Tuesday, August 20, 2019

BODHI-DURLABHA BHAVANA : बोधि दुर्लभ भावना Unattainability of Right Faith, Knowledge, Conduct

|| BODHI DURLABHA BHAVNA : बोधि-दुर्लभ भावना  ||
BODDHI-DURLABH BHAVANA JAIN DHARM RELIGION :Unattainability of right faith, knowledge, and conduct
||बोधि-दुर्लभ भावना - Shedding of karma||
 Unattainability of Right Faith, Knowledge, Conduct
Explanation of BODHI-DURLABHABHAVANA in English and Hindi

जिस भावना में चौरासी लाख योनियों और चार गतियों में भ्रमणशील मनुष्यों को उत्तम कुल प्राप्त होना और उसमें भी विशुध्द बोधि या दृष्टि मिलना अत्यन्त दुर्लभ है और जब ऐसी स्थिति प्राप्त हुई है तो क्यों न मोक्षमार्ग की ओर प्रवृत्त हुआ जाए, जब यह चिंतन होता है, वह भावना बोधिदुर्लभ भावना है| संसार में मनुष्य पर्याय ही एक ऐसी पर्याय है जिसमें धर्म को धारण करते हुए सम्यक् संयम तपादि का आचरण कर कर्मबन्ध से मुक्त हुआ जा सकता है| उदाहरण – तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के अट्ठानवे पुत्रों का|

चौदह राजू उतंग नभ ,लोक पुरुष संठान 
तामें जीव अनादितैं ,भरमत हैं बिन ज्ञान !

इस जीव ने नवमें ग्रैवेयक के विमानों तक ।।जो सोलह स्वर्गों से भी ऊपर हैं।।वहां भी पर्याय ली।।और एक बार नहीं अनंत बार यहाँ पर्याय ले कर अह्मिन्द्र,अदि देवों तक का पद पाया…लेकिन जब भी आत्मा के ज्ञान के बिना इस जीव ने सुख लेश मात्र नहीं पायो।।नरक,त्रियंच मनुष्य की योनियों में दुःख की बात करें तो चलता है।।लेकिन स्वर्गों में भी यह जीव दुखी रहा।।और वहां भी लेश मात्र भी सुख ग्रहण नहीं किया…जो की सम्यक ज्ञान के अभाव की वजह से था…और ऐसे दुर्लभ सम्यक ज्ञान को मुनिराज ने अपने ही आत्मा स्वरुप में साधा हुआ।।कहीं बाहर से नहीं खोजा है।।इसलिए संसार में सबकुछ सुलभ है,घर,परिवार,कुटुंब,उत्तम कुल, विद्या, धन ,पैसा,बुद्धि,होशियारी …यह सब सम्यक ज्ञान की दुर्लभता के आगे सुलभ ही हैं।।और यह सम्यक ज्ञान अपार सुख को प्राप्त करने वाला है।आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है।कर्मों का जोड़ इस सम्यक ज्ञान रुपी छैनी के द्वारा ही तोडा जाता है।

बोधिदुर्लभ भावनाअंतिमग्रीवकलौंकी हद, पायो अनन्त विरियां पद ।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ; दुर्लभ निजमें मुनि साधौ ।।१३।।

अन्वयार्थ : – (अंतिम) अंतिम-नववें (ग्रीवकलौंकी हद)ग्रैवेयक तकके (पद) पद (अनन्त विरियां) अनन्तबार (पायो) प्राप्त किये; तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) प्राप्त न हुआ; (दुर्लभ) ऐसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञानको (मुनि) मुनिराजोंने (निजमें) अपने आत्मामें (साधौ) धारण किया है ।

भावार्थ : – मिथ्यादृष्टि जीव मंद कषायके कारण अनेक-बार ग्रैवेयक तक उत्पन्न होकर अहमिन्द्रपदको प्राप्त हुआ है; परन्तु उसने एक बार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया; क्योंकि सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना वह अपूर्व है; उसे तो स्वोन्मुखताके अनन्त पुरुषार्थ द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरीत अभिप्राय आदि दोषोंका अभाव होता है ।सम्यग्दर्शन-ज्ञान आत्माके आश्रयसे ही होते हैं । पुण्यसे,शुभरागसे, जड़ कर्मादिसे नहीं होते । इस जीवने बाह्य संयोग, चारों गतिके लौकिक पद अनन्तबार प्राप्त किये हैं; किन्तु निज आत्माका यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी नहीं समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है ।बोधि अर्थात् निश्चयसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता; उसबोधिकी प्राप्ति प्रत्येक जीवको करना चाहिये । सम्यग्दृष्टि जीव स्वसन्मुखतापूर्वक ऐसा चिंतवन करता है और अपनी बोधि और शुद्धिकी वृद्धिका बारम्बार अभ्यास करता है, यह 'बोधिदुर्लभ भावना' है ।।१३।।


अन्तिम ग्रीवकलौं की हद, पायों अनन्त बिरियाँ पद।
पर सम्यग्ज्ञान न लाधौ, दुर्लभ निज में मुनि साधौ।।१३।।

अर्थ - मिथ्यादृष्टि अभव्य जीव (प्राणी) ने मंद कषाय के फलस्वरूप असंख्य बार नौवें ग्रैवेयक (स्वर्ग का विमान) में उत्पन्न होकर अहमिन्द्र पद प्राप्त किया, परन्तु इसे एक बार भी सम्यक्ज्ञान का उदय नहीं हुआ क्योंकि उसका पाना कोई सरल काम नहीं है। ऐसे बड़ी कठिनता से उपलब्ध होने वाले सम्यक्ज्ञान की साधना आत्मचिन्तवन करने वाले भावलिंगी मुनि ही कर सकते हैं, ऐसा विचार करना ‘बोधिदुर्लभ भावना’ है।

विशेषार्थ - एकेन्द्रिय, विकलत्रय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, नरपर्याय, उत्तम कुल, उत्तम देश, सांगोपांगता, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, निरोगता, दीर्घायु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना, ग्रहण करना, धारण करना, श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से पराङ्मुखता एवं क्रोधादि कषायों से निवृत्ति ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं। काकतालीय न्याय से ये कदाचित् मिल भी जाएँ, तो भी बोधि और समाधि की प्राप्ति तो अति दुर्लभ है, ऐसा सदैव चिंतन करना चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति होना बोधि है तथा इस बोधि को निर्विघ्नतापूर्वक अन्य भव में ले जाना समाधि है। दिगम्बर मुनिराज ही इसे अपने हृदय में धारण करके मोक्ष पद प्राप्त करते हैं। बिना सम्यग्ज्ञान के तो इस जीव ने अनन्तों बार मुनिव्रत धारण कर नवम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया किन्तु मोक्ष प्राप्त नहीं कर सका, इसलिए इसे अतिदुर्लभ कहा है।


Pravachan on BODHI DURLABHA Bhavna


https://www.youtube.com/watch?v=9U2heMHiSUY&list=PL7AntmN4ovJGOdYRT6IFGkMskjK0joYFs
बोधि-दुर्लभ भावना BODHI-DURLABHA BHAVANA

दुर्लभ है निगोद सेथावर, अरु त्रस गति पानी।
नर काया को सुरपति तरसै सो दुर्लभ प्रानी॥
उत्तमदेश सुसंगति दुर्लभ, श्रावक कुल पाना।
दुर्लभ सम्यक् दुर्लभ संयम, पंचम गुणठाना||(24)

दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना।
दुर्लभ मुनिवर के व्रत पालन,शुद्ध भाव करना॥
दुर्लभ से दुर्लभ है चेतन, बोधि ज्ञान पावै।
पाकर केवलज्ञान नहीं फिर, इस भव में आवे||(25)

इन्द्रियों के भोग एवं भोगने की भावना।
हैं सुलभ सब दुर्लभ नहीं है इन सभी का पावना।।
है महादुर्लभ आत्मा को जानना पहिचानना।
है महादुर्लभ आत्मा की साधना आराधना।।1।।
पंचेन्द्रियों के भोग एवं उन्हें भोगने की भावना का प्राप्त होना दुर्लभ नहीं, सुलभ ही है; पर आत्मा को जानना, पहिचानना एवं आत्मा की साधना और आराधना महादुर्लभ है।

नर देह उत्तम देश पूरण आयु शुभ आजीविका।
दुर्वासना की मंदता परिवार की अनुकूलता।।
सत् सज्जनों की संगती सद्धर्म की आराधना।
है उत्तरोत्तर महादुर्लभ आत्मा की साधना।।2।।
मनुष्यभव की प्राप्ति होना, उत्तम आर्य देश में जन्म होना, परिपूर्ण आयु की प्राप्ति होना, न्यायोपात्त अहिंसक आजीविका के साधन उपलब्ध होना, दुर्वासनाओं का मन्द होना, धर्मानुकूल परिजनों की प्राप्ति होना, सत्य पदार्थ और सज्जनों की संगति प्राप्त होना, सद्धर्म की आराधना के भाव होना एवं आत्मा की साधना करने की वृत्ति होना क्रमशः एक से एक महादुर्लभ हैं।

जब मैं स्वयं ही ज्ञेय हूँ जब मैं स्वयं ही ज्ञान हूँ।
जब मैं स्वयं ही ध्येय हूँ जब मैं स्वयं ही ध्यान हूँ।।
जब मैं स्वयं ही आराध्य हूँ जब मैं स्वयं ही आराधना हूँ।
जब मैं स्वयं ही साध्य हूँ जब मैं स्वयं ही साधना हूँ।।
पर एक बात यह भी तो है कि जब मैं स्वयं ही ज्ञेय हूँ और मैं स्वयं ही ज्ञान हूँ; जब मैं स्वयं ही ध्येय हूँ और मैं स्वयं ही ध्यान भी हूँ; इसीप्रकार जब मैं स्वयं ही आराध्य हूँ और मैं स्वयं ही आराधना भी हूँ जब मैं स्वयं ही साध्य हूँ और साधना भी मैं स्वयं ही हूँ।

जब जानना पहिचानना निज साधना आराधना।
ही बोधि है तो सुलभ ही है बोधि की आराधना।।
निज तत्व को पहिचानना ही भावना का सार है।
धु्रवधाम की आराधना आराधना का सार है।।4।।
जब निज को जानना, पहिचानना एवं निज की साधना, आराधना ही बोधि है; तो फिर बोधि की आराधना दुर्लभ कैसे हो सकती है? सुलभ ही समझना चाहिए। अतः बोधिदुर्लभभावना का सार निजतत्व को पहिचानना ही है और धु्रवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।

नर देह उत्तम देश पूरण आयु शुभ अजीविका।
दुर्वासना की मंदता परिवार की अनुकूलता।।
सत् सज्जनों की संगती सद्र्ध की आराधना।
है उत्तरोत्तर महादुर्लभ आत्मा की साधना।।

षट्द्रव्यमयी इस लोक में न तो ज्ञेयरूप संयोग ही दुर्लभ हैं और न संयोगीभावरूप आस्त्रवभाव; क्योंकि हम सभी को ये तो अनन्तों बार प्राप्त हो चुके हैं और यदि अब भी अपने को नहीं जाना, नहीं पहिचाना तो भविष्य में भी मिले रहेंगे। दुर्लभ तो एकमात्र अपने को जानना है, पहिचानना है, अपने में ही जमना है, रमना है;क्योंकि अनादिकाल से अबतक और सब-कुछ मिला, पर सहीरूप में हम अपने को पहिचान नहीं कसे हैं, जान नहीं सके हैं यदि हमने अपने को सहीरूप में जान लिया होता, पहिचान लिया होता तो अबतक इस लोक भटकते ही न रहते, अपितु लोकाग्र में विद्यमान सिद्धशिला में विराजमान होते; मिथ्यात्व, अज्ञान और असंयम का अभाव कर अनंत सुखी हो गये होते; अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य के धनी हो गये होते; अतीन्द्रियानन्दस्वरूप सिद्धशिला को प्राप्त हो गये होते।

हमारी यह वर्तमान दुर्दश, दुःखरूप दशा एकमात्र अपने को नहीं पहिचान पाने के कारण ही हो रही है, नहीं जान पाने के कारण हो रही है; अतः इस दुर्लभ अवसरका उपयोग, नरभव का एकमात्र सदुपयोग, अपने को जानने-पहिचानने का महादुर्लभ कार्य कर लने में ही है।

अपने को जानना, पहिचानना एवं अपने में लीन हो जाना ही बोधि है - दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। यह दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बाधि ही इस जगत में दुर्लभ है, महादुर्लभ है और इस बोधि की दुर्लभता का विचार, चिन्तन, बार-बार चिनतन ही बोधिदुर्लभभावना है।

इस दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप बोधि का अत्यन्त आदर करने का आदार करने का आदेश देते हुए स्वामी कार्तिकेय लिखते हैं -

’’इय सव्व दुलह-दुलहं दंसणणाणं तहाचरित्तं च।
मुणिऊण य संसारे महायरं कुणह तिण्हंप।।1
इन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को संसार की सर्मसत दुर्लभ वस्तुओं से भी दुर्लभ जानकर इनका अत्यन्त आदर करो।’’

बेधि और समाधि का अन्तर वृहद्द्रव्यसंग्रह की संस्कृत टीका में इस प्रकारस्पष्ट किया गया है -

’’सम्यग्दर्शनचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति।2

अप्राप्त सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का प्राप्त होना बोधि है और उन्हीं सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना समाधि है।’’

यद्यपि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र - इन तीनों को या तीनों की एकता को बोधि कहते हैं; तथापि बोधिदुर्लभभावना की चर्चा करते हुए अनेक स्थानों पर अकेले ’सम्यग्ज्ञान’ या ’पहिचान’ शब्द का प्रयोग भी किया गया है; परंतु आशय सर्वत्र एक ही है, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चाहिरत्र से ही है; क्योंकि इन तीनों की उत्पत्ति एक साथ ही होती है।

आचार्य कुन्दकुन्द ’सण्णाणं’ शब्द का प्रयोग करते हैं -

’’उप्पज्जदि सण्णाणं जेण उवायेण तस्सुवायस्स।
चिन्ता हवेई बोही अच्चन्तं दुल्लहं होदि।।3
जिस उपाय से सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति हो, उस उपाय का उत्यन्त चिनतन अर्थात् बार-बार चिन्तन-मनन ही बोधिदुर्लभभावना है।’’

हिन्दी कवियों ने भी इस्रकार के प्रयोग बहुत किये है, जिनमें कुछ इसप्रकार हैं -

’’अंतिम ग्रीवक लों की हद, पायो अनंत विरियां पद।
पर सम्यग्ज्ञानल न लाधो, दुर्लभ जिन में मुनि साधो।।1
जय जीव, व्यवहाररत्नत्रय धारण करके नौवें ग्रैवेयक तक तो अनन्तबार पहुंचा, पर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति न कर पाने के कारण संसार में ही भटकता रहा। निश्चयरत्नत्रय धारण करनेवाले मुनिराज निज में उस सम्यग्ज्ञान की साधना करते हैं।

धन-कन-कंचन राजसुख, सबहि सुलभ कर जान।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञन।।2
इस संसार में धन-धान्य, सोना-चांदी और राजसुख आदि तो सबको सुलभ हैं; किंतु यर्थाज्ञान ही एकमात्र दुर्लभ है।

सब व्यवहार क्रिया को ज्ञान, भयो अनन्ती बार प्रधान।
निपट कठिन अपनी पहिचान, ताको पावत हो कल्यान।।3 

इस जीव को व्यवहारिक क्रियाओं का ज्ञान तो अनन्तबार हुआ है, पर एकमात्र अपनी पहिचान ही अत्यन्त कठिन है। यदि अपनी सच्ची पहिचान हो जावे तो कल्याण होते देर न लगे।’’

उक्त छन्दों में कहीं मात्र अपनी पहिचान को दुर्लभ बताया गया है तो कहीं मात्र सम्यग्ज्ञान या यथार्थज्ञान को; पर गहराई में जाकर देखें तो आशय सर्वत्र एक ही है। सर्वत्र एक ही ध्वनि है कि पुण्यवानों को दुनिया में सभीसंयोग सहज उपलब्ध हो जाते हैं, हमें भी समय-समय पर सभी अनुकूल-प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते रहे हैं; पर एक यथार्थाज्ञान, अपनी पहिचानआत्मोन्मुखी संयोग प्राप्त हाते रहे हैं; पर एक यथार्थज्ञान, अपनी पहिचान आत्मोन्मुखी संयोग प्राप्त होते रहे हैं; परएक यथार्थज्ञान, अपनी पहिचान आत्मोन्मुखी पुरूषार्थ के बिना सहज सुलभ नहीं है। अतः पुण्योदय से प्राप्त भोगों में न उलझकमर सम्पूर्ण शक्ति से अपने को जानो, पहिचानो और अपने में ही जम जावो, रम जावो - सुखी होने का एक मात्र यही उपाय है।

|| BODHI-DURLABHA BHAVANA|| 
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 Unattainability of Right Faith, Knowledge, Conduct

Under this reflection, one thinks that it is very difficult for the transmigrating soul to acquire right faith, right knowledge, and right conduct in this world. Therefore, when one has the opportunity to be a religious person, take the advantage of it to develop right religious talent. This thought will strengthen one's effort to attain right faith and knowledge, and live accordingly.

Transliteration
Sansaarmaa bhamtaa aatmane samyakgnaanni prasaadi praapt thavi durlabh chhe; vaa samyakgnaan pamyo to chaaritra sarvaviratiparinaamroop dharma paamvo durlabh chhe em chintavvu te agiyaarmi bodhdurlabhbhaavanaa.

Translation
It is rare for the soul wandering in sansaar (world) to acquire the divine blessing of right knowledge; and if it attains right  Knowledge, then it is rare to find the religion that derives from completely detached conduct. To contemplate thus is the eleventh Bodhidurlabh bhavana.
— Shrimad Rajchandra, Vachanamrut

Bodhi Durlabh Bhavna – Unattainability of Right Faith, Knowledge, Conduct

Human life is the best than all lives,
But difficult is, to attain Ratnatraya.
Give me that Right Path, deva......
I'm praying to you....11

From the time we are born, we are taught how to walk, talk, sit, eat, etc. When we get a little older, we go to school to imbibe knowledge about the world we live in – what it is and how it functions.     

Acquiring this knowledge is important for us to live well in this life. There is a knowledge, however, that goes beyond the given. It helps us and heals us forever. It bestows inner peace and lasting calm.

જેને આત્મા જાણ્યો તેને સર્વ જાણ્યું
This knowledge is actually the substratum of all knowledge that we can derive from other sources, because once we acquire this knowledge, we can progressively ascend the path to salvation and naturally know everything about all the worlds that exist without ever reading a text book or going to school. But that’s just the side benefit. The real advantage of acquiring this knowledge of the self is that it can lift you out of the vicious cycle of births and deaths and eliminate all possibility of sorrow and unhappiness. For good.

Each one of us has spent an eternity in nigod - that pit of misery where infinite souls struggle in invisible bodies squashed against one another in a crushing lack of space. Each time a soul attains liberation (Siddha), one organism is freed from nigod, giving it the opportunity to fashion its life intelligently and attain liberation. 

Thanks to our good fortune, we have been released from that abyss. From an organism with a single sense organ to one with mobility is a tough progression that only some manage; from that to possessing a body with five senses is an ascent that even fewer make. Rarer than these possibilities is the acquisition of the acme of physical evolution - a human form.   

Back and forth, we have been criss-crossing a cyclical labyrinth of infinite births and deaths to get at where we are. A human body is an exceptional (dushprapya) accomplishment that is achieved only with a sustained struggle and accumulation of good karma over a zillion millennia. It is only in the human form that we can liberate our soul. 

We are fortunate that our transmigration has endowed us with the human form countless times but, regrettably, we have not managed to liberate ourselves from the bondage of birth and death. A step ahead of accomplishing a human form is getting a conducive environment where our spiritual quest can take seed and grow. 

We have attained this rare stage as well, in many human births, after a lot of hardship. The fact that our soul still continues to be trapped in a body suggests that we have missed something in previous human lives in spite of being blessed with an encouraging atmosphere for spiritual growth.

બહુ પૂણ્યકેરા પુંજથી શુભ દેહ માનવનો મળ્યો,
તોયે અરે! ભવચક્રનો આંટો નહિ એક્કે ટાળ્યો. 

That elusive element that we missed is access to right knowledge (samyak gnaan), right faith (samyak darshan) and right conduct (samyak chaaritra) which can help us escape the relentless grind of life.

In Jainism, we are blessed to have a rich bounty of literature on the right knowledge. There is road map expertly guiding us towards self-realisation and salvation. Even though many original scriptures have been lost over time, what we have today is more than adequate to deliver us from our miserable existence in this world. But we falter in our inability to decode and understand the teachings as they should be. We need somebody who can interpret it the correct way. 

Western philosopher Bertrand Russell, in ‘Appearance and Reality’, tells us that we see a rectangular table as rectangular even though that is not how it appears to our eyes. In our perception, the farther side of the table looks shorter; the table appears as if it tapers towards the other side. However, our experience informs us that the table is rectangular. Therefore, we see the table as rectangular in our mind, and not a trapezoid as our eyes see it. 

In the same way, knowledge of the self is acquired by seeking out an experienced master who knows the soul as it is and can impart that knowledge to us on the basis of his profound insight into our spiritual texts.   

Left to ourselves, we may not interpret or comprehend the teaching as they are. A little knowledge is a dangerous thing.

In all his literature, Param Krupaludev Shrimad Rajchandra has articulated the ‘mool marg’ – the quintessential path - of Bhagwan Mahavir. His teachings have enlightened innumerable seekers. In verse 128 of ‘Aatmasiddhi Shastra’, he sums up the six core spiritual truths and tells us their significance: 
દર્શન ષટે સમાય છે, આ ષટ સ્થાનકમાંહી,
વિચારતાં વિસ્તારથી, સંશય રહે ન કાંઈ

There is soul; the soul is eternal; the soul is the doer of karma; the soul bears the fruits of its karma; there is salvation; the path of salvation is through true dharma. Contemplation of these eternal truths will clear all cobwebs of doubt and open our inner eye.

The primary quality a seeker needs to have is thirst for truth - right knowledge (samyak gnaan). Param Pujya Bhaishree says right knowledge leads to right faith. However, right knowledge gets fructified only with the experience of the self or right faith (samyak darshan). These two lead us to right conduct (samyak chaaritra).  Therefore, right faith is what seekers need to strive for. That is the number one. If you add zeroes to zeroes, you get nothing. Add zeroes to the number one, and you get a value.

On one occasion, Shrimadji told the village children a story: A goat and a buffalo went to a pond to drink water. When they returned, the goat had had some water but the buffalo had not. He asked the children why that was so. The children could not answer. Shrimadji explained, not in these exact words, “A buffalo has the habit of muddying the water while the goat drank from the edge of the pond.  Like the buffalo, some people go to a wise person but are unable to benefit from his experience, and instead are a hindrance to others. Other listeners are like the goat. They absorb what he says and benefit.” 

A true seeker needs to have the drive - the thirst and the respect for knowledge. He needs to want out. Permanently. Our mindless pursuit of the temporal can be arrested only with the force of a Sadguru’s blessing and our hard work. We are blessed to have the grace of an enlightened master like Param Pujya Bhaishree who is holding up the invaluable light of liberation in his hands to offer us. What are we waiting for? Why slacken in following the path? 

We cannot falter now. There are many organisms still out there suffering in nigod who are suffering unbearable agony. The incidence of our freedom from our past must mean something. Let’s contemplate: “I have suffered immeasurable agony in the terminal darkness of nigod and other life forms. I do not wish to prolong my suffering by taking any other form. I will follow my Sadguru’s aagnas, read and listen to what he has said and work hard to free my soul from transmigration.”

That is the only way we too can experience the bliss we see on our Sadguru’s face.

Note: Above part is taken from "https://www.rajsaubhag.org/"





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JAINAM JAYATI SHASHNAM

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