|| SANSAR BHAVNA : संसार भावना ||
जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति
SANSAR BHAVANA JAIN DHARM RELIGION
|| संसार भावना -Cycle of Birth n Death||
No permanent relationship in universe
Explanation of SANSAR BHAVANA in English and Hindi
संसार दु:ख का सागर है| यहाँ रहकर कोई भी संसारी मनुष्य जो संसार की मृग तृष्णा के वशीभूत है, मोह से संतृप्त है, सुख प्राप्त नहीं कर सकता| संसार तो सुख – दुख, हर्ष – विषाद तथा द्वेष व द्वन्द्व का स्थल है, ऐसा चिंतन संसार भावन है| उदाहरण – भगवती मल्ली|
संसार भावना SANSAR BHAVNA |
चहुँगति दुःख जीव भरै है, परिवर्तन पंच करै है ।
सबविधि संसार असारा, यामें सुख नाहीं लगारा ।।५।।
अर्थ - संसार में प्रत्येक प्राणी चारों गतियों के दु:खों को सहता है और पाँचों (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-भव) परिवर्तन करता रहता है, किन्तु कभी शांति नहीं पाता। वास्तव में यह संसार असार है, उसमें लेशमात्र भी सुख नहीं है। सांसारिक सुख तो सुखाभास, नश्वर, भ्रमरूप और परिणाम में कटु हैं, ऐसा विचार करना ‘संसार भावना’ है।
अन्वयार्थ : – (जीव) जीव (चहुँगति) चार गतिमें(दुःख) दुःख (भरै है) भोगता है और (परिवर्तन पंच) पाँच
परावर्तन पाँच प्रकारसे परिभ्रमण (करै है) करता है । (संसार)
परावर्तन पाँच प्रकारसे परिभ्रमण (करै है) करता है । (संसार)
विशेषार्थ - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावरूप यह संसार अनन्त दु:खों एवं कष्टों से भरा हुआ है, सारहीन है तथा कहीं भी चैन और सुख नहीं है, ऐसा विचार करना संसार भावना है।
संसार एक प्रकार की नाट्यशाला है।इसके रंगमंच पर प्राणी विभिन्न पात्रों के साथ पिता-पुत्र,पति-पत्नी,भाई-भाई आदि के सम्बन्ध बनाता है,किसी से मेत्री करता है,किसी से दुश्मनी करता है।इस प्रकार तरह-तरह के सम्बन्ध जोड़ता है और
कुछ समय बाद सब अलग-अलग बिछुड़ जाते हैं।
दोहा:--- दाम बिना निर्धन दुखी,तृष्णावश धनवान ।
कहुँ न सुख संसार में,सब जग देख्यो छान ।।
कुछ समय बाद सब अलग-अलग बिछुड़ जाते हैं।
दोहा:--- दाम बिना निर्धन दुखी,तृष्णावश धनवान ।
कहुँ न सुख संसार में,सब जग देख्यो छान ।।
यह जीव चारो गतियों में चाहे स्वर्ग हो,नरक हो,मनुष्य पर्याय हो,या तिर्यंच पर्याय हो…सब में दुःख ही दुःख भोगता है,कहीं भी इस संसार में सुख नहीं नहीं है..हर तरफ से हर दृष्टी से यह जीव चारो गतियों में दुःख भोगता है..और द्रव्य,क्षेत्र,भाव,भव और काल के परिवर्तन सहता है यानि की हर विधि से हर तरीके से संसार असार है,बिना किसी सार का है,हर जगह दुःख है..और इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है…ऐसा चिंतन करना संसार भावना का लक्षण है.
इस भावना को भाने वाला जीव कभी भी दुखी नहीं होता है..लेकिन संसार से उदासीन रहता है…वैरागी रहता है.
इस भावना को भाने वाला जीव कभी भी दुखी नहीं होता है..लेकिन संसार से उदासीन रहता है…वैरागी रहता है.
Pravachan on SANSAR Bhavna
संसार भावना SANSAR BHAVNA
जनम-मरण अरु जरा- रोग से,सदा दु:खी रहता।
द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव-परिवर्तन सहता॥
छेदन भेदन नरकपशुगति, वध बंधन सहना।
राग-उदय से दु:ख सुर गति में, कहाँ सुखी रहना||(8)
भोगिपुण्य फल हो इक इंद्री, क्या इसमें लाली।
कुतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरुजाली॥
मानुष-जन्म अनेक विपत्तिमय, कहीं न सुख देखा।
पंचम गति सुख मिले शुभाशुभ को मेटो लेखा||(9)
दुखमय निरर्थक मलिन जो सम्पूर्णतः निस्सार है ।
जगजालमय गति चार में संसरण ही संसार है ॥
भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण संसार का आधार है।
संयोगजा चिवृत्तियाँ ही वस्तुतः संसार है ॥ १॥
जगजालमय गति चार में संसरण ही संसार है ॥
भ्रमरोगवश भव-भव भ्रमण संसार का आधार है।
संयोगजा चिवृत्तियाँ ही वस्तुतः संसार है ॥ १॥
संयोगों के लक्ष्य से आत्मा में उत्पन्न होनेवाली दु:खमय, निरर्थक, मलिन और सम्पूर्णत: निस्सार चिद्वृत्तियाँ (विकारी भाव) ही वास्तविक संसार है; जगजालमय चतुर्गतिभ्रमण को भी संसार कहा जाता है। भ्रमरोग (मिथ्यात्व-अज्ञान) के वश होकर भव-भव में परिभ्रमण ही संसार का मूल आधार है।
संयोग हों अनुकूल फिर भी सुख नहीं संसार में ।
संयोग को संसार में सुख कहें बस व्यवहार में ।
दुख-द्वन्द हैं चिद्वृत्तियाँ संयोग ही जगफन्द है ।
निज आतमा बस एक ही आनन्द का रसकन्द है ॥२॥
संयोग को संसार में सुख कहें बस व्यवहार में ।
दुख-द्वन्द हैं चिद्वृत्तियाँ संयोग ही जगफन्द है ।
निज आतमा बस एक ही आनन्द का रसकन्द है ॥२॥
अनुकूल संयोगों की प्राप्ति होने पर भी संसार में सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। अनुकूल संयोगों की प्राप्ति को सुख मात्र व्यवहार से ही कहा जाता है। वास्तव में तो सभी संयोग संसार के फन्द ही हैं, फन्दे में फँसानेवाले ही हैं और मानसिक द्वन्द्वरूप चिद्वृत्तियाँ भी दु:खरूप ही हैं। आनन्द का रसकन्द तो एकमात्र अपना आत्मा ही है, शेष सब तो दंद-फंद ही हैं।
मंथन करे दिन-राते जल घृत हाथ में आवे नहीं ।
रज-रेत पेले रात-दिन पर तेल ज्यों पावे नहीं ।
सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा मिलती नहीं व्यापार में ।
निज आतमा के भान बिन त्यों सुख नहीं संसार में ॥ ३॥
रज-रेत पेले रात-दिन पर तेल ज्यों पावे नहीं ।
सद्भाग्य बिन ज्यों संपदा मिलती नहीं व्यापार में ।
निज आतमा के भान बिन त्यों सुख नहीं संसार में ॥ ३॥
जिसप्रकार जल का मंथन चाहे रात-दिन ही क्यों न करें, पर उसमें से घी की प्राप्ति सम्भव नहीं है; इसीप्रकार रेत को रात-दिन ही क्यों न पेलें, पर उसमें से तेल का निकलना सम्भव नहीं है तथा जिसप्रकार सद्भाग्य के बिना व्यापार में सम्पत्ति की प्राप्ति संभव नहीं है। उसीप्रकार निज आत्मा को जाने बिना संसार में सुख की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यह एक ऐसा महासत्य है; जिसके जाने बिना संसार से विरक्ति और आत्मसन्मुख दृष्टि होना संभव नहीं है।
संसार है पर्याय में निज आतमा ध्रुवधाम है ।
संसार संकटमय परन्तु आतमा सुखधाम है ॥
सुखधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है ।
ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥ ४ ॥
संसार संकटमय परन्तु आतमा सुखधाम है ॥
सुखधाम से जो विमुख वह पर्याय ही संसार है ।
ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥ ४ ॥
संसार तो मात्र अध्रुव पर्याय में है, निज ध्रुवधाम आत्मा में नहीं है । यद्यपि संसार संकटमय है; तथापि आत्मा तो सुख का धाम ही है । इस सुख के धाम आत्मा से जो पर्याय विमुख है, वही पर्याय वस्तुतः संसार है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है |
जो सत्य देखने को उत्सुक हैं, वे प्रेम और मोह के बीच के फर्क पर चिंतन करते हैं। चिंतन करते हुए वे देखते हैं कि मोह हमेशा किसी किन्हीं माँगों या शर्तों के साथ आता है। जो स्थिर खड़े रहना जानते हैं, वे इसे देख सकते हैं। अपनी अंतर्दृष्टि का उपयोग करके वे स्वयं से पूछते हैं, ‘जिसे मैं प्रेम कहता हूँ, क्या वह सिर्फ सुंदर शब्दों में बँधा हुआ मोह है? जिससे मैं प्रेम करता हूँ, क्या मैं उससे कोई मांग कर रहा हूँ? क्या यह कोई सौदा है? क्या यह एक व्यवसाय है?’
जब हम प्रेम को व्यवसाय की श्रेणी में डाल देते हैं, तब वह प्रेम नहीं रहता। व्यापार में हम देखते हैं कि नफा कहाँ मिलेगा? वहाँ देने की, समर्पण करने की या स्वीकार करने की कोई भावना नहीं है। जिसे ज़्यादा नफा मिल रहा है, बस उसी से मतलब है। दोनों पक्ष सिर्फ स्वयं के स्वार्थ का विचार करते रहते हैं। अगर रिश्तों में यही सत्य है, तो क्या हम स्वयं को भ्रमित नहीं कर रहे हैं?
जब आप इस सत्य को जानने लगेंगे, आप अपने रिश्ते को समझ लेते हैं। आपकी अभिज्ञता बदलने लगती है। आपकी दृष्टि बदल जाती है। आप जान लेते हैं कि किस तरह कुछ दूरी और कुछ जगह देनी चाहिए। रिश्ते और अधिक मीठे बन जाते हैं, अधिक अर्थपूर्ण। फिर दूसरा पक्ष आपसे सीखने लगता है। प्रेम विशाल है। जब आप उस विशालता का समावेश करेंगे, तब आप सबसे प्रेम करने लगेंगे। जब आप सबसे प्रेम करेंगे, तब आप जिससे प्रेम करते हैं, उससे सच्चा प्रेम करेंगे।
यह रातों रात होने वाली बात नहीं है। यह एक मंद प्रक्रिया है, एक उत्तरोत्तर उन्नति, न कि एक झटपट जवाब या अल्प समय की संतुष्टि। आपको धैर्य की आवश्यकता है। मेरे गुरु ने मुझसे कहा था, ‘पहले तुम्हें सीखना होगा कि वास्तविकता के धरातल पर, सत्य पर कैसे खड़े रहें। उस धरातल का कोई पथ नहीं है। तुम्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना है। एक विशाल क्षेत्र तुम्हारे सम्मुख है। सारी दिशाएँ खुली हैं। इसलिए चले हुए पथ पर मत चलो। उससे तुम एक गंदले रास्ते में फँस जाओगे। ताज़ी खुली ज़मीन में अपना मार्ग बनाओ। तब तुम एक नया पथ बनाओगे, नवीन कदम रखोगे।’
नवीनता का एहसास कीजिए। स्वयं से कहिए, ‘मैं अपनी अंतर्दृष्टि के आधार पर हर कदम रखता हूँ।’ आप ऐसा कर सकेंगे जब आपको अपने कदमों पर श्रद्धा होगी और अपनी शक्ति में विश्वास…
जब हम प्रेम को व्यवसाय की श्रेणी में डाल देते हैं, तब वह प्रेम नहीं रहता। व्यापार में हम देखते हैं कि नफा कहाँ मिलेगा? वहाँ देने की, समर्पण करने की या स्वीकार करने की कोई भावना नहीं है। जिसे ज़्यादा नफा मिल रहा है, बस उसी से मतलब है। दोनों पक्ष सिर्फ स्वयं के स्वार्थ का विचार करते रहते हैं। अगर रिश्तों में यही सत्य है, तो क्या हम स्वयं को भ्रमित नहीं कर रहे हैं?
जब आप इस सत्य को जानने लगेंगे, आप अपने रिश्ते को समझ लेते हैं। आपकी अभिज्ञता बदलने लगती है। आपकी दृष्टि बदल जाती है। आप जान लेते हैं कि किस तरह कुछ दूरी और कुछ जगह देनी चाहिए। रिश्ते और अधिक मीठे बन जाते हैं, अधिक अर्थपूर्ण। फिर दूसरा पक्ष आपसे सीखने लगता है। प्रेम विशाल है। जब आप उस विशालता का समावेश करेंगे, तब आप सबसे प्रेम करने लगेंगे। जब आप सबसे प्रेम करेंगे, तब आप जिससे प्रेम करते हैं, उससे सच्चा प्रेम करेंगे।
यह रातों रात होने वाली बात नहीं है। यह एक मंद प्रक्रिया है, एक उत्तरोत्तर उन्नति, न कि एक झटपट जवाब या अल्प समय की संतुष्टि। आपको धैर्य की आवश्यकता है। मेरे गुरु ने मुझसे कहा था, ‘पहले तुम्हें सीखना होगा कि वास्तविकता के धरातल पर, सत्य पर कैसे खड़े रहें। उस धरातल का कोई पथ नहीं है। तुम्हें अपना मार्ग स्वयं बनाना है। एक विशाल क्षेत्र तुम्हारे सम्मुख है। सारी दिशाएँ खुली हैं। इसलिए चले हुए पथ पर मत चलो। उससे तुम एक गंदले रास्ते में फँस जाओगे। ताज़ी खुली ज़मीन में अपना मार्ग बनाओ। तब तुम एक नया पथ बनाओगे, नवीन कदम रखोगे।’
नवीनता का एहसास कीजिए। स्वयं से कहिए, ‘मैं अपनी अंतर्दृष्टि के आधार पर हर कदम रखता हूँ।’ आप ऐसा कर सकेंगे जब आपको अपने कदमों पर श्रद्धा होगी और अपनी शक्ति में विश्वास…
|| SANSAR BHAVANA||
No permanent relationship in universe
Unprotected are the souls of creatures
They are feeling fruitition of Karmas.
Any body doesn't help here.......
I'm praying to you.........2
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No permanent relationship in universe
“Among the twelve reflections taught in Jainism, the 3rd reflection is called samsara. This means to move constantly up and down, down and up, in rhythmical motion like a Ferris wheel. When a person is motivated by greed for pleasure and power, he gets caught up in this perpetual motion and ends up where he began, like an ox circling around a treadmill. But the person with awareness of the purposeful direction of life can use each turn of the wheel for moving forward into evolution, for freeing himself from the need to rush after things which are on the periphery of life.” – Gurudev Shri Chitrabhanu
They are feeling fruitition of Karmas.
Any body doesn't help here.......
I'm praying to you.........2
The Asharan Bhavana deals with the feeling of helplessness. It focuses on having no place to hide for safety, protection, and wellbeing, being lost in the world.Even though we have been successful at prolonging the life through advances in medical treatments, death is unavoidable. We have all seen our loved ones dying in pain and could not do anything to save them. The money, fame, achievements, friends, relatives – none of these could come to rescue and change the inevitable. The story of King Shrenik and Anathi Muni is a good example of this.
Bringing awareness of this reality, contemplation of this fact, is called Asharan Bhavana. The purpose is not to be afraid of death; but be ready for it! Upadhyay Shri Vinayvijayji guides us how to do this in His granth "Shant Sudharas". He tells us how to seek help in order to make death a celebration, how to get out this cycle of life and death, how to surrender.
We need not be afraid of death, we need to afraid of being born again! Being afraid of death is attachment whereas being afraid of another birth is a quality of an aspirant. The only way to really succeed in this life is to move our focus away from what is destructible – such as our body – and to find solace in what takes us towards what is eternal; and that is surrendering to Bhagwan’s teachings. Let us surrender our body to death which we cannot fight with, cannot run away from, cannot expect any mercy from. But let us surrender our mind to Bhagwan, Sadguru in order to win over death.
Death is nothing but an event, a goodbye; it is not destruction! Death can only take away ego and attachment; not the eternal soul.
Acharya Haribhadra, a renowned 7th century Jain master has provided valuable insight on how to apply these Bhavanas and Jain Sutras in his epic works Lalit Vistara and Yogdrsati Samuchay texts. Starting with recitation of Navkar mantra and understanding and chanting Chattari Mangalam sutra can provide incredible healing of mind, body, and soul.
In Namuthunam Sutra, Jain masters have provided incredible "Sharan" or surrender to Tirthankars and Siddha with these powerful Sutras: Saran Dayanam (Arihantas provide true refuge or protection of our soul); Magga Dayanam (Arihanta shows a path of liberation of soul), Abhaya Dayanam (when we realize our true self is ever lasting and we are not the body or mind, one becomes immortal), Chakshu Dayanam (Arihanta provides us divine vision), Bodhi Dayanam (Agam texts provide us powerful teachings for liberation of soul), and Tinnaam-Taryanam (Lord Mahavir and all Tirhtankars are liberated soul and have infinite compassion to liberate each soul in the universe)! If we just understand and appreciate how powerful these sutras are and if we can practice daily mediation on these sutras to reflect on, all our fear and false attachments will begin to dissolve gradually and we can experience peace, happiness, and blissful state. Then every moment of our life becomes a divine sanctuary of joyful journey to Nirvana Anandghanji’s stavan, is very powerful composition to practice how to experience divinity within by surrendering to Lord Aadinath. Let us review the last verse of this stavan:
Chitta Prasane re Pujan Fal Kahu re, Puja Akhandit Eha;
Kapat Rahit Thai Atam Arpana re, Anadghan Pad Rev
Rushabha Jineshavar Pritam Maharo re
Or na Chahu re Kant.
True meaning of this Asharan Bhavana is beautifully described by Anadghanji in the above verse: When a seeker surrenders unconditionally to Lord Aadinath in devotion with no other desire except to receive God’s grace and blessings, one experiences genuine peace and bliss. With continued practice of these Bhavanas or reflections, one can attain genuine peace, happiness, and spiritual enlightenment. The main condition is one has to be fully committed to study of the teachings and practice meditation daily on these Bhavans and integrate it with Bhaktiyog to illuminate the Self. Seekers of all faith have experienced such enlightenment including Chandanbala, Aanad Shravak, Acharya Mantungsuri who composed magnificent Bhakatamar stotra, Acharya Siddhsen Divakar who composed divine Kalyan Mandir Stotra, and Meerabai, Narsi Mehta, and Tulsidas who provided timeless devotional compositions to help millions of seekers attain spiritual enlightenment even at the present time!
When we surrender in full devotion to Lord Mahavir or Lord Aadinath, we become peaceful, calm, and fully secured and our "helpless" state of Asharan vanishes as we feel "empowered" - all the time in union with Lord Mahavir!. For simple exercise and practice of Asharan Bhavana, please recite these powerful sutras daily and several times when you are stuck in a traffic jam or stressed out at work! When you go to bed please recite these sutras religiously and miracles will happen to you! All you need is right faith and practice this meditation religiously.
Below is a stavan on Anitya Bhavana.
Contemplation that the soul has repeatedly gone through cycles of birth and death and taken
each and every form of existence as human, animal and in hell and heaven, the strong feeling
that “when shall get free from this cycle of birth and death?” is called Sansar Bhavana
Samsāra Anuprekshā/bhāvanā is one among the four attendant reflections of Dharma Dhyāna. Contemplation on Samsāra bhāvanā helps an aspirant to understand the relation of Self with the Universe completely aiding the development of detachment from all the attachments. Delusion (Mithyātva) and passions (kasāyas) in the form of anger, pride, deceit and
conceit lead to further transmigration of soul in Samsār:
Samsārantijivāyasminnasausamsārah||
Meaning: where and when the Jeeva transmigrates is called samsār.
Purpose of samsār bhāvanā:
• Realization of the world being full of all kinds of sorrows
• Understand the reasons of birth in different states/species/Chaturgati (four gatis)
• To discover effective ways of liberating the Soul from fetters of mundane life
The railway track, platform, airport, bus-stop, etc., are stationary, while the vehicles, goods and people are always on the move. A traveller travels till his destination is reached. Samsār remains eternal, steady and unmoved, while the nonliberated soul keeps transmigrating from one kind of birth to another. Na sa jai nasajoijatthajivanauvavajjai|| meaning
there is not one single space-point left in this entire Loka, where a mundane being has not taken birth.
Mundane beings are classified into four major groups, based on their rebirth-category (Gati). Each soul migrates into one of the four states Naraka Gati (hell), Tiryanch Gati (animal or plant), Manushya Gati (humans) and Deva Gati (Celestials), by the cycle of birth-death-rebirth until
ultimately liberated.
The four causative Kārmic-bondages of these Gatis have been explained in the Sthānānga Sūtra.
Understanding these reasons, doing introspection and then taking necessary steps to change our behavior will take us towards liberation. Let us explore these reasons.
1) Naraka Gati:
The four reasons for an Infernal-rebirth, as a hellish
being, have been narrated as:
1. Indulgence in excessive violence in large scale
2. Immensely deep attachment to one’s possessions
3. Consumption of non-vegetarian food and
intoxicating substances
4. Killing a five-sensed living being/beings
Introspection and soul-searching thought-process about such activities would bring-in awareness and help to estimate whether there is any accumulation of such a hell-distaining karma. An aspirant has been advised to take up the twelve vows of a householder, that would refrain one from intended violence and reducing attachments to possessions.
2) Tiryanch Gati:
The four major reasons for a rebirth in animal or plant state are:
1. Deceitful behaviour 2. Intense indulgence in deceit
3. Utter falsehood 4. Faltering and defective weighing/measuring in trade
Deceit is considered as the foundation of all these. It destroys faith and trust. Falsehood arises from the roots of deceit, distorts one’s perception, leading him to an illusory world. Short-weighing and deceptive measuring of things involves deceit. Intense deceit leads to bondage of severe deluding karma (mahamohaniya karma). Various forms of deceit could be like giving reasons of ill health, weakness, being busy and so on to escape from work in spite of having enough strength.
Parody, simulation, adulteration, packing things with less quantity of product and air weight is matched to balance the total weight of the packet, verbal exaggeration of quality of goods and selling them at very high rates. Why does any soul end up in animal-state at rebirth? Many instances have been given explaining this aspect. For instance,
a dishonest employee draws full salary but doesn’t perform accordingly. Intensive passions (anantānubandhi-kasāya) are responsible for bondage of Tiryanch Gati. Contemplation/reflections on Samsār bhāvanā – ‘Am I entangled in the empire
of deceit?’, is believed to help avoid such rebirth.
3) Manushya Gati:
Four causes of a rebirth in human state are:
1. Simplicity or Straight-forwardness 2. Compassion
3. Humility 4. Non-jealousy
Deceit weakens the foundation of human life. Avoiding all sorts of credibility-gaps and maintaining equality in speech and deeds is one of the most recommended solutions to avoid a birth in the animal state and to be able to pave way to human rebirth. Passions break the pillars of simplicity and compassion.
4) Deva Gati:
Four causes for rebirth in celestial state are:
1. Maintaining restraint with/without riddance of attachment 2. Maintaining restraint but partially
3. Unintended shedding of karmas (akāma nirjarā) 4. Ignorant austerities
As a severely ill patient gets transferred from one hospital to another, so too a Jeeva with karmas, keeps getting transferred from one state to another, transmigrating in the samsāra. Wealth, power, sensual pleasures and all other materialistic things have never ever given true happiness. The scanty experiences of brief joys in this mundane world may appear to be a sort of happiness; in fact, it remains miles away in reality. The dew drops settled overnight on the grass tips, get vaporized as soon as the sunlight falls on them; so does the happiness fades away unnoticed due to the presence of underlying pre-existing sorrows that remain unnoticed by most Jeevas. The happenings in
life befuddles to be real for a person and makes him to attach himself to the world of ephemeral nature.
These four states, thus, together make up the complete pool of sorrows. Animals, birds, insects, organisms, etc., are always restless and turbulent. Their subjugated life due to inherent inability of expressing feelings added to their dependency, vulnerability, fear and bafflement of starvation fills their life with grief and despair. Every human being is bound by nature’s rule. No person desires old age, illness, poverty or sadness, yet every person ends up with a feeling of “I am very sad! I am not good enough.” etc. Rejections, the clouds which cover the inner peace is nothing but the fence of attachment created by the soul yielding such negative thoughts. These kinds of emotions hinder the spiritual progress while obstructing physical, mental and emotional balance. Man, alone is solely responsible for what he/she is, for the circumstances that he/she is facing in life. The celestial abode (Deva gati) might have much less sorrows compared to the other gatis. Still they have their own hardships encountering attachments towards their possessions like jewelry, female celestial
beings are abducted from other celestials. The wars between them due to jealousy can be another reason for sorrow. Mundane world or the Samsār is endless and is compared to a dense forest and a huge ocean. Whether we are in the Samsār? Or Is the Samsār within us? - is a dubious uncertainty. Water allows smooth sailing of a boat as long as it is on the outer side but will sink it as soon
as the sides change, with the water being inside the boat. In the same way, mundane attachments make letting-go very difficult; remaining detached helps one to stay free from bondages. So, living in the mundane world with a sense of detachment helps an aspirant to float across the ocean of Sansār and arrive at the ultimate Destination –the Moksha. The real purpose of human life should be to attain detachment. Reinforcement of the inner strength prevents the shattering of the self until the ultimate departure from this mundane world.
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JAINAM JAYATI SHASHNAM
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