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Saturday, August 26, 2023

Vasupujya Pujana toh kije re Vasupujya Jintani lyrics -Devchandraji stavan

|| Vasupujya Pujana toh kiye barma jintani Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे स्तवन सांग

जैन स्तवन


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Suvidhinath devchandra stavan Ditho suvidhijinand दीठो सुविधि जिणंद ho lal 





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||  Vasupujya Pujana toh kije re ||  


पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव,
पर कृत पूजा रे जे ईच्छे नहि रे, साधक कारज दाव     ।।पूजना 1।।
 
द्रव्यथी पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध;
परम ईष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयंबुद्ध     ।।पूजना 2।।
 
अतिशय महिमा रे अति उपगारता रे, निरमल प्रभु गुणराग;
सुरमणि सुरघट सुरतरुतुच्छ ते रे, जिनरागी महाभाग     ।।पूजना 3।।
 
दर्शन ज्ञानादिक गुण आत्मना रे, प्रभु प्रभुता लयलीन;
शुद्ध स्वरूपी रूपे तन्मयी रे, तसु आस्वादनपीन     ।।पूजना 4।। 

शुद्ध तत्त्वरंगी चेतना रे, पामे आत्म स्वभाव;
आत्मालंबी निज गुण साधतो रे, प्रगटयो पूज्य स्वभाव     ।।पूजना 5।।
 
आप अकर्त्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि;
निज धन न दीये पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि     ।।पूजना 6।।
 
जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति;
परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति     ।।पूजना 7।।



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अर्थ 1 : जिनका पूज्य पूर्ण शुद्ध स्वभाव प्रकट हो चूका है और जो परकृत-अन्य से पूजा करवाने के अभिलाषी नहीं हैं तथापि साधक की सिद्धता में परम साधन हैं, ऐसे श्री वासुपूज्य स्वामी भगवान् की पूजा मुमुक्षु आत्माओं को अवश्य करनी चाहिए।

पूजना तो कीजे रे बारमा जिनतणी रे, जसु प्रगट्यो पूज्य स्वभाव,
पर कृत पूजा रे जे ईच्छे नहि रे, साधक कारज दाव     ।।पूजना 1।।

अर्थ 2 : प्रभु पूजा के मुख्य दो प्रकार है : (1) द्रव्यपूजा और (2) भावपूजा। द्रव्यपूजा यानी जल, स्नान, विलेपन आदि द्वारा होने वाली पूजा। वह भावपूजा का कारण है और मन-वचन-काया को स्थिर बनाती है। भावपूजा भी दो प्रकार की है ः (1) प्रशस्त भावपूजा और (2) शुद्धभाव पूजा। गुणी पर के राग को प्रशस्त भावपूजा कहतें हैं। तीन भुवन के स्वामी भगवान ही मुझे परम इष्ट हैं, वल्लभ हैं, वी ही प्रिय लगते हैं। यह प्रशस्त रागरूप भावपूजा है।

द्रव्यथी पूजा रे कारण भावनुं रे, भाव प्रशस्त ने शुद्ध;
परम ईष्ट वल्लभ त्रिभुवन धणी रे, वासुपूज्य स्वयंबुद्ध     ।।पूजना 2।।

अर्थ 3 : प्रभु के अष्ट प्रातिहार्य और चौतीस अतिशयों की महिमा सुनकर अति आश्चर्य पैदा होता है। शुद्ध-धर्म की देशना द्वारा सब जीवों के मोहान्धकार को दूर कर, सर्व सन्देहों को टालकर आत्मधर्म की पहचान करानेवाले अरिहन्त प्रभु की अनन्त उपकारिता और निर्मल केवलज्ञानादि गुणों घर जो अनुराग-अहोभाव उत्पन्न होता है वह भी प्रशस्त भावपूजा है। महापुण्यशाली जिनेश्वर के भक्तों (रागियों) को प्रभुभक्ति के सामने सुरमणि (चिंतामणि), सुरघट (कामकुम्भ) सुरतरु (कल्पवृक्ष) भी तुच्छ (निस्सार) लगते हैं। आगे की दो गाथाओं में शुद्ध भावपूजा का स्वरूप बताते हैं।

अतिशय महिमा रे अति उपगारता रे, निरमल प्रभु गुणराग;
सुरमणि सुरघट सुरतरुतुच्छ ते रे, जिनरागी महाभाग     ।।पूजना 3।।

अर्थ 4 : अपने क्षयोपशमभाव से प्रकटित सम्यग्दर्शन और ज्ञानादि गुणों को परमात्मा-प्रभु की परम प्रभुता में लयलीन बनाने के लिए शुद्ध स्वरूपी परमात्मा के स्वरूप में तन्मय होकर अनुभव-अमृत के आस्वाद से आत्मा को पुष्ट बनाना शुद्ध भावपूजा है।

दर्शन ज्ञानादिक गुण आत्मना रे, प्रभु प्रभुता लयलीन;
शुद्ध स्वरूपी रूपे तन्मयी रे, तसु आस्वादनपीन     ।।पूजना 4।।

अर्थ 5 : शुद्धतत्त्वी श्री अरिहन्त परमात्मा और सिद्ध भगवन्त के ध्यान-सुधारस के रंग से जब चेतना रँगती है तब वह आत्म-स्वभाव को पाती है। इस प्रकार प्रभु के आलम्बन से स्वरूपालम्बी बना हुआ आत्मा आत्मगुणों को साधता हुआ क्रमशः अपने पूज्य-स्वभाव को प्रकट करता है।

शुद्ध तत्त्वरंगी चेतना रे, पामे आत्म स्वभाव;
आत्मालंबी निज गुण साधतो रे, प्रगटयो पूज्य स्वभाव     ।।पूजना 5।।

अर्थ 6 : हे परमात्मन् ! आप अन्य जीवों के मोक्ष के कर्त्ता नहीं है। फिर भी आपकी सेवा से सेवक पूर्ण सिद्धता प्राप्त करता है। आप अपना ज्ञानादि धन किसी को नहीं देते हैं तो भी आपका आश्रित भक्त कभी नष्ट न होनेवाली अक्षय अक्षर आत्म-समृद्धि को प्राप्त करता है।

आप अकर्त्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि;
निज धन न दीये पण आश्रित लहे रे, अक्षय अक्षर रिद्धि     ।।पूजना 6।।

अर्थ 7 : सचमुच ! परमार्थ दृष्टि से विचार करने पर जिनेश्वर परमात्मा की पूजा स्व-आत्मा की ही पूजा है। क्योंकि जैसे जैसे साधक प्रभुपूजा में तन्मय बनता है वैसे उसकी अन्वय शक्ति-सहज (स्वाभाविक) अनन्त आत्मशक्ति प्रकट होती है। आत्मा परमान्द का विलासी बनकर देवों में चन्द्र समान निर्मल सिद्ध-पद को प्रकट करके उसका साक्षात् अनुभव करता है।

जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, प्रगटे अन्वय शक्ति;
परमानंद विलासी अनुभवे रे, देवचंद्र पद व्यक्ति     ।।पूजना 7।।

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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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Munichand jinand Sri Shreyansh prabhu tano Devchandraji श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन

|| Shital jinpati Devchandraji Stavan LYRICS - JAIN STAVAN SONG ||
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श्री शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी जणायजी स्तवन सांग

जैन स्तवन


Munichand jinand, Sri Shreyansh prabhu tano ,Devchandraji ,श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन,Devchandraji Stavan,24 tirthankar,jain chovishi श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे; गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज । मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे
Munichand jinand Sri Shreyansh prabhu tano Devchandraji
श्री श्रेयांसनाथ जिन स्तवन



Shreyanshnath bhagwan






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||  श्री श्रेयांस प्रभु तणो मुनिचंद जिणंद अमंद ||  


श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे;
गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज ।
मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे     ।।1।।
 
निज ज्ञाने करी ज्ञेयनो, ज्ञायक ज्ञाता पद ईश रे;
देखे निज दर्शन करी, निज दृश्य सामान्य जगीश रे     ।।मुनिचंद 2।।
 
निज रम्ये रमण करो, प्रभु चारित्रे रमताराम रे;
भोग्य अनंतने भोगवो, भोगे तेणे भोक्ता स्वाम रे     ।।मुनिचंद 3।।
 
देय दान नित दीजते, अति दाता प्रभु स्वयमेव रे;
पात्र तुमे निज शक्तिना, ग्राहक व्यापकमय देव रे     ।।मुनिचंद 4।।
 
परिणामी कारज तणो, कर्ता गुण करणे नाथरे;
अक्रिय अक्षय स्थितिमयी, निकलंक अनंती आथरे     ।।मुनिचंद 5।।

पारिणामिक सत्ता तणो, आविर्भाव विलास निवास रे;
सहज अकृत्रिम अपराश्रयी, निर्विकल्प ने नि:प्रयास रे।।मुनिचंद 6।।

प्रभु प्रभुता संभारतां, गातां करतां गुणग्राम रे;
सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे     ।।मुनिचंद 7।।
 
प्रगट तत्त्वता ध्यावतां, निज तत्त्वनो ध्याता थाय रे,
तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरण तत्त्वे एह समाय रे     ।।मुनिचंद 8।।
 
प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूरणानंद रे,
देवचंद्र जिनराजना, नित्य वंदो पद अरविंद रे     ।।मुनिचंद 9।।



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अर्थ 1 : श्री श्रेयांसनाथ प्रभु का सहजानंद स्वरूप अत्यन्त आश्चर्यजनक है। प्रभु का एक-एक गुण तीन प्रकार से परिणत होता है। प्रभु ऐसे अनन्त गुण के भण्डार है। मुनियों में चन्द्र समान उज्जवल-दैदीप्यमान, सूर्य के समान नित्य दीप्तिमान और सुख के कन्द प्रभु सदा अपने स्व-गुणपर्याय परिणमनरूप कार्य व्यक्तरूप कार्य में-प्रकट रीति से कर रहे हैं।

श्री श्रेयांस प्रभु तणो, अति अद्भुत सहजानंद रे;
गुण एकविध त्रिक परिणम्यो, एम अनंत गुणनो वृंद रे ज ।
मुनिचंद जिणंद अमंद दिणंद परे नित्य दीपतो सुखकंद रे     ।।1।।

अर्थ 2 : परमात्मा अपने केवलज्ञान गुण से सर्वज्ञेय पदार्थो के ज्ञायक हैं। अत एव ज्ञातापद के स्वामी हैं। केवलज्ञान कारण है और सर्व ज्ञेय को जानना कार्य है, केवलज्ञान की प्रवत्ति क्रिया है और उसके कर्त्ता परमात्मा हैं। दर्शन गुण की त्रिविध परिणति भी इसी तरह समझनी चाहिए। निज दर्शन (केवलदर्शन) गुण के द्वारा परमात्मा देखने योग्य स्वयं की सर्व सामान्य सम्पदा अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्वादि को देखते हैं। उपलक्षण से सर्व द्रव्यों में रहे हुए सामान्य को भी देखते हैं। आत्मा (कर्त्ता) दर्शनेन (करण) दृश्यभावनां (कार्य-साध्य) दर्शन-करोति (क्रिया)। जीव द्रव्य की गुण परिणति सिद्ध अवस्था में तीन रूप में परिणत होती है अर्थात् करण, कार्य और क्रियारूप में ज्ञानादि गुणों का परिणमन होता है । यहाँ उपादानरूप में प्रकट कारण यह ‘करण’ है। उस करण का साध्य (फल) वह कार्य है तथा करने की प्रवृत्ति यह क्रिया है। जैसे कि, केवलज्ञान गुण यह करण है और उससे सर्व ज्ञेय पदार्थो का बौध होना यह साध्य फलरूप ‘कार्य’ है और जानने के लिए जो वीर्य के सहकार से ज्ञान की स्फुरणा होती है वह प्रवृत्तिरूप ‘क्रिया’ है।

निज ज्ञाने करी ज्ञेयनो, ज्ञायक ज्ञाता पद ईश रे;
देखे निज दर्शन करी, निज दृश्य सामान्य जगीश रे     ।।मुनिचंद 2।।

अर्थ 3 : चारित्र गुण के द्वारा निज (रम्य) शुद्धात्म-परिणति में निरन्तर रमणता करनेवाले होने से परमात्मा रमतेराम हैं। यहां चारित्रगुण ‘करण’ है, स्वात्मा में रमण ‘कार्य’ है। इसी तरह प्रभु भोग गुण के द्वारा भोग्यरूप आत्मस्वरूप-अनन्त ज्ञानादि गुण को भोगते हैं अतःभोक्ता हैं। (भोग्य गुण करण है, भोग्य कार्य है और भोगने की प्रवृत्ति क्रिया है।)

निज रम्ये रमण करो, प्रभु चारित्रे रमताराम रे;
भोग्य अनंतने भोगवो, भोगे तेणे भोक्ता स्वाम रे     ।।मुनिचंद 3।।

अर्थ 4 : दान गुण के द्वारा आप सर्व गुणों का स्व-प्रवृत्ति में वीर्य का सहकाररूप दान सदा देते हैं, अतः हे प्रभो ! आप ही स्वयं देय, दान और दाता है। जिस गुण को सहकार मिला है उसे लाभ की प्राप्ति हुई है। इसी तरह हे देव ! आप निज आत्मशक्ति के पात्र-आधार हैं; उस आत्मशक्ति के ही आप ग्राहक हैं और उसमें व्यापक हैं।

देय दान नित दीजते, अति दाता प्रभु स्वयमेव रे;
पात्र तुमे निज शक्तिना, ग्राहक व्यापकमय देव रे     ।।मुनिचंद 4।।

अर्थ 5 : हे नाथ ! आप अव्याबाध सुखादि गुणों (करण) द्वारा सुखानुभवादि (कार्य) करते हैं। अतः आप ही गुण-करण द्वारा परिणामो कार्य के कर्त्ता हैं, अन्य किसी द्रव्य में कर्तृत्व धर्म नहीं है। इसी तरह आप अक्रिय-गमनक्रियारहित, अक्षय स्थितिवाले, निष्कलंक-सर्व कर्मकलंकरहित और अनन्त ज्ञानादि सम्पत्ति के स्वामी हैं।

परिणामी कारज तणो, कर्ता गुण करणे नाथरे;
अक्रिय अक्षय स्थितिमयी, निकलंक अनंती आथरे     ।।मुनिचंद 5।।

अर्थ 6 : परमात्मा अपनी पूर्णरूप से प्रकटित पारिणामिक सत्ता के अनुभव के भण्डार (घर) हैं। इसी तरह वे अपनी सहज, अकृत्रिम (स्वाभाविक), स्वतन्त्र, निर्विकल्प आत्मसत्ता का बिना किसी प्रयत्न के अनुभव करते हैं।

पारिणामिक सत्ता तणो, आविर्भाव विलास निवास रे;
सहज अकृत्रिम अपराश्रयी, निर्विकल्प ने नि:प्रयास रे।।मुनिचंद 6।।

अर्थ 7 : परमात्मा की अनन्त प्रभुता का स्मरण करने से तथा उच्च स्वर से उनके गुण समूह की स्तुति (गान) करने से भक्तसेवक निज संवर-परिणति स्वभाव रमणतारूप आत्मसाधना को प्राप्त करता है अर्थात् अनादि की विबावन परिणतता छोड़कर स्वभाव में मग्न बनता है।

प्रभु प्रभुता संभारतां, गातां करतां गुणग्राम रे;
सेवक साधनता वरे, निज संवर परिणति पाम रे     ।।मुनिचंद 7।।

अर्थ 8 : प्रभु की प्रकट प्रभुता का श्रुत उपयोग द्वारा ध्यान करने से आत्मतत्त्व का भी ध्यान हो सकता है और जब ध्याता आत्मतत्त्व के ध्यान में तन्म्य बनता है तब क्रमशः निर्विकल्प-समाधि को पाकर पूर्ण शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है।

प्रगट तत्त्वता ध्यावतां, निज तत्त्वनो ध्याता थाय रे,
तत्त्वरमण एकाग्रता, पूरण तत्त्वे एह समाय रे     ।।मुनिचंद 8।।

अर्थ 9 : परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन से उनमें रही हुई पूर्णानन्दमयी प्रभुता का ध्यान आता है अर्थात् चेतन परमगुणी का अनुयायी बनता है। यही आत्म-साधना का प्रधान अंग है। अतः है भव्यजनों ! तुम देवों में चन्द्र समान दैदीप्यमान जिनेश्वर भगवन्त के चरणकमलों में सदा नमस्कार करो और उन्हें ही त्राण, शरण, आधार एवं सर्वस्व मानकर उनकी सेवा में ही तन्मय-तल्लीन रहो। अरिहन्त की सेवा से अवश्य परम सुख की प्राप्ति होती है।

प्रभु दीठे मुज सांभरे, परमातम पूरणानंद रे,
देवचंद्र जिनराजना, नित्य वंदो पद अरविंद रे     ।।मुनिचंद 9।।

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