|| ASUCHI BHAVNA : अशुचि भावना ||
एकांगीपन का बोध
ASHUCHI BHAVANA JAIN DHARM RELIGION
||अशुचि भावना -Solitude of the soul||
Impureness of the body
Explanation of ASHUCHI /ASUCHI/ASUCI/ASHUCHI BHAVANA in English and Hindi
शरीर रक्त – माँस – मज्जा – मल – मूत्र आदि घृणित पदार्थों से बना हुआ पिण्ड है| शरीर जिसमें आत्मा प्रतिष्ठित है उसे सजाने – सँवारने की अपेक्षा साधने की आवश्यकता है संयमादि से शरीर को साधा जाता है| सधे हुए शरीर में रहकर आत्मा के अनन्त ज्ञान – दर्शनादि गुणों को प्रकट किया जा सकता है| उदाहरण सनत्कुमार के अशुचि भावना का| जब चक्रवर्ती सनत्कुमार को अपने रूप का दम्भ हो गया तो परीक्षा करने आये ब्राह्माण रूपी देवों ने कहा कि है राजन्! तुम्हारा यह शरीर रोगों का वास है| असंख्यात कीटाणु इसमें भरे पड़े हैं| इसलिए इस पर गर्व मत करो| देवों के कहने पर राजा ने पात्र में थूका| थूक में बिलबिलाते असंख्यात कीड़े दिखाई दिये| उसी पल उसे शरीर की अशुचि का भान हुआ और शरीर से वैराग्य हुआ|
यह शरीर मांस,खून,पीप,विष्ट,गन्दगी ,मल,मूत्र,पसीना।।आदि कि थैली है।।और हड्डी,चर्बी अदि अपवित्र पदार्थों से मलिन है…और इस शरीर में से नौ द्वार में से निरंतर मैल निकलता रहता है…और इतना ही नहीं इस शरीर के स्पर्श से पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं…बहुत गंदा है यह शरीर।।और ऐसे शरीर से कौन प्रेम करना चाहेगा,कौन शरीर।।और ऐसे शरीर से कौन प्रेम करना चाहेगा,कौन मोह रखना चाहेगा…ऐसा चिंतन करना अशुचि भावना है।
पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली ।
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करे किम यारी ।।८।।
अर्थ - यह देह ऊपर से देखने में कितनी ही सुन्दर क्यों न हो, विश्लेषण करने पर अत्यन्त घृणित एवं घोर अपवित्र है। यह काया माँस, खून, पीप, मल-मूत्र आदि की थैली है और हड्डी-चरबी आदि से युक्त होने से पूर्ण अपवित्र है। घृणा उत्पन्न करने वाले नवद्वारों से सदैव मल बहता रहता है-ऐसी अपवित्र देह में भला प्रेम कैसे किया जाये ? ऐसा विचार करना ‘अशुचि भावना’ है। इसके चिन्तवन से शरीर एवं भोगों से विरक्ति होती है, वैराग्य दृढ़ होता है।
अन्वयार्थ : – जो (पल) माँस (रुधिर) रक्त (राध)पीव और (मल) विष्टाकी (थैली) थैली है, (कीकस) हड्डी, (वसादितैं) चरबी आदिसे (मैली) अपवित्र है और जिसमें (घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करनेवाले (नव द्वार) नौ दरवाजे (बहैं) बहते हैं, (अस) ऐसे (देह) शरीरमें (यारी) प्रेम-राग (किमि) कैसे (करै) किया जा सकता है?
भावार्थ : – यह शरीर तो माँस, रक्त पीव, विष्टा आदिकीथैली है और वह हड्डियाँ, चरबी आदिसे भरा होनेके कारण अपवित्र है तथा नौ द्वारोंसे मैल बाहर निकलता है, ऐसे शरीरके प्रति मोह- राग कैसे किया जा सकता है ? यह शरीर ऊपरसे तो मक्खीके पंख समान पतली चमड़ीमें मढ़ा हुआ है; इसलिये बाहरसे सुन्दर लगता है, किन्तु यदि उसकी भीतरी हालतका विचार किया जाये तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार या राग करना व्यर्थ है ।यहाँ शरीरको मलिन बतलानेका आशय–भेदज्ञान द्वाराशरीरके स्वरूपका ज्ञान कराके, अविनाशी निज पवित्र पदमें रुचि कराना है; किन्तु शरीरके प्रति द्वेषभाव उत्पन्न करानेका आशय नहीं । शरीर तो उसके अपने स्वभावसे ही अशुचिमय है और यह भगवान आत्मा निजस्वभावसे ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र चैतन्य पदार्थ है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्माकी सन्मुखता द्वारा अपनी पर्यायमें शुचिताकी (पवित्रताकी) वृद्धि करता है, यह 'अशुचि भावना' है ।।८।।
भावार्थ : – यह शरीर तो माँस, रक्त पीव, विष्टा आदिकीथैली है और वह हड्डियाँ, चरबी आदिसे भरा होनेके कारण अपवित्र है तथा नौ द्वारोंसे मैल बाहर निकलता है, ऐसे शरीरके प्रति मोह- राग कैसे किया जा सकता है ? यह शरीर ऊपरसे तो मक्खीके पंख समान पतली चमड़ीमें मढ़ा हुआ है; इसलिये बाहरसे सुन्दर लगता है, किन्तु यदि उसकी भीतरी हालतका विचार किया जाये तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार या राग करना व्यर्थ है ।यहाँ शरीरको मलिन बतलानेका आशय–भेदज्ञान द्वाराशरीरके स्वरूपका ज्ञान कराके, अविनाशी निज पवित्र पदमें रुचि कराना है; किन्तु शरीरके प्रति द्वेषभाव उत्पन्न करानेका आशय नहीं । शरीर तो उसके अपने स्वभावसे ही अशुचिमय है और यह भगवान आत्मा निजस्वभावसे ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र चैतन्य पदार्थ है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्माकी सन्मुखता द्वारा अपनी पर्यायमें शुचिताकी (पवित्रताकी) वृद्धि करता है, यह 'अशुचि भावना' है ।।८।।
Pravachan on EKATVA Bhavna
अशुचि भावना ASUCHI BHAVNA
तू नित पोखै यह सूखे ज्यों, धोवै त्यों मैली।
निश दिन करे उपाय देह का, रोग-दशा फैली॥
मात-पिता-रज-वीरज मिलकर, बनी देह तेरी।
मांस हाड़ नशलहू राध की, प्रगट व्याधि घेरी||(14)
काना पौंडा पड़ा हाथ यह चूसै तो रोवै।
फलै अनंत जु धर्म ध्यान की, भूमि-विषै बोवै॥
केसर चंदन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी।
देह परसते होय, अपावन निशदिन मल जारी||(15)
जिस देह को निज जानकर नित रम रहा जिस देह में।
जिस देह को निज मानकर रच-पच रहा जिस देह में॥
जिस देह में अनुराग है एकत्व है जिस देह में।
क्षण एक भी सोचा कभी क्या-क्या भरा उस देह में॥१॥
क्या-क्या भरा उस देह में अनुराग है जिस देह में।
उस देह का क्या रूप है आतम रहे जिस देह में॥
मलिन मल पल रुधिर कीकस वसा का आवास है।
जड़रूप है तन किन्तु इसमें चेतना का वास है॥२॥
चेतना का वास है दुर्गन्धमय इस देह में ।
शुद्धातमा का वास है इस मलिन कारागृह में ॥
इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयगी ।
वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायगी ॥ ३॥
किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा ।
वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा ॥
उस आतमा की साधना ही भावना का सार है।
धुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥४॥
|| ASUCHI BHAVANA||
जिस देह को निज मानकर रच-पच रहा जिस देह में॥
जिस देह में अनुराग है एकत्व है जिस देह में।
क्षण एक भी सोचा कभी क्या-क्या भरा उस देह में॥१॥
हे आत्मन्! जिस देह को अपना जानकर, अपना मानकर तू उसमें दिन-रात रम रहा है, रच-पच रहा है; जिस देह में तूने एकत्व स्थापित कर रखा है और जिस देह में तेरा इतना अनुराग है; उस देह में क्या-क्या भरा है? - इस बात का विचार क्या तूने कभी एक क्षण भी किया है ?
उस देह का क्या रूप है आतम रहे जिस देह में॥
मलिन मल पल रुधिर कीकस वसा का आवास है।
जड़रूप है तन किन्तु इसमें चेतना का वास है॥२॥
जिस देह में निज भगवान आत्मा रहता है और जिस देह में तेरा इतना अनुराग है; उस देह का वास्तविक स्वरूप क्या है, रूप क्या है? - इस बात का विचार भी तूने कभी किया? यह देह अत्यन्त मलिन, मल-मूत्र, खून-माँस, पीप एवं चर्बी का घर है। यद्यपि यह शरीर जड़रूप है, तथापि इसमें चैतन्यभगवान आत्मा विराजमान है।
शुद्धातमा का वास है इस मलिन कारागृह में ॥
इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयगी ।
वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायगी ॥ ३॥
इस दुर्गन्धमय शरीर में चैतन्य भगवान रहते हैं, इस मैली-कुचैली जेल में शुद्धात्मा का आवास है। इस देह की स्थिति तो ऐसी है कि पवित्र से भी पवित्र जो वस्तु इस मलिन देह के संयोग में एक क्षण को भी आवेगी; वह भी मलिन हो जावेगी, मल-मूत्र-मय हो जावेगी, दुर्गन्धमय हो जावेगी।
किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा ।
वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा ॥
उस आतमा की साधना ही भावना का सार है।
धुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥४॥
किन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि इस महामलिन देह में रहकर भी यह भगवान आत्मा सदा निर्मल ही रहा है। यह निर्मल आत्मा ही परमज्ञेय है - परमशुद्धनिश्चय नय का विषय है, परमभावग्राही शुद्धद्रव्यार्थिक नय का विषय है; श्रद्धेय है - दृष्टि का विषय है और वह भगवान आत्मा ही ध्यान का विषय है, ध्येय है। अशुचिभावना को सार उक्त भगवान आत्मा की साधना ही है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।
इस संदर्भ में पंडित भूधरदासजी की निम्नांकित पंक्तियों भी द्रष्टव्य हैं -
देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई।
सागर के जल सौं शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई।।
सत कुधातमयी मलमूरत, चाम लपेटी सोहै।
टंतर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है।।
नव मलद्वार स्त्रवैं निशि-वासर, नाम लिए घिन आवै।
व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै?
पोषत तो दुख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै।
दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै।।
राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है।
यह तन पाय महातप कीजे, यामैं सार यही है।।
यह देह अत्यंत अपवित्र है, अस्थिर है, घिनावनी है, इसमें रंचमात्र भी सार नहीं है, सागरों के जल धोये जाने पर भी शुद्ध होनेवाली नहीं है। चमड़े में लिपटी शोभायमान दिखनेवाली यह देह सात कुधातुओं से भरी हुई मल की मूर्ति ही है; क्योंकि अंतर में देखने पर पता चलता है कि इसके समान अपवित्र अन्य कोई पदार्थ नहीं है।
इसके नव द्वारों से दिन-रात ऐसा मैल बहता रहता है, जिसके नाम लेने से ही घृणा उत्पन्न होती है। जिसे अनेक व्याधियाँ और उपाधियाँ निरंतर लगी रहती हैं, उस देह में रहकर आजतक कौन बुद्धिमान सुखी हुआ है?
इस देह का स्वभाव दुर्जन के समान है; क्योंकि इसमें भी दुर्जन के समान पोषण करने पर दुःख और दोष उत्पन्न होते हैं और शोषण करने पर सुख उत्पन्न होता है। फिर भी यह मूर्ख जीव इससे प्रीति बढ़ाता है।
इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु यह छोड़ने योग्य ही है; अतः हे भव्य प्राणियों! इस मानव तन को पाकर महातप करो; क्योंकि इस नरदेह पाने का सार आत्महित कर लेने में ही है।‘‘
उक्त छंदों में देह के अशुचि स्वरूप का वैराग्योत्पादक चित्रण कर अंत में यही कहा गया है कि ‘अस देह करे किम यारी‘ अर्थात् ऐसी अशुचि देह से क्या प्रेम करना? तथा ‘राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है‘ अर्थात् इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु यह छोड़ने योग्य ही है।
हे आत्मन्! देह यदि अपवित्र है तो रहने दे इसे अपवित्र; तुझे इससे क्या लेना-देना? तू तो इससे अत्यंत भिन्न परमपवित्र भगवान आत्मा है। तू तो अपने को पहिचान। तू इस देह के ममत्व एवं स्नेह में पड़कर क्यों अनंत दुःख उठा रहा है? इससे सर्वप्रकार स्नेह तोड़कर स्वयं में ही समा जाने में ही सार है।
Impureness of the body
Although my soul is so sacred,
But He became impure by Karmas.
Please bless me to get pure soul...
I'm praying to you.....6
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ASUCHI BHAVNA
Aa sharir apavitra chhe. Malmutrani khaan chhe. Rog-jaranu niwas dhaam chhe, e sharirthi hu nyaaro chhu; em chintavvu te chhathhi Ashuchibhavana.
Translation:
This body is impure. It’s a pit of excretory filth, the abode of disease and ageing. To contemplate that I am distinct from this body is the sixth concept of impurity.
— Shrimad Rajchandra, Vachanamrut
Under this reflection, one thinks about the constituent element of one's body. It is made of impure things like blood, bones, flesh, etc. It also generates impure things like perspiration, urine, and stool.
The soul, which resides within the body, remains unattached to the body. The soul is alone, pure, and liberated. The body ultimately becomes nonexistent, but the soul is eternal.
Therefore emotional attachments to the body is useless.
The soul, which resides within the body, remains unattached to the body. The soul is alone, pure, and liberated. The body ultimately becomes nonexistent, but the soul is eternal.
Therefore emotional attachments to the body is useless.
Although my soul is so sacred,
But He became impure by Karmas.
Please bless me to get pure soul...
I'm praying to you.....6
Thinking that the body is unclean.
This body is made up of impure substances like blood, urine, and faecal material, etc.
I will discard my attachments for such body and engage myself in self-discipline, renunciation and spiritual endeavours. The body is made up of substances that decay very easily.
Asuci Bhavna – Impureness of the body
Under this reflection, one thinks about the constituent element of one’s body. It is made of impure things like blood, bones, flesh, etc. It also generates impure things like perspiration, urine, and stool.
The soul, which resides within the body, remains unattached to the body. The soul is alone, pure, and liberated. The body ultimately becomes nonexistent, but the soul is eternal.
Therefore emotional attachments to the body is useless.
Asuci Bhavana
Every man is most deeply attached to his body. In fact all pleasures and pains are of our body. Our attachment to our family and our worldly possessions is in the ultimate analysis attachment to our body. But what is this body? When the self withdraws from the body what is its condition? Even when the self does not withdraw, what does this body consist of? How do various diseases arise in our body? Why does it gradually decay? If we give deeper thought to all these questions we find two important aspects of our body:
(a) Without the existence of the spirit (soul) within it, it is nothing but a conglomeration of dirt and diseases.
(b) Even with the existence of spirit within, it is constantly under the process of decay and deterioration.
To keep these aspects of the body constantly in mind is called Asuci Bhavana. The constant reminder of these aspects blunt our attachment to our body and keep us alive to the fact that self is something distinct and different from body, and the body can be best utilised not for enjoying the transitory objects of the world but for liberating the self from the shackles of karmas. This Bhavana is called ‘Asuci’ as it points out to the impure aspects of the body. This is required to be done to mitigate our attachment to the body and not for cultivating hatred towards it, as misunderstood by some. All the roads of Sadhana – roads of self-realization – are requires to be traversed through body and it is this body which is the best vehicle to take us to the final destination. It is therefore, quite necessary to take its proper care and to keep it properly nourished, healthy and efficient. What is discounted here is indulgence in material objects of life to satisfy the indisciplined cravings of the body, so that it remains a fit and efficient vehicle to carry us safely in our spiritual journey.
This Bhavana reflects the fact that the body is full of filth. Day by day we fill our mouths with food and drink which turns into waste. This waste stays in the body until it’s ready to expel it. So quite literally, the body is full of filth.
We take the time to look after the body in so many different ways. Some of us think about what we eat. For example, we may eat super foods and/or use supplements to ensure that the body receives the nutrients it needs etc.
We also make sure the body looks good on the outside. We invest in anti wrinkle products, have facials, go to the gym and so much more. However, the body is prone to disease and will continue to age regardless.
Do any of these activities, foods, supplements, creams and so on; have an affect on the soul? The soul which resides in the body is not affected by any of these things. It does not need these extra activities. It survives with or without them.
The true nature of the body is to decay and age. We must cultivate the thought that the body is separate from the soul. The soul is pure and not contaminated by any of these things.
All humans, despite their age, gender and status are susceptible to disease. The one thing humans have in common is the fact that they have a body. The body goes through the affects of disease, lack of nutrition and so on.
The other thing that humans have in common is they have a soul. The soul does not experience the pains that the human body does. Can you cultivate this and detach from what your body endures?
So what’s good about any of this? We don’t need to let our body get in our way whether it be to suffer through what it experiences or to spend time on it unnecessarily.
Once we realise what the body is and recognise the purpose of it, we will be able to detach from all the things the body needs, wants & experiences & focus on what the soul needs instead. Thus we’ll have more time to reflect on our soul, we’ll have more energy and we will progress further on the spiritual path. Remember the fruit of the path is freedom from all of this.
The twelve Bhavnas described here are the subject matters of one’s meditation, and how to occupy one’s mind with useful, religious, beneficial, peaceful, harmless, spiritually advancing, karma preventing thoughts. They cover a wide field of teachings of Jainism. They are designed to serve as aids to spiritual progress, produce detachment, and lead the aspirants from the realm of desire to the path of renunciation. They are reflections upon the fundamental facts of life, intended to develop purity of thought and sincerity in the practice of religion.
We take the time to look after the body in so many different ways. Some of us think about what we eat. For example, we may eat super foods and/or use supplements to ensure that the body receives the nutrients it needs etc.
We also make sure the body looks good on the outside. We invest in anti wrinkle products, have facials, go to the gym and so much more. However, the body is prone to disease and will continue to age regardless.
Do any of these activities, foods, supplements, creams and so on; have an affect on the soul? The soul which resides in the body is not affected by any of these things. It does not need these extra activities. It survives with or without them.
The true nature of the body is to decay and age. We must cultivate the thought that the body is separate from the soul. The soul is pure and not contaminated by any of these things.
All humans, despite their age, gender and status are susceptible to disease. The one thing humans have in common is the fact that they have a body. The body goes through the affects of disease, lack of nutrition and so on.
The other thing that humans have in common is they have a soul. The soul does not experience the pains that the human body does. Can you cultivate this and detach from what your body endures?
So what’s good about any of this? We don’t need to let our body get in our way whether it be to suffer through what it experiences or to spend time on it unnecessarily.
Once we realise what the body is and recognise the purpose of it, we will be able to detach from all the things the body needs, wants & experiences & focus on what the soul needs instead. Thus we’ll have more time to reflect on our soul, we’ll have more energy and we will progress further on the spiritual path. Remember the fruit of the path is freedom from all of this.
The twelve Bhavnas described here are the subject matters of one’s meditation, and how to occupy one’s mind with useful, religious, beneficial, peaceful, harmless, spiritually advancing, karma preventing thoughts. They cover a wide field of teachings of Jainism. They are designed to serve as aids to spiritual progress, produce detachment, and lead the aspirants from the realm of desire to the path of renunciation. They are reflections upon the fundamental facts of life, intended to develop purity of thought and sincerity in the practice of religion.
Ashuchi bhavana refers to the essential impurity of the body. Param Krupalu Dev Shrimad Rajchandra’s Vachanamrut is dotted with references to the body as “mal mutra ni khan” – a filthy mine of solid and liquid wastes.” We are constantly discharging wastes from our body – from our eyes, nose, ears, pores, and the excretory system.
What comes, goes. The body came with birth and will go with death. Only that which does not have a beginning can be conceived to not have an end. And there is just one such entity - the soul. It has been around forever and will be around forever. It has no beginning or end. Once we grasp the import of this divine knowledge, we open the doors to the boundless power of happiness that is bursting within, waiting to be acknowledged, aching to be experienced.
They say ‘uttam shaucha’ (best cleanliness) is purity. It’s purity of mind that leads us to discover the purity of our soul. And once we land there, there’s no coming back.
The composition of the body will reveal all the things we loathe, such as excrement, urine, blood, meat, bones, sweat, and so on, and therefore is impure. The Soul, within the body but unattached to the body, alone is pure. The body ultimately becomes non existent, but the Soul continues on, is eternal. The emotional attachments to the body is useless.
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JAINAM JAYATI SHASHNAM
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