेवा और (2) उत्सर्ग भावसेवा। इनमें से प्रथम अपवाद भावसेवा सात नय की अपेक्षा से सात प्रकार की है। वह यहाँ बताते है – (1) श्री अरिहन्त परमात्मा के गुणों का चिन्तनात्मक संकल्प करना, नैगमनय की अपेक्षा से भावसेवा है। संसाररसिक जीव का परिणाम अनादिकाल से बाह्य विषयादि में ही होता है। जब तक प्रभु के अपूर्व गुणों का स्वरूप उसकी समझ में नहीं आता तब तक अशुभ संकल्पों का निवारण नहीं होता। परन्तु पुण्योदय जागृत होने से जब जीव को प्रभु के गुणों का स्वरूप जानने-समझने को मिलता है तब वह विषयादिक के संकल्प-विकल्प को हटाकर प्रभु के गुणों का चिन्तन करता है। प्रभुगुण का संकल्प, साधक का अन्तरंग आत्म-परिणाम होने से वह भावसेवा है। (2) श्री अरिहंत परमात्मा की पूर्णरूप से प्रकट हुई आत्मसम्पति का चिन्तन कर, अपनी आत्मसत्ता भी शुद्ध संग्रहनय की दृष्टि से वैसी ही है, ऐसा विचार कर, दोनों की समानता की बारंबार भावना करना। तथा, अपनी शुद्ध सत्ता जो अब तक अप्रकट है, उसके लिए खेद-पश्चात्ताप करने के साथ प्रभु की प्रकट शुद्ध सत्ता के प्रति अपार बहुमान भाव विकसित करना। साथ ही द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से भी परमात्मा और स्व-आत्मा का भेद और सत्ता के साधर्म्य से अभेद का चिन्तन कर अपनी अप्रकट सत्ता को प्रकट करने की रुचि के साथ एकाग्र बनकर चिन्तन करना-यह संग्रहनय की अपेक्षा से भावसेवा है।

भावसेव अपवादे नैगम, प्रभु गुणने संकल्पेजी;
संग्रह सत्ता तुल्यारोपे, भेदाभेद विकल्पेजी     ।।3।।

अर्थ 4 : (3) साधक जब भी अरिहन्त परमात्मा की केवलज्ञानादि गुण सम्पत्ति का और आठ प्रातिहार्य, चौंतीस अतिशय तथा पैंतीस गुणयुक्त वाणी आदि उपकार-सम्पदा का सतत स्मरण करने के साथ प्रभु की प्रभुता, सर्वोत्तमता आदि का विचार करके प्रभुभक्ति में अपना भावोल्लास बढ़ाता है और उसके द्वारा प्रभु के गुणों में रमणता-तन्मयता प्राप्त करता है तब उसके क्षायोपशमिक ज्ञानादि गुणों की प्रवृत्ति प्रभु के गुणों का अनुसरण करनेवाली बनती है, यह व्यवहारनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है। (4) श्री अरिहन्त परमात्मा के गुणों का आलंबन लेकर स्व-आत्मा के अन्तरंग परिणामरूप क्षायोपशमिक रत्नत्रयी में तन्मय होना, अर्थात् आत्मस्वरूप के ध्यान में तन्मय बनना, यह ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है।

व्यवहारे बहुमान ज्ञान निज, चरणे जिन गुण रमणाजी;
प्रभु गुण आलंबी परिणामे, ऋजुपद ध्यान स्मरणाजी     ।।4।।

अर्थ 5 : (5) श्री अरिहन्त परमात्मा के शुद्ध द्रव्य के आलम्बन द्वारा पृथक्त्व-वितर्क- सप्रविचाररूप शुक्लध्यान (प्रथम प्रकार) को ध्याना, शब्दनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है। (6) दसवें सूक्ष्मसम्पराय-गुणस्थानक को प्राप्त करना, समभिरुढनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है। (7) बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानक को (शुक्लध्यान के दूसरे प्रकार) अर्थात् निर्विकल्प- समाधि को प्राप्त करना, यह एवंभूतनय की अपेक्षा से अपवाद भावसेवा है।

शब्दे शुक्ल ध्यानारोहण, समभिरुढ गुण दशमेंजी;
बीय शुक्ल अविक्ल्प एकत्वे, एवंभूत ते अममेंजी     ।।5।।

अर्थ 6 : अब उत्सर्ग भावसेवा के सात प्रकार बताते हैं – (1) जब तत्त्वनिर्धारणरूप क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तव पूर्ण प्रभुता का एक अंश प्रकट होता है। इससे आत्मा का कार्य एक अंश में सफल हुआ, ऐसा माना जा सकता है। यह नैगमनय से उत्सर्ग भावसेवा है। (3) सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् जब भाव-मुनिपद को प्राप्त कर आत्मसत्ता का भासन, रमण और उनमें तन्मयता होती है तब उपादान का स्मरण जागृत होने से आत्मा स्वसत्तावलंबी बनता है, यह संग्रहनय से उत्सर्ग भावसेवा है। (3) अप्रमत्त दशा प्राप्त होने पर जब आत्मा की ग्राहकता, व्यापकता, भोक्तृता, कर्तृता आदि सर्व शक्तियाँ आत्मस्वरूप में प्रवृत्त होती हैं जब अन्तरंग व्यवहार वस्तुस्वरूप की अपेक्षा से होता है। यह अवस्था व्यवहारनय से उत्सर्ग भाव सेवा है। इस मुनिपद का भाव अतिशय प्रशंसनीय है।

उत्सर्गें समकित गुण प्रकट्ये, नैगम प्रभुता अंशेजी;
 संग्रह आतम सत्तालंबी, मुनि पद भाव प्रशंसेजी     ।।6।।

अर्थ 7 : (4) क्षपकश्रेणी में जो आत्मशक्तियाँ प्रकट होती हैं, वे ऋजुसूत्रनय से उत्सर्ग भावसेवा है। (5) यथाख्यात क्षायिक चारित्र का प्रकटीकरण होने पर जो शुद्ध, अकषायी आत्मधर्म उल्लसित होता है, वह शब्द नय से उत्सर्ग भावसेवा है।

ऋजुसूत्रे जे श्रेणि पदस्थे, आत्मशक्ति प्रकाशेजी;
 यथाख्यात पद शब्द स्वरूपे शुद्ध धर्म उल्लासेजी     ।।7।।

अर्थ 8 : (6) सर्व घाति कर्मों का क्षय करके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्त वीर्य को प्रकट करना अर्थात् तेरहवाँ सयोगी गुणस्थानक प्राप्त होना, यह समभिरुढनय की अपेक्षा से भावसेवा है। (7) शैलेशीकरण करके आत्मा अयोगी गुणस्थानक प्राप्त करता हैं, यह एवंभूतनय से उत्सर्ग भावसेवा है। इस प्रकार श्री अरिहन्त परमात्मा की सेवारूप साधना यह उपवाद भावसेवा है और उस साधना के द्वारा जो आत्मगुणों का प्रकटीकरण होता है वह उत्सर्ग भावसेवा है, क्योंकि अप्रकट आत्मगुणों को प्रकट करने में वह कारण भूत है।

भाव सयोगी अयोगी शैलेशे अंतिम दुग नय जाणोजी;
साधनता ए निज गुण व्यक्ति, तेह सेवना वखाणोजी     ।।8।।

अर्थ 9 : प्रस्तुत विषय में कारणभाव अर्थात् अरिहन्त-सेवा आत्मसाधना का मुख्य कारण होने से उसे अपवाद भावसेवा कहा जाता है और श्री अरिहन्त की सेवा से जो स्वगुण निष्पति-उत्पत्तिरूप कार्य होता है वह उत्सर्ग भावसेवा है। इस प्रकार कारण-कार्यभाव का सम्बन्ध जानना चाहिए। उत्सर्ग अर्थात् पूर्ण निर्मल-निर्दोषभाव। उसका अर्थ यहाँ आत्मभाव लेन चाहिए। वन्दन-पूजनादि की बाह्य प्रवृत्ति, यह द्रव्यसेवा है।

कारण भाव तेह अपवादे, कार्यरूप उत्सर्गेजी;
आत्मभाव ते भाव द्रव्यपद, बाह्य प्रवृत्ति नि:सर्गेंजी     ।।9।।

अर्थ 10 : श्री अरिहन्त परमात्मा की भावसेवारूप जो कारणभाव है उसकी सेवा करने से उत्सर्ग-आत्मस्वभावरूप कार्य प्रकट होता है। जब शुद्ध सिद्धतारूप कार्य पूर्ण सिद्ध होता है तब कारणता का व्यय (नाश) हो जाता है। उस समय केवल शुद्ध पारिणामिक भाव ही शेष रह जाता है जो आत्मा का मूलभूत स्वभाव है।

कारण भाव परंपर सेवन, प्रगटे कारज भावोजी;
कारज सिद्धे कारणता व्यय, शुचि पारिणामिक भावोजी    ।।10।।

अर्थ 11 : परम गुणी श्री अरिहन्त परमात्मा की सेवामें तन्मय बनकर जो साधक आत्मा आत्म-स्वरूप का स्थिरतापूर्वक ध्यान करता है वह पूर्ण शुद्ध आत्मा के अनुभव का आस्वादन करके चंद्र समान निर्मल ऐसे अरिहन्त पद को प्राप्त करता है।

परम गुणी सेवन तन्मयता, निश्चय ध्याने ध्यावेजी;
शुद्धातम अनुभव आस्वादी, देवचंद्र पद पावेजी    ।।11।।

If you are interested in knowing the meanings of the 24 stavans

then below pdfs have more insights and page number of all the 

stavans are as per below

You can download below pdf  with stavan from 1st to 12th Tirthankar from here.


Below with Stavan from 13st to 24th Tirthankar from here.

This Blog is sponsored by :
मातुश्री पवनिदेवी अमीचंदजी खाटेड़ संघवी || राजस्थान : करडा 
MATUSHREE PAVANIDEVI AMICHANDJI KHATED SANGHVI 

 

JAINAM JAYATI SHASHNAM

IF YOU ARE INTERESTED IN LIST OF ALL THE SONGS TO DOWNLOAD  JUST CLICK THE BELOW 
HIGHLIGHTED BUTTON TO DOWNLOAD FROM GOOGLE DRIVE
Note : Click HERE to download from google drive and click on the song or down arrow 
to download it