|| EKATVA BHAVNA : एकत्व भावना ||
एकांगीपन का बोध
EKATVA BHAVANA JAIN DHARM RELIGION
|| एकत्व भावना -Solitude of the soul||
Solitude of the soul
Explanation of EKATVA BHAVANA in English and Hindi
संसार में प्रत्येक मनुष्य अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरण को प्राप्त होता है| उसके साथ कोई भी स्वजन – परिजन नहीं होता है| जीव अपने कर्मों का स्वयं कर्त्ता और भोक्ता होता है, दूसरा कोई नहीं, ऐसा चिंतन एकत्व भावना है| इससे आत्म – प्रतीति जगती है और स्थिरता आती है| उदाहरण – नमि राजर्षि के|
आप अकेला अवतरे ,मरै अकेलो होय,
घर संपत्ति पर प्रगट ये ,साथी सगा न कोय !
सारे शुभ और अशुभ कर्मों के फल जितने भी हैं।।यह जीव अकेला हो भोगता है।।कोई साथ न देने वाला होता है…माता,पिता,पुत्र,नारी,दोस्त,रिश्तेदार अपनी कोई रिश्तेदारी नहीं निभाते हैं…।सिर्फ स्वार्थ के लिए सगे बन जाते हैं…और स्वार्थ ख़त्म होने पर धोका दे जाते हैं…चाहे सुख हो या दुःख यह जीव अकेला ही सहन करता है…साथी-सगे तो सब कहने मात्र के हैं।
एकत्व भावना EKATVA BHAVNA |
शुभ-अशुभ करमफ ल जेते, भोगै जिय एक हि तेते ।
सुत-दारा होय न सीरी, सब स्वारथके हैं भीरी ।।६।।
अर्थ - अपने पुण्य कर्मों के अच्छे और पाप कर्मों के निन्दनीय फल को प्रत्येक प्राणी अकेला ही भोगता है अर्थात् यह जीव सदा एकाकी है। उसमें पुत्र-स्त्री आदि कोई भी हिस्सेदार नहीं होते हैं। ये सभी रिश्तेदार स्वार्थ के अभिप्राय से ही नाता रखते हैं एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में मुँह मोड़ लेंगे-ऐसा विचार करना ‘एकत्व भावना’ है।
अन्वयार्थ : – (जेते) जितने (शुभ-करमफ ल)शुभकर्मके फ ल और (अशुभ-करमफ ल) अशुभकर्मके फ ल हैं (ते
ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भोगै) भोगता है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) नहीं
होते । (सब) वे सब (स्वारथके) अपने स्वार्थके (भीरी) सगे (हैं) हैं ।
विशेषार्थ - जो अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी, परमहितकारी एवं परमबंधु है, विनश्वर तथा अहितकारी पुत्र, कलत्र और मित्र आदि बंधु नहीं हैं अथवा पुण्य और पाप कर्मों के जितने फल हैं, उनको यह जीव अकेला ही भोगता है, स्त्री-पुत्रादि कोई भाग नहीं बाँट सकता, ऐसा चिन्तन करना एकत्व भावना है। देव-पूजा, गुरु उपासना एवं स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्यों की ओर मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति लगाना शुभोपयोग कहलाता है। विषय-कषायों की ओर त्रियोग की प्रवृत्ति लगाना अशुभोपयोग कहलाता है।
जीवका सदा अपने स्वरूपसे अपना एकत्वऔर परसे विभक्तपना है; इसलिये वह स्वयं ही अपना हित अथवा
अहित कर सकता है –परका कुछ नहीं कर सकता । इसलिये जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फ ल (आकुलता) वह स्वयं अकेला ही भोगता है, उसमें अन्य कोई-स्त्री, पुत्र, मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब पर पदार्थ हैं और वे सब पदार्थ जीवको ज्ञेयमात्र हैं; इसलिये वे वास्तवमें जीवके सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकरदुःखी होता है । परके द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर परके साथ कर्तृत्व-ममत्वका अधिकार मानता है; वह अपनी भूलसे ही अकेला दुःखी होता है ।संसारमें और मोक्षमें यह जीव अकेला ही है–ऐसा नकरसम्यग्दृष्टि जीव निज शुद्ध आत्माके साथ ही सदैव अपना एकत्व मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वकी वृद्धि करता है,
यह "एकत्व भावना" है ।।६।।
अन्वयार्थ : – (जेते) जितने (शुभ-करमफ ल)शुभकर्मके फ ल और (अशुभ-करमफ ल) अशुभकर्मके फ ल हैं (ते
ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भोगै) भोगता है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) नहीं
होते । (सब) वे सब (स्वारथके) अपने स्वार्थके (भीरी) सगे (हैं) हैं ।
विशेषार्थ - जो अपना आत्मा है वही सदा अविनाशी, परमहितकारी एवं परमबंधु है, विनश्वर तथा अहितकारी पुत्र, कलत्र और मित्र आदि बंधु नहीं हैं अथवा पुण्य और पाप कर्मों के जितने फल हैं, उनको यह जीव अकेला ही भोगता है, स्त्री-पुत्रादि कोई भाग नहीं बाँट सकता, ऐसा चिन्तन करना एकत्व भावना है। देव-पूजा, गुरु उपासना एवं स्वाध्याय आदि धार्मिक कार्यों की ओर मन, वचन एवं काय की प्रवृत्ति लगाना शुभोपयोग कहलाता है। विषय-कषायों की ओर त्रियोग की प्रवृत्ति लगाना अशुभोपयोग कहलाता है।
जीवका सदा अपने स्वरूपसे अपना एकत्वऔर परसे विभक्तपना है; इसलिये वह स्वयं ही अपना हित अथवा
अहित कर सकता है –परका कुछ नहीं कर सकता । इसलिये जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फ ल (आकुलता) वह स्वयं अकेला ही भोगता है, उसमें अन्य कोई-स्त्री, पुत्र, मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब पर पदार्थ हैं और वे सब पदार्थ जीवको ज्ञेयमात्र हैं; इसलिये वे वास्तवमें जीवके सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकरदुःखी होता है । परके द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर परके साथ कर्तृत्व-ममत्वका अधिकार मानता है; वह अपनी भूलसे ही अकेला दुःखी होता है ।संसारमें और मोक्षमें यह जीव अकेला ही है–ऐसा नकरसम्यग्दृष्टि जीव निज शुद्ध आत्माके साथ ही सदैव अपना एकत्व मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वकी वृद्धि करता है,
यह "एकत्व भावना" है ।।६।।
चोरी करने वाला चोर,पकड़े जाने पर अकेला ही मार खाता है।यातना भोगता है।पत्नी,पुत्र,पिता कोई भी उसकी यातना नहीं बँटा सकते।संसार में प्राणी अकेला आता है और अकेला ही जाता है।धन, वैभव,पुत्र, पत्नी आदि कोई भी उसके साथ नहीं जाते।वह नर्क आदि दुर्गतियों में एकाकी ही अपने किये दुष्कर्मों का फल भोगता है।जिस सोने में मिट्टी होती है,उसे ही अग्नि में बार-बार तपना पड़ता है। उसी प्रकार जो आत्मा पर- भाव में अधिक रचा- पचा रहता है।लोभ आदि में जो अधिक लिप्त है,उसे उतनी ही अधिक चिन्ता,भय,शोक व कष्ट उठाना पड़ता है।कर्ममल मुक्त आत्मा शुद्ध सोने की भाँति
प्रभास्वर रहता है ।
दोहा:--- आप अकेला अवतरे,मरे अकेला होय ।
यों कबहुँ या जीव को,साथी सगो न कोय ।।
प्रभास्वर रहता है ।
दोहा:--- आप अकेला अवतरे,मरे अकेला होय ।
यों कबहुँ या जीव को,साथी सगो न कोय ।।
Pravachan on EKATVA Bhavna
एकत्व भावना EKATVA BHAVNA
जन्मै मरै अकेला चेतन, सुख-दु:ख का भोगी।
और किसी का क्या इक दिन, यह देह जुदी होगी॥
कमला चलत न पैड़ जाय,मरघट तक परिवारा।
अपने अपने सुख को रोवैं, पिता पुत्र दारा||(10)
ज्यों मेले में पंथीजन मिल नेह फिरैं धरते।
ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा पंछी आ करते॥
कोस कोई दो कोस कोई उड़ फिर थक-थक हारै।
जाय अकेला हंस संग में, कोई न पर मारै||(11)
आनन्द का रसकन्द सागर शान्ति का निज आतमा ।
सब द्रव्य जड़ पर ज्ञान का घनपिण्ड केवल आतमा ॥
जीवन-मरण सुख-दुख सभी भोगे अकेला आतमा ।।
शिव-स्वर्ग नर्क-निगोद में जावे अकेला आतमा ॥१॥
निज भगवान आत्मा आनन्द का रसकन्द, ज्ञान का घनपिण्ड एवं शान्ति का सागर है। एक आत्मा को छोड़कर शेष सभी द्रव्य जड़ हैं। इस संसार में यह आत्मा जीवन-मरण और सुख-दुःख को अकेले ही भोगता है और नरक, निगोद, स्वर्ग या मोक्ष में भी अकेला ही जाता है।
इस सत्य से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा ।
पहिचानते निजतत्त्व जो वे ही विवेकी आतमा ॥
निज आतमा को जानकर निज में जमे जो आतमा ।
वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा ॥२॥
बहिरात्मा अज्ञानीजीव उक्त तथ्य से अपरिचित ही रहते हैं। जो आत्मा उक्त सत्य या निजात्मतत्त्व को पहिचानते हैं, वे ही विवेकी ज्ञानी हैं। जो जीव निजात्मतत्त्व को पहिचानकर, जानकर निज में ही जम जाते हैं, रम जाते हैं;
वे भव्यजीव पंर्याय में भी परमात्मा बन जाते हैं।
सत्यार्थ है बस बात यह कुछ भी कहो व्यवहार में।
संयोग हैं सर्वत्र पर साथी नहीं संसार में॥
संयोग की आराधना संसार का आधार है।
एकत्व की आराधना आराधना का सार है॥३॥
व्यवहार में कुछ भी क्यों न कहा जाये, पर सत्यार्थ बात तो यही है। संसार में संयोग तो सर्वत्र पाये जाते हैं, पर सगी साथी कोई नहीं मिलता। संयोगों की आराधना - चाह, महिमा ही संसार का कारण है, आधार है; और
निज एकत्व की आराधना ही आराधना का सार है।
एकत्व ही शिव सत्य है सौन्दर्य है एकत्व में।
स्वाधीनता सुख शान्ति का आवास है एकत्व में॥
एकत्व को पहिचानना ही भावना का सार है।
एकत्व की आराधना आराधना का सार है॥४॥
एकत्व ही सत्य है, एकत्व ही सुन्दर है और एकत्व ही कल्याणकारी है; सुख, शान्ति और स्वाधीनता एकत्व के आश्रय से ही प्रकट होती है; क्योंकि इनका आवास एकत्व में ही है। एकत्वभावना का सार तो एकत्व को पहिचानने में ही है; और एकत्व की आराधना ही आराधना का सार है।
|| EKATVA BHAVANA||
सब द्रव्य जड़ पर ज्ञान का घनपिण्ड केवल आतमा ॥
जीवन-मरण सुख-दुख सभी भोगे अकेला आतमा ।।
शिव-स्वर्ग नर्क-निगोद में जावे अकेला आतमा ॥१॥
निज भगवान आत्मा आनन्द का रसकन्द, ज्ञान का घनपिण्ड एवं शान्ति का सागर है। एक आत्मा को छोड़कर शेष सभी द्रव्य जड़ हैं। इस संसार में यह आत्मा जीवन-मरण और सुख-दुःख को अकेले ही भोगता है और नरक, निगोद, स्वर्ग या मोक्ष में भी अकेला ही जाता है।
इस सत्य से अनभिज्ञ ही रहते सदा बहिरातमा ।
पहिचानते निजतत्त्व जो वे ही विवेकी आतमा ॥
निज आतमा को जानकर निज में जमे जो आतमा ।
वे भव्यजन बन जायेंगे पर्याय में परमातमा ॥२॥
बहिरात्मा अज्ञानीजीव उक्त तथ्य से अपरिचित ही रहते हैं। जो आत्मा उक्त सत्य या निजात्मतत्त्व को पहिचानते हैं, वे ही विवेकी ज्ञानी हैं। जो जीव निजात्मतत्त्व को पहिचानकर, जानकर निज में ही जम जाते हैं, रम जाते हैं;
वे भव्यजीव पंर्याय में भी परमात्मा बन जाते हैं।
सत्यार्थ है बस बात यह कुछ भी कहो व्यवहार में।
संयोग हैं सर्वत्र पर साथी नहीं संसार में॥
संयोग की आराधना संसार का आधार है।
एकत्व की आराधना आराधना का सार है॥३॥
व्यवहार में कुछ भी क्यों न कहा जाये, पर सत्यार्थ बात तो यही है। संसार में संयोग तो सर्वत्र पाये जाते हैं, पर सगी साथी कोई नहीं मिलता। संयोगों की आराधना - चाह, महिमा ही संसार का कारण है, आधार है; और
निज एकत्व की आराधना ही आराधना का सार है।
एकत्व ही शिव सत्य है सौन्दर्य है एकत्व में।
स्वाधीनता सुख शान्ति का आवास है एकत्व में॥
एकत्व को पहिचानना ही भावना का सार है।
एकत्व की आराधना आराधना का सार है॥४॥
एकत्व ही सत्य है, एकत्व ही सुन्दर है और एकत्व ही कल्याणकारी है; सुख, शान्ति और स्वाधीनता एकत्व के आश्रय से ही प्रकट होती है; क्योंकि इनका आवास एकत्व में ही है। एकत्वभावना का सार तो एकत्व को पहिचानने में ही है; और एकत्व की आराधना ही आराधना का सार है।
सारे शुभ और अशुभ कर्मों के फल जितने भी हैं..यह जीव अकेला हो भोगता है..कोई साथ न देने वाला होता है…माता,पिता,पुत्र,नारी,दोस्त,रिश्तेदार अपनी कोई रिश्तेदारी नहीं निभाते हैं….सिर्फ स्वार्थ के लिए सगे बन जाते हैं…और स्वार्थ ख़त्म होने पर धोका दे जाते हैं…चाहे सुख हो या दुःख यह जीव अकेला ही सहन करता है…साथी-सगे तोह सब कहने मात्र के हैं.
जन्म-मरे अकेला चेतन सुख-दुख का भोगी।
और किसी का क्या इक दिन यह देह जुदी होगी।।
कमला चलत न पैंड जाय मरघट तक परिवारा।
अपने-अपने सुख को रोवे पिता पुत्र दारा।।
ज्यों मेले में पंथी जन मिलि नेह धरें फिरते।
ज्यों तरुवर पै रैन बसेरा पंछी आ करते।।
कोस कोई दो कोस कोई उड़-उड़ फिर थक हारे।
जाय अकेला हंस संग में कोई न पर मारे।।
इसीप्रकार का भाव आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि में व्यक्त किया है।
जैसाकि संसारभावना के अनुशीलन में स्पष्ट किया जा चुका है कि बारह भावनाओं के चिंतन का एकमात्र उद्देश्य दृष्टि को संयोगों पर से हटाकर स्वभाव की ओर ले जाना है; क्योंकि संयोगाधीन दृष्टि ही संसारदुखों का मूल है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए एकत्वभावना मंे इस तथ्य की ओर बार-बार ध्यान आकर्षित किया जाता है कि साथी की खोज कभी सफल होनेवाली नहीं है; क्योंकि साथ की बात ही असंभव है, वस्तुस्थिति के विरुद्ध है।
भले ही क्षणभंगुर सही, अशरण सही, निरर्थक सही, पर संयोग है तो सही; किन्तु साथी तो जगत में कोई है ही नहीं। परद्रव्यों का संयोग है, पर साथ नहीं। परद्रव्य संयोगी है, परंतु साथी नहीं।
संयोग और साथ में अंतर है। संयोग तो मात्र संयोग है, पर साथ में सहयोग अपेक्षित है। संयोग में सहयोग शामिल करने पर साथ होता है। गणित की भाषा में हम इसे इसप्रकार व्यक्त कर सकते हैं - संयोग$सहयोग = साथ। दो व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्रित होना संयोग है, उनमें परस्पर सहयोग होना साथ है।
बेटा पहली बार मुंबई जा रहा था। उसे गाड़ी में बिठाकर पिताजी जब घर वापिस आये तो माँ ने पूछा -
क्यों, उदास क्यों हो? बेटे को बैठने को जगह तो मिल गई थी न?
हाँ, मिल तो गई थी; पर भीड़ बहुत थी, पैर रखने को भी जगह न थी। चिंता जगह की नहीं, इस बात की है कि बेटा पहली "बार बम्बई जा रहा है और वह भी अकेला।"
"अकेला क्यों; आप ही तो बता रहे हैं कि गाड़ी में पैर रखने की भी जगह न थी?"
"भीड़ तो बहुत थी, पर साथी कोई नहीं।"
भीड़ तो मात्र संयोग की सूचक है, साथ की नहीं। जब संयोग में सहयोग, अपनापन जुड़ जाता है तो साथ बन जाता है। किन्तु जब कोई अपना है ही नहीं, कोई किसी का सहयोग कर ही नहीं सकता है; तब साथ की बात ही कहाँ रह जाती है?
जगत में संयोग हैं, पर साथ नहीं। संयोग से इंकार करना भी भूल है और साथ मानना भी भूल है। यद्यपि संयोग क्षणभंगुर हैं, अशरण हैं, असार हैं; पर हैं अवश्य; किन्तु साथ तो है ही नहीं।
अनित्यभावना में संयोगों की अनित्यता, अशरणभावना में संयोगों की अशरणता, संसारभावना में संयोगों की असारता समझाई जाती है तो एकत्वभावना में संयोगों की स्वीकृति के साथ-साथ साथ से इंकार किया जाता है। साथ से इंकार का नाम ही अकेलेपन (एकत्व) की स्वीकृति है। एकत्वभावना का मूल प्रतिपाद्य यही अकेलापन (एकत्व) है।
चित्त में इस अकेलेपन की चिंतनधारा का अविराम प्रवाह ही एकत्वभावना है। एकत्वभावना के चिंतन-प्रवाह को देखने के लिए कविवर गिरधर का निम्नांकित छंद उल्लेखनीय है -
"आये हैं अकेले और जायेंगे अकेले सब,
भोगेंगे अकेले दुःख सुख भी अकेले ही।
माता पिता भाई बंधु सुत दारा परिवार,
किसी का न कोई साथी सब हैं अकेले ही।।
गिरधर छोड़कर दुविधा न सोचकर,
तत्त्व छान बैठ के एकांत में अकेले ही।
कल्पना है नाम रूप झूठे राव रंक भूप,
अद्वितीय चिदानंद तू तो है अकेलो ही।।"
|| EKATVA BHAVANA||
Solitude of the soul
This soul of mine is alone, it has come alone, will go alone, will bear the fruits of his deeds alone; to contemplate thus from the deep realms of consciousness is the fourth Ekatva bhavana.
Aa maaro aatma eklo chhe, te eklo aavyo chhe, eklo jashe, potaanaa karelaa karma eklo bhogavshe, antahkarana thi em chintavvu te chothi ekatva bhavana.
— Shrimad Rajchandra
I came alone and will go alone too,
There is neither any friend nor enemy.
None takes my manifold sufferings......
I'm praying to you.....
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This soul of mine is alone, it has come alone, will go alone, will bear the fruits of his deeds alone; to contemplate thus from the deep realms of consciousness is the fourth Ekatva bhavana.
Aa maaro aatma eklo chhe, te eklo aavyo chhe, eklo jashe, potaanaa karelaa karma eklo bhogavshe, antahkarana thi em chintavvu te chothi ekatva bhavana.
— Shrimad Rajchandra
Under this reflection, one thinks that the soul is solitaire, and lonely in existence. The soul assumes birth alone, and departs alone from this world. The soul is responsible for its own actions and karmas. The soul will enjoy the fruits, and suffer the bad consequences of its own action alone. Such thoughts will stimulate his efforts to get rid of karmas by his own initiative and will lead religious life.
“The soul is solitaire, and lonely in existence. The Soul assumes birth alone, and departs alone from the life form. The Soul will be responsible for its own actions, and karmas. The Soul will enjoy the fruit, and suffer bad consequences of its own action alone."
I came alone and will go alone too,
There is neither any friend nor enemy.
None takes my manifold sufferings......
I'm praying to you.....
This Bhavana reflects the fact that ultimately we are alone. Here are some examples to illustrate this Bhavana. Regardless of which life form the soul is born into, there is only one soul in each being. Therefore we are born alone and we die alone. Do you have any possessions? No matter how much wealth you have, I’m sure you will all answer yes. For example, you may have a car, a home, clothes, jewellery, ipod, stationary….something! If something happened to you tomorrow, what do you really have? Are you going to be able to take any of these things with you? The answer is no. The only thing that is permanent and everlasting is the soul.
The BLISS that you can feel
whilst contemplating, accepting and cultivating this Bhavana is in knowing your soul, immersing yourself in
it and being set free by detaching
from all materials in the world. By knowing that we
are experiencing the ‘now’ because of our past actions, we
can relish in the possibility of controlling our thoughts, speech and actions
which will determine the karma we bind from here on.
How Ekatva
Bhavana makes us aware that we, as a soul, are alone in this world. We arrive
in this world all alone and we depart from it all alone. And among all our
friends and relatives, we live alone! Even when we are with our loved ones, we
alone have to suffer the consequences of our karma. When our body is in pain,
no one can experience and share in our pain no matter how compassionate they are.
But thinking about this will only result in loneliness, depression; isn’t it?
But that is a one perspective of what Ekatva is. When describing Ekatva Bhavana
in the granth “Shant Sudharas”, Upadhyay Shri Vinayvijayji Maharaj Saheb,
starts with a verse that tells us what we really are:
“The soul is lonely in
existence. It is Bhagwan. It is totally submerged in knowledge and perception. Everything else is
just your attachment, imagination. This attachment is the root cause of all
your unhappiness.” Each and every soul has the same characteristics – knowledge,
purity, perception, blissful, eternal, etc. That is our true nature. The real
happiness, bliss is within us. But due to ignorance, we depend on external
factors such as people, material objects, money and power, for our happiness.
Our expectations that these things will make me happy, causes us pain. When we
fall sick and no one can either take away or be our partner is this pain, we
feel lonely, depressed. But at such times we have to understand that this is
reality.
Ekatva Bhavana is
contemplation of this fact. It also says that at times like this, look within
and turn this loneliness into solitude. Ekatva Bhavana teaches us that real
peace, bliss, is when you are alone. Being with more people, more materialistic
things makes your life complicated and prone to unwanted problems, and many
struggles. This fact is illustrated in Uttaradhyayan Sutra in a story about Nami
Rajarshi, the king of Mithila. King Nami
was very wealthy and was enjoying all the material comforts. He had many young
wives and was living a happy life. Once, the king developed burning sensation
all over the body. The sensation steadily grew and became so intense that the
king could no longer bear it. All the queens were worried. Many skillful
physicians attempted to cure him with various medicines, but nothing helped.
The king was tired and frustrated with this illness. After a lot of search,
they found one expert physician who recommended application of Malaygiri sandalwood
paste over all his body.The queens themselves started making paste by grinding sandalwood
on hard stone. Since they all were wearing bangles, it created loud jingling
sound. The king, already in a lot of pain, could not bear the loud noise
created by the bangles He therefore asked them to either stop grinding the
sandalwood or do it quietly. Thereupon the queens kept only one bangle on each
hand and removed the rest. That stopped the sound altogether. The king liked
that the noise was gone, but wondered whether the queens had discontinued
preparing the paste. Feeling impatient, he asked the queens whether they had
stopped making the paste. The queens replied that they were still doing the
grinding. The noise had stopped because they had retained only one bangle on
each hand and removed the rest. There was no banging of bangles on each other and
hence no sound. This made an unexpected impact on the mind of Nami Rajarshi. He
realized the importance of solitude, the significance of Ekatva. Having more
things to deal with causes more problems. It creates unnecessary hustle and
bustle, while peace lays in solitariness. He thought, “That one bangle, how nicely
it is in peace! When there were more bangles, it created such a nuisance. I am
like that bangle. Just like that bangle, as long as I live with other people, I
will not be able find peace and bliss. Instead if I focus on my eternal,
blissful soul, I will be able to achieve peace and liberation. While in this
contemplation, he recollected his previous lives. He decided that when he
recovers from the pain, he will renounce the worldly life and become a sadhu.
After making such resolve, he went to bed. When he woke up in the morning to
the melodious sound of musical instruments, he found himself completely
recovered from his illness.
He
kept his resolution and took diksha. He was completely detached from the
worldly objects and steadfast in his determination to seek liberation. Lord
Indra took a disguise and tried to persuade him as a test of his determination.
Nami Rajarshi passed the test. He told Indra “Each and every object that you
are telling me as mine, does not really belong to me. I am on my own. I am a
lone traveler and desire to be within myself.”
There
is lot we can learn from this story. Nami Rajarshi did not take diksha out of
depression. He was able to perceive the beauty of being ‘alone’, immersed in
the soul. There was an ecstasy in his following the solitary path. By focusing
within, by taking solace in the contemplation of Ekatva Bhavana, we can achieve
peace, knowledge of the self, detachment, dissolution of passions. We can get
rid of bad karma and progress on the spiritual path to liberation. Instead of
focusing on our eternal being, if we focus on what we have been associated with
due to circumstances, we are bound to bring unhappiness in our lives. Just like
we board a train and meet new people there, make new relations with the other
passengers inside and say goodbye as soon as we reach our destination, our soul
enters our body and forms many relations – son, daughter, sister, brother, etc.
But these relations last only till this body lasts.
At
the time of death the soul has to leave this body and go all alone leaving
behind all these relations; possibly never to meet them again. Our association,
love and affection for others should not result into attachment because it
cannot save us from pangs of life. Our attachment stops us from realizing who
we are. We need to contemplate on the true nature of things. The soul is
eternal and everything else in temporary. We need to increase our awareness.
The more we become aware of the soul, we realize that all livings beings are
same as us – a pure, eternal, blissful soul. We then connect with others and
with nature at a different level and actually realize that we are not alone
after all!
But
to get there, first we need to be in solitude and get it touch with our own
self. That is Ekatva Bhavana.
What I can call mine in the correct sense of the term is only the soul – it has come alone and it will alone leave the body at death; it will be alone to enjoy or suffer from the fruits of hid good or bad actions. Contemplating on such true nature of the world is called Ekatva Bhavana
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JAINAM JAYATI SHASHNAM
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